निमित्त कारण
From जैनकोष
- निमित्त कारण का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/21/125/7 प्रत्यय: कारणं निमित्तमित्यनर्थांतरम् । =प्रत्यय, कारण व निमित्त ये एकार्थवाची नाम हैं। ( धवला 12/4,2,8,2/276/2 ); (और भी देखें प्रत्यय )।
सर्वार्थसिद्धि/1/20/120/7 पूरयतीति पूर्वं निमित्तं कारणमित्यनर्थांतरम् । =’जो पूरता है’ अर्थात् उत्पन्न करता है इस व्युत्पत्ति के अनुसार पूर्व निमित्त कारण ये एकार्थवाची नाम हैं। ( राजवार्तिक/1/20/2/70/29 )। श्लोकवार्तिक 2/1/2/11/28/13 –भाषाकार–कार्यकाल में एक क्षण पहले से रहते हुए कार्योत्पत्ति में सहायता करने वाले अर्थ को निमित्तकारण कहते हैं। - निमित्त के एकार्थवाची शब्द
- निमित्त—(देखें निमित्त का लक्षण ; सर्वार्थसिद्धि/8/11; राजवार्तिक/8/11; प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका 95 );
- कारण (देखें निमित्त का लक्षण ; सर्वार्थसिद्धि/8/11; राजवार्तिक/8/11; प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका 95 );
- प्रत्यय (देखें निमित्त का लक्षण );
- हेतु ( समयसार/80; सर्वार्थसिद्धि/8/11; राजवार्तिक/8/11; प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका 95 );।
- साधन (रा./1/7/.../38/2; सर्वार्थसिद्धि/1/7/26/1 );
- सहकारी ( द्रव्यसंग्रह/17; न्यायदीपिका/1/14/13/1; कार्तिकेयानुप्रेक्षा/218 );
- उपकारी ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/41,109 );
- उपग्राहक ( तत्त्वार्थसूत्र/5/17 );
- आश्रय ( सर्वार्थसिद्धि/5/17/282/6 );
- आलंबन ( सर्वार्थसिद्धि/1/23/129/9 );
- अनुग्राहक ( सर्वार्थसिद्धि/6/11/328/11 );
- उत्पादक ( समयसार/100 );
- कर्ता ( समयसार/109; समयसार / आत्मख्याति/100 );
- हेतुकर्ता ( सर्वार्थसिद्धि/5/22/291/8; पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/88 );
- प्रेरक ( सर्वार्थसिद्धि/5/19/286/9 );
- हेतुमत ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/101 );
- अभिव्यंजक ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/360 )।
- करण का लक्षण
जैनेंद्र कां व्याकरण/1/2/113 साधकतमं करणं। =साधकतम कारण को करण कहते हैं। (पाणिनि व्या./1/4/42); ( न्यायविनिश्चय/ वृ./13/58/5)।
समयसार / आत्मख्याति/ परि./शक्ति नं.43 भवद्भावभवनसाधकतमत्वमयी करणशक्ति:। =होते हुए भाव के होने में अतिशयवान् साधकतमपनेमयी करण शक्ति है।
- करण व कारण के तुलनात्मक प्रयोग
सर्वार्थसिद्धि/1/14/108/5 यथा इह धूमोऽग्ने:। एवमिदं स्पर्शनादिकरणं नासति कर्तर्यात्मनि भवितुमर्हतीति ज्ञातुरस्तित्वं गम्यते। =जैसे लोक में धूम अग्नि का ज्ञान कराने में करण होता है, उसी प्रकार ये स्पर्शनादिक करण (इंद्रियाँ) कर्ता आत्मा के अभाव में नहीं हो सकते, अत: उनसे ज्ञाता का अस्तित्व जाना जाता है।
श्लोकवार्तिक/2/1/6/ श्लो.40-41/394 चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।40। चितस्तु भावनेत्रादे: प्रमाणत्वं न वार्यते। तत्साधकतमत्वस्य कथंचिदुपपत्तित:।41। =नैयायिक लोग चक्षु आदि इंद्रियों में, ज्ञान का सहायक होने से, उपचार से कारणपना मानकर, ‘चक्षुषा प्रमीयते’ ऐसी तृतीया विभक्ति अर्थात् करण कारक का प्रयोग कर देते हैं। परंतु उनका ऐसा करना ठीक नहीं है, क्योंकि, उन अचेतन नेत्र आदि को प्रमिति का साधकतमपना सर्वदा नहीं है।40। हाँ यदि भावइंद्रिय (ज्ञान के क्षयोपशम) स्वरूप नेत्र कान आदि को करण कहते हो तो हमें इष्ट है; क्योंकि, चेतन होने के कारण प्रमाण हैं। उनकी किसी अपेक्षा से ज्ञप्तिक्रिया का साधकतमपना या करणपना सिद्ध हो जाता है। ( स्याद्वादमंजरी/10/109/14 ); ( न्यायदीपिका/1/14/12 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/20/71/4 क्रियते रूपादिगोचरा विज्ञप्तय एभिरिति करणानि इंद्रियाण्युच्यंते क्वचित्करणशब्देन। अन्यत्र क्रियानिष्पत्तौ यदतिशयितं साधकं तत्करणमिति साधकतममात्रमुच्यते। क्वचित्तु क्रियासामान्यवचन: यथा ‘डुकृञ्’ करणे इति। =करण शब्द के अनेक अर्थ हैं–रूपादि विषय को ग्रहण करने वाले ज्ञान जिनसे किये जाते हैं अर्थात् उत्पन्न होते हैं वे इंद्रियाँ करण हैं। कार्य उत्पन्न करने में जो कर्ता को अतिशय सहायक होता है उसको भी करण या साधकतम मात्र कहते हैं। जैसे–देवदत्त कुल्हाड़ी से लकड़ी काटता है। कहीं-कहीं करण शब्द का अर्थ सामान्य क्रिया भी माना गया है। जैसे–‘डुकृञ् करणे’ प्रस्तुत प्रकरण में करण शब्द का क्रिया ऐसा अर्थ है।
समयसार / आत्मख्याति/65-66 निश्चयत: कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा यथा कनकपात्रं कनकेन क्रियभाणं कनकमेव न त्वन्यत् । =निश्चयनय से कर्म और करण में अभेद भाव है, इस न्याय से जो जिससे किया जाये वह वही है। जैसे–सुवर्ण से किया हुआ सुवर्ण का पात्र सुवर्ण ही है अन्य कुछ नहीं। (और भी देखें कारक - 1.2); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/16,30,35,96,98,117,126 )। - करण व कारण के भेदों का निर्देश
स्याद्वादमंजरी/8/79/5 में उद्धृत–न चैवं करणस्य द्वैविध्यमप्रसिद्धम् । यदाहुर्लांक्षणिका:–‘करण द्विविधं ज्ञेयं बाह्याभ्यंतरं बुधै:।’ =करण दो प्रकार का न होता हो ऐसा भी नहीं। वैयाकरणियों ने भी कहा है–- बाह्य और
- अभ्यंतर के भेद से करण दो प्रकार का जानना चाहिए। (और भी देखें कारण - 1.2)।
- स्व निमित्त,
- पर निमित्त (उत्पादव्ययध्रौव्य/1/2)।
- बलाधान निमित्त ( सर्वार्थसिद्धि/5/7/273/11 ); ( राजवार्तिक/5/7/4/446/18 );
- प्रतिबंध कारण ( सर्वार्थसिद्धि/5/24/296/8 ) ( राजवार्तिक/5/24/15/489/7 );
- कारक हेतु,
- ज्ञायक हेतु,
- व्यंजक हेतु (देखें हेतु )।
- निमित्त के भेदों के लक्षण व उदाहरण
राजवार्तिक/1/ सू./वार्तिक/पृष्ठ/प. इंद्रियानिंद्रियबलाधानात् पूर्वमुपलब्धेऽर्थे नोइंद्रियप्राधांयात् यदुत्पद्यते ज्ञानं तत् श्रुतम् । ( राजवार्तिक/1/9/27/48/29 )। यत: सत्यपि सम्यग्दृष्टे: श्रोत्रेद्रियबलाधाने बाह्याचार्यपदार्थोपदेशसंनिधाने च श्रुतज्ञानावरणोदयवशीवृतस्य स्वयमंत:श्रुतभवननिरुत्सुकत्वादात्मनो न श्रुतं भवति, अत: बाह्यमतिज्ञानादिनिमित्तापेक्ष आत्मैव आभ्यंतर...श्रुतभवनपरिणामाभिमुख्यात् श्रुतीभवति, न मतिज्ञानस्य श्रुतीभवनमस्ति, तस्य निमित्तमात्रत्वात् । ( राजवार्तिक/1/20/4/79/7 )। चक्षुरादीनां रूपादिविषयोपयोगपरिणामात् प्राक् मनसो व्यापार:। ...ततस्तद्वलाधानीकृत्य चक्षुरादीनि विषयेषु व्याप्रियंते। ( राजवार्तिक/2/15/4/129/20 )। श्रोत्रबलाधानादुपदेशं श्रुत्वा हिताहितप्राप्तिपरिहारार्थमाद्रियंते। अत: श्रोत्रं बहूपकारीति। ( राजवार्तिक/2/19/7/131/30 )। युज्यते धर्मास्तिकायस्य जीवपुद्गलगतिं प्रत्यप्रेरकत्वम्, निष्क्रियस्यापि बलाधानमात्रत्व दर्शनात्, आत्मगुणस्तु अपरत्र क्रियारंभे प्रेरको हेतुरिष्यते तद्वादिभि:। न च निष्क्रियो द्रव्यगुण: प्रेरको भवितुमर्हति...। किंच, धर्मास्तिकायाख्यद्रव्यमाश्रयकारणं भवतु न तु निष्क्रियात्मद्रव्यगुणस्य ततो व्यतिरेकेणाऽनुपलभ्यमानस्य क्रियाया आश्रयकारणत्वं युक्तम् । ( राजवार्तिक/5/7/13/447/33 )। उपकारो बलाधानम् अवलंबनं इत्यनर्थांतरम् । तेन धर्माधर्मयो: गतिस्थितिनिर्वर्तने प्रधानकर्तृत्वमपोदितं भवति। यथा अंधस्येतरस्य वा स्वजंघाबलाद्गच्छत: यष्टयाद्युपकारकं भवति न तु प्रेरकं तथा जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरकौ इत्युक्तं भवति। ( राजवार्तिक/5/17/16/7 )। =इंद्रिय व मन के बलाधान निमित्त से पूर्व उपलब्ध पदार्थ में मन की प्रधानता से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह श्रुत है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव को श्रोत्रेंद्रिय का बलाधाननिमित्त होते हुए भी तथा बाह्य में आचार्य, पदार्थ व उपदेश का सानिध्य होने पर भी, श्रुतज्ञानावरण से वशीकृत आत्मा का स्वयं श्रुतभवन के प्रति निरुत्सुक होने के कारण, श्रुतज्ञान नहीं होता है, इसलिए बाह्य जो मतिज्ञान आदि उनको निमित्त करके आत्मा ही अभ्यंतर में श्रुतरूप होने के परिणाम की अभिमुख्यता के कारण श्रुतरूप होता है। मतिज्ञान श्रुतरूप नहीं होता, क्योंकि वह तो श्रुतज्ञान का निमित्तमात्र है। चक्षु आदि इंद्रियों के द्वारा ज्ञान होने से पहले ही मन का व्यापार होता है। उसको बलाधान करके चक्षु आदि इंद्रियाँ अपने-अपने विषयों में व्यापार करती है। श्रोत्र इंद्रिय के बलाधान से उपदेश को सुनकर हित की प्राप्ति और अहित के परिहार में प्रवृत्ति होती है, इसलिए श्रोत्रेंद्रिय बहुत उपकारी है। धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल की गति में अप्रेरक कारण है अत: वह निष्क्रिय होकर भी बलाधायक हो सकता है। परंतु आप तो आत्मा के गुण को पर की क्रिया में प्रेरक निमित्त मानते हो, अत: धर्मास्तिकाय का दृष्टांत विषम है। कोई भी निष्क्रिय द्रव्य या उसका गुण प्रेरक निमित्त नहीं हो सकता। धर्मास्तिकाय द्रव्य तो अन्यत्र आश्रयकारण हो सकता है, पर निष्क्रिय आत्मा का गुण जो कि पृथक् उपलब्ध नहीं होता, क्रिया का आश्रयकारण भी संभव नहीं है। उपकार, बलाधान, अवलंबन ये एकार्थवाची शब्द हैं। ऐसा कहने से धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य का जीव पुद्गल की गतिस्थिति के प्रति प्रधान कर्तापने का निराकरण कर दिया गया। जैसे लाठी चलते हुए अंधे की उपकारक है, उसे प्रेरणा नहीं करती उसी तरह धर्मादिक को भी उपकारक कहने से उनमें प्रेरकपना नहीं आ सकता है।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/85-88 धर्मोऽपि स्वयमगच्छन् अगमयंश्च स्वयमेव गच्छतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन गमनमनुगृह्णाति इति।85। तथा अधर्मोऽपि स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन् परमस्थापयंश्च स्वयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णातीति।86। यथा हि गतिपरिणत: प्रभंजनो वैजयंतीनां अतिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथा धर्म:।88। पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/84/142/11 यथा सिद्धो भगवानुदासीनोऽपि सिद्धगुणानुरागपरिणतानां भव्यानां सिद्धगते सहकारिकारणं भवति तथा धर्मोऽपि स्वभावेनैव गतिपरिणतजीवपुद्गलानामुदासीनोऽपि गतिसहकारिकारणं भवति। =- धर्म द्रव्य स्वयं गमन न करता हुआ और अधर्म द्रव्य स्वयं पहले से ही स्थिति रूप वर्तता हुआ, तथा ये दोनों ही पर को गमन व स्थिति न कराते हुए जीव व पुद्गलों को अविनाभावी सहायरूप कारणमात्ररूप से गमन व स्थिति में अनुग्रह करते हैं।85-86। जिस प्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओं के गतिपरिणाम का हेतुकर्ता दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म द्रव्य नहीं है।88।
- जिस प्रकार सिद्ध भगवान् स्वयं उदासीन रहते हुए भी, सिद्धों के गुणानुराग रूप से परिणत भव्यों की सिद्धगति में, सहकारी कारण होते हैं, उसी प्रकार धर्मद्रव्य भी स्वभाव से ही गतिपरिणत जीवों को, उदासीन रहते हुए भी, गति में सहकारी कारण हो जाता है। नोट–(उपरोक्त उदाहरणों पर से निमित्तकारण व उसके भेदों का स्पष्ट परिचय मिल जाता है। यथा–स्वयं कार्यरूप परिणमे वह उपादान कारण है तथा उसमें सहायक होनेवाले परद्रव्य व गुण निमित्त कारण हैं। वह निमित्त दो प्रकार का होता है–बलाधान व प्रेरक। बलाधान निमित्त को उदासीन निमित्त भी कहते हैं, क्योंकि, अन्य द्रव्य को प्रेरणा किये बिना, वह उसके कार्य में सहायक मात्र होता है। परंतु इसका यह अर्थ भी नहीं कि वह बिलकुल व्यर्थ ही है; क्योंकि, उसके बिना कार्य की निष्पत्ति असंभव होने से उसको अविनाभावी सहायक माना गया है। प्रेरक निमित्त क्रियावान द्रव्य ही हो सकता है। निष्क्रिय द्रव्य या वस्तु का गुण प्रेरक नहीं हो सकते। वस्तु की सहायता व अनुग्रह करने के कारण वह निमित्त उपकार, सहायक, सहकारी, अनु्ग्राहक आदि नामों से पुकारा जाता है। प्रेरक निमित्त किसी द्रव्य की क्रिया में हेतुकर्ता कहा जा सकता है, पर उदासीन निमित्त को नहीं। कार्य क्षण से पूर्व क्षण में वर्तने वाला अन्य द्रव्य सहकारी कारण कहलाता है (देखें कारण - I.3.1)। स्व व पर निमित्तक उत्पाद के लिए–देखें उत्पादव्ययध्रौव्य - 1।
- निमित्तकारण की मुख्यता गौणता—देखें कारण - III।