जाति (नामकर्म)
From जैनकोष
- लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/3 तासु नरकादिगतिष्वव्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतोऽर्थात्मा जाति:। तन्निमित्तं जाति नाम। =उन नारकादि गतियों में जिस अव्यभिचारी सादृश्य से एकपने का बोध होता है, वह जाति है। और इसका निमित्त जाति नामकर्म है। ( राजवार्तिक/8/11/2/576/10 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/16 )
धवला 6/1,9-1,28/51/3 तदो जत्तो कम्मक्खंधादो जीवाणं भूओ सरिसत्तमुप्पज्जदे सो कम्मक्खंधो कारणे कज्जुवयारादो जादि त्ति भण्णदे।=जिस कर्मस्कंध से जीवों के अत्यंत सदृशता उत्पन्न होती है, वह कर्मस्कंध कारण में कार्य के उपचार से ‘जाति’ इस नामावाला कहलाता है।
धवला/13/5,5,101/363/9 एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियभावविणव्वत्तयं जं कम्मं तं जादि णामं। =जो कर्म एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय भाव का बनाने वाला है वह जाति नामकर्म है।
- नामकर्म के भेद
षट्खंडागम 6/1,9-1/ सूत्र 30/67 जं तं जादिणामकम्मं तं पंचविहं, एइंदियजादिणामकम्मं, वीइंदियजादिणामकम्मं, तीइंदियजादिणामकम्मं, चउरिंदियजादिणामकम्मं, पंचिंदियजादिणामकम्मं चेदि। =जो जाति नामकर्म है वह पाँच प्रकार का है–एकेंद्रियजातिनामकर्म, द्वींद्रियजातिनामकर्म, त्रींद्रियजातिनामकर्म, चतुरिंद्रियजातिनामकर्म और पंचेंद्रियजातिनामकर्म ( षट्खंडागम 13/5,5/ सू.103/367); (पं.सं./प्रा/2/4/46/27); ( सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/4 ); ( राजवार्तिक/8/11/2/576/11 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/16 )। और भी–देखें नाम कर्म –असंख्यात भेद हैं–
- एकेंद्रियादि जाति नामकर्मों के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/5 यदुदयात्मा एकेंद्रिय इति शब्द्यते तदेकेंद्रियजातिनाम। एवं शेषेष्वपि योज्यम् । =जिसके उदय से आत्मा एकेंद्रिय कहा जाता है वह एकेंद्रिय जाति नामकर्म है। इसी प्रकार शेष जातियों में भी लागू कर लेना चाहिए। ( राजवार्तिक/8/11/2/576/13 )।
- जाति नामकर्म के अस्तित्व की सिद्धि
धवला 6/1,9-1,28/51/4 जदि परिणामिओ सरिसपरिणामो णत्थि तो सरिसपरिणामकज्जण्णहाणुववत्तीदो तक्कारणकम्मस्स अत्थित्तं सिज्झेज्ज। किंतु गंगाबालुवादिसु परिणामिओ सरिसपरिणामो उवलब्भदे, तदो अणेयंतियादो सरिसपरिणामो अप्पणो कारणीभूदकम्मस्स अत्थित्तं ण साहेदि त्ति। ण एस दोसो गंगाबालुआणं पुढविकाइयणामकम्मोदएण सरिसपरिणामत्तब्भुवगमादो। ...किं च जदि जीवपडिग्गहिदपोग्गलक्खंदसरिसपरिणामो पारिणामिओ वि अत्थि, तो हेऊ अणेयंतिओ होज्ज। ण च एवं, तहाणुवलंभा। जदि जीवाणं सरिसपरिणामो कम्मायत्तो ण होज्ज, तो चउरिंदिया हय-हत्थि-वय-वग्घ-छवल्लादि-संठाणा होज्ज, पंचिदिया वि भमर-मक्कुण-सलहिंदगोव-खुल्लक्ख-रुक्खसंठाणा होज्ज। ण चेवमणुवलंभा पडिणियदसरिसपरिणामेसु अवट्ठिदरुक्खादीणमुवलंभा च। =प्रश्न–यदि पारिणामिक अर्थात् परिणमन कराने वाले कारण के सदृश परिणाम नहीं होता है, तो सदृश परिणामरूप कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता, इस अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु से उसके कारणभूत कर्म का अस्तित्व भले ही सिद्ध होवे। किंतु गंगा नदी की बालुका आदि में पारिणामिक (स्वाभाविक) सदृश परिणाम पाया जाता है, इसलिए हेतु के अनैकांतिक होने से सदृश परिणाम अपने कारणीभूत कर्म के अस्तित्व को नहीं सिद्ध करता। उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, गंगानदी की बालुका के (भी) पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय से सदृश परिणामता मानी गयी है।...दूसरी बात यह है, कि यदि जीव के द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गल-स्कंधों का सदृशपरिणाम पारिणामिक भी हो, तो हेतु अनैकांतिक होवे। किंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि, उस प्रकार का अनुपलंभ है। यदि जीवों का सदृश परिणाम कर्म के अधीन न होवे, तो चतुरिंद्रिय जीव घोड़ा, हाथी, भेड़िया, बाघ और छवल्ल आदि के आकार वाले हो जायेंगे। तथा पंचेंद्रिय जीव भी भ्रमर, मत्कुण, शलभ, इंद्रगोप, क्षुल्लक, अक्ष और वृक्ष आदि के आकार वाले हो जायेंगे। किंतु इस प्रकार है नहीं, क्योंकि, इस प्रकार के वे पाये नहीं जाते तथा प्रतिनियत सदृश परिणामों में अवस्थित वृक्ष आदि पाये जाते हैं।
धवला 13/5,5/101/363/10 जादी णाम सरिसप्पच्चयगेज्झा। ण च तणतरुवरेसु सरिसत्तमत्थि, दोवंचिलियासु (?) सरिसभावाणुवलंभादो ? ण जलाहारग्गहणेण दोण्णं पि समाणत्तदंसणादो।= प्रश्न–जाति तो सदृशप्रत्यय से ग्राह्य है, परंतु तृण और वृक्षों में समानता है नहीं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि जल व आहार ग्रहण करने की अपेक्षा दोनों में ही समानता देखी जाती है।
- एकेंद्रिय जाति के बंधयोग्य परिणाम
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/110/175/10 स्पर्शनेंद्रियविषयलांपट्यपरिणतेन जीवेन यदुपार्जितं स्पर्शनेंद्रियजनकमेकेंद्रियजातिनामकर्म। =स्पर्शनेंद्रिय के विषय की लंपटतारूप से परिणत होने के द्वारा जीव स्पर्शनेंद्रिय जनक एकेंद्रिय जाति नामकर्म बाँधता है।
- अन्य संबंधित विषय
- जाति नामकर्म की बंध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाएँ–देखें वह वह नाम ।