निर्ग्रन्थ
From जैनकोष
निष्परिग्रही, शरीर से नि.स्पृही, करपात्री मुनि । ये तप का साधन मानकर देह की स्थिति के लिए एक, दो उपवास के बाद भिक्षा के समय याचना के बिना ही शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आहार ग्रहण करते हैं । रक्षक एवं घातक दोनों के प्रति ये समभाव रखते हैं । ये सदैव ज्ञान और ध्यान में लीन रहते हैं । महापुराण 76. 402-409, पद्मपुराण 35.114-115 ये पाँच प्रकार के होते हैं—पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक । इनमें पुलाक साधु उत्तरगुणों की भावना से रहित होते हैं । मूल व्रतों का भी वे पूर्णत: पालन नहीं करते । वकुश मूलव्रतों का तो अखण्ड रूप से पालन करते हैं परन्तु शरीर और उपकरणों को साफ, सुन्दर रखने में लीन रहते हैं । इनका परिकर नियत नहीं होता है । इनमें जो कषाय रहित हैं वे प्रतिसेवनाकुशील और जिनके मात्र संज्वलन का उदय रह गया है वे कषायकुशील होते हैं । जिनके जल-रेखा के समान कर्मों का उदय अप्रकट है तथा जिन्हें एक मुहूर्त के बाद ही केवलज्ञान उत्पन्न होने वाला है वे निर्ग्रन्थ होते हैं । जिनके घातियाकर्म नष्ट हो गये हैं वे अर्हंत् स्नातक कहलाते हैं । हरिवंशपुराण 64.58-64