योनि
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
जीवों के उत्पन्न होने के स्थान को योनि कहते हैं । उसको दो प्रकार से विचार किया जाता है - शीत, उष्ण, संवृत, विवृत आदि की अपेक्षा और माता की योनि के आकार की अपेक्षा ।
- योनि सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/32/188/10 योनिरुपपाददेशपुद्गलप्रचयः । = उपपाद देश के पुद्गल प्रचय रूप योनि है ।
राजवार्तिक/2/32/10/142/13 यूयत इति योनिः । = जिसमें जीव जाकर उत्पन्न हो उसका नाम योनि है ।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/81/203/9 यौति मिश्रीभवति औदारिकादिनोकर्मवर्गणापुद्गलैः सह संबद्धयते जीवो यस्यां सा योनिः - जीवोत्पत्तिस्थानम् । = योनि अर्थात् मिश्ररूप होता है । जिसमें जीव औदारिकादि नोकर्म वर्गणारूप पुद्गलों के साथ संबंध को प्राप्त होता है, ऐसे जीव के उपजने के स्थान का नाम योनि है ।
- योनि के भेद
- आकारों की अपेक्षा
मू. आ./1102 संख्यावत्तयजोणी कुम्मुण्णद वंसपत्तजोणी य । = शंखावर्त योनि, कूर्मोन्नत योनि, वंशपत्र योनि - इस तरह तीन प्रकार की आकार योनि होती है । ( गोम्मटसार जीवकांड/81/203 )।
- शीतोष्णादि की अपेक्षा
तत्त्वार्थसूत्र/2/32 सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः । = सचित, शीत और संवृत तथा इनकी प्रतिपक्षभूत अचित, उष्ण और विवृत तथा मिश्र अर्थात् सचित्तचित्त, शीतोष्ण और संवृत-विवृत ये उसकी अर्थात् जन्म की योनियाँ हैं ।32।
- चौरासी लाख योनियों की अपेक्षा
मू. आ./226 णिच्चिदरधादु सत्त य तरु दस विगलिंदिएसु छच्चेव । सुरणरयतिरिय चउरो चउदस मणुए सदसहस्सा ।226। = नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथिवीकाय से लेकर वायुकाय तक-इनके सात सात लाख योनियाँ हैं । प्रत्येक वनस्पति के दश लाख योनि हैं, दो इंद्रिय से चौइंद्री तक सब छह लाख ही हैं, देव व नारकी और पंचेंद्री तिर्यंचों के चार-चार लाख योनि हैं तथा मनुष्यों के चौदह लाख योनि हैं । सब मिलकर चौरासी लाख योनि हैं ।226। (मू. आ./1104); ( बारस अणुवेक्खा/35 ); ( तिलोयपण्णत्ति/5/297 ); ( तिलोयपण्णत्ति/8/701 ); ( तत्त्वसार/2/110-111 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/89/211 ); ( नियमसार/ ता./वृ./42) ।
- आकारों की अपेक्षा
- सचित्तचित्त योनि के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/32/187-188/10 आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम् । सह चित्तेन वर्तत इति सचित्त: । शीत इति स्पर्श-विशेषः....सम्यग्वृतः संवृतः । संवृत इति दुरुपलक्ष्यप्रदेश उच्यते ।...योनिरुपपाददेशपुद्गलप्रचयोऽचित्तः ।...मातुरुदरे शुक्रशोणितमचित्तम्, तदात्मना चित्तवता मिश्रणान्मिश्रयोनिः । = आत्मा के चैतन्य विशेष रूप परिणाम को चित्त कहते हैं । जो उसके साथ रहता है वह सचित्त कहलाता है । शीत यह स्पर्श का एक भेद है । जो भले प्रकार ढका हो वह संवृत कहलाता है, यहाँ संवृत ऐसे स्थान को कहते हैं जो देखने में न आवे ।....उपपाद देश के पुद्गलप्रचयरूप योनि अचित्त है ।...माता के उदर में शुक्र और शोणित अचित्त होते हैं जिनका सचित्त माता की आत्मा के साथ मिश्रण है इसलिए वह मिश्रयोनि है । ( राजवार्तिक/2/32/1-5/141/22 )।
- सचित्त - अचित्तादि योनियों का स्वामित्व
मू. आ./1099-1101 एइंदिय णेरइया संवुढजोणी इवंति देवा य । विवलिंदिया य वियडा संवुढवियडा य गब्भेसु ।1099। अचित्ता खलु जोणी णेरइयाणं च होइ देवाणं । मिस्सा य गब्भजम्मा तिविही जोणी दु सेसाणं ।1100। सीदुण्हा खलु जोणी णउइयाणं तहेव देवाणं । तेऊण उसिणजोणी तिविहा जोणी दु सेसाणं ।1101। = एकेंद्रिय, नारकी, देव इनके संवृत (दुरुपलक्ष) योनि है, दोइंद्रिय से चौइंद्रिय तक विवृत योनि है । और गर्भजों के संवृतविवृत योनि है ।1099। अचित्त योनि देव और नारकियों के होती है, गर्भजों के मिश्र अर्थात् सचित्तचित्त योनि होती है । और शेष समूर्छनों के तीनों ही योनि होती हैं ।1100। (देखें आगे सर्वार्थसिद्धि ) । नारकी और देवों के शीत, उष्ण योनि है, तेजस्कायिक जीवों के उष्ण योनि है और शेष एकेंद्रियादि के तीनों प्रकार की योनि हैं ।1101। ( सर्वार्थसिद्धि/2/32/188/10 ); ( राजवार्तिक/2/32/18-26/143/1 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/85-87/208 ) ।
तिलोयपण्णत्ति/4/2948-2950 ....गब्भुब्भवजीवाणं मिस्सं सच्चित्तजोणीए ।2948। सीदं उण्हं मिस्सं जीवेसं होंति गब्भपभवेसुं । ताणं भवंति संवदजोणीए मिस्सजोणी य ।2949। सीदुण्हमिस्सजोणी सच्चित्ताचित्तमिस्सविउडा य । सम्सुच्छिममणुवाणं सचित्तए होंति जोणीओ ।2950। =- मनुष्य गर्भज−गर्भ जन्म से उत्पन्न जीवों के सचित्तादि तीन योनियों में से मिश्र (सचित्तासचित्त) योनि होती हैं ।2948। गर्भ से उत्पन्न जीवों के शीत, उष्ण और मिश्र योनि होती हैं तथा इन्हीं गर्भज जीवों के संवृतादिक तीन योनियों में से मिश्र योनि होती है ।2949।
- सम्मूर्च्छन मनुष्य−सम्मूर्छन मनुष्यों के उपर्युक्त सचित्तादिक नौ गुणयोनियों में से शीत, उष्ण, मिश्र (शीतोष्ण), सचित्त, अचित्त, मिश्र (सचित्ताचित्त) और विवृत ये योनियाँ होती हैं ।2950।
तिलोयपण्णत्ति/5/293-295 उप्पत्ती तिरियाणं गब्भजसमुच्छिमो त्ति पत्तेक्कं । सचित्तसीदसंवदसेदरमिस्सा य जहजोग्गं ।293। गब्भुब्भवजीवाणं मिस्सं सच्चित्तणामधेयस्स । सीदं उण्हं मिस्सं संवदजोणिम्मि मिस्सा य ।294। संमुच्छिमजीवाणं सचित्ताचित्तमिस्ससीदुसिणा । मिस्सं संवदविवुदं णवजोणीओहुसामण्णा ।295।
तिलोयपण्णत्ति/8/700-701 भावणवेंतरजोइसियकप्पवासीणमु वादे । सीदुण्हं अच्चित्तं संउदया होंति सामण्णे ।700। एदाण चउविहाणं सुराण सव्वाण होंति जोणीओ । चउलक्खाहु विसेसे इंदियकल्लादरूवाओ ।701।= - गर्भजतिर्यंच− तिर्यंचों की उत्पत्ति गर्भ और सम्मूर्छन जन्म से होती है । इनमें से प्रत्येक जन्म की सचित्त, शीत, संवृत तथा इनसे विपरीत अचित्त, उष्ण, विवृत और मिश्र (सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, संवृतविवृत), ये यथायोग्य योनियाँ होती हैं ।293। = गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीवों में सचित्त नामक योनि में से मिश्र (सचित्ताचित्त), शीत, उष्ण, मिश्र (शीतोष्ण) और संवृत योनि में मिश्र (संवृत-विवृत) योनि होती है ।294।
- सम्मूर्च्छन तिर्यंच−सम्मूर्च्छन जीवों के सचित्त, अचित्त, मिश्र (सचित्ताचित्त) शीत, उष्ण, मिश्र (शीतोष्ण) और संवृत योनि में से मिश्र (संवृत-विवृत) योनि होती है ।295 ।
- उपपादजदेव−भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासियों के उपपाद जन्म में शीतोष्ण, अचित्त और संवृत योनि होती है । इन चारों प्रकार के सब देवों के सामान्य रूप से सब योनियाँ होती हैं । विशेष रूप से चार लाख योनियाँ होती हैं ।700-701 ।
सर्वार्थसिद्धि/2/32/189/1 सचित्तयोनयः साधारणशरीराः । कुतः । परस्पराश्रयत्वात् । इतरे अचित्तयोनयो मिश्रयोनयश्च । = साधारण शरीर वालों की सचित्त योनि होती है, क्योंकि ये एक दूसरे के आश्रय से रहते हैं । इनसे अतिरिक्त शेष सम्मूर्च्छन जीवों के अचित्त और मिश्र दोनों प्रकार की योनियाँ होती हैं । ( राजवार्तिक/2/32/20/143/6 )।
- शंखावर्त आदि योनियों का स्वामित्व
मू. आ./1102-1103 तत्थ य संखावत्ते णियमादु विवज्जए गब्भो ।1102। कुम्मुण्णद जोणीए तित्थयरा दुविहचक्कवट्टीय । रामावि य जायंते सेसा सेसेसु जोणीसु ।1103। = शंखावर्त योनि में नियम से गर्भ नष्ट हो जाता है ।1102। कूर्मोन्नत योनि में तीर्थंकर, चक्री, अर्धचक्री, दोनों बलदेव ये उत्पन्न होते हैं और बाकी की योनियों में शेष मनुष्यादि पैदा होते हैं ।1103। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2952 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/81-82/203-204 ) ।
- जन्म व योनि में अंतर
सर्वार्थसिद्धि/2/32/188/7 योनिजन्मनैरविशेष इति चेत् । नः आधाराधेयभेदात्तद्भेदः । त एते सचित्तदयो योनय आधाराः । आधेया जन्मप्रकाराः । यतः सचित्तदियोन्यधिष्ठाने आत्मा सम्मूर्च्छनादिना जन्मना शरीराहारेंद्रियादियोग्यांपुद्गलानुपादत्ते । = प्रश्न−योनि और जन्म में कोई भेद नहीं ? उत्तर−नहीं, क्योंकि आधार और आधेय के भेद से उनमें भेद है । ये सचित्त आदिक योनियाँ आधार हैं और जन्म के भेद आधेय हैं, क्योंकि सचित्त आदि योनि रूप आधार में सम्मूर्च्छन आदि जन्म के द्वारा आत्मा शरीर, आहार और इंद्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । ( राजवार्तिक/2/32/13/142/19 )।
पुराणकोष से
जीवों की उत्पत्ति के स्थान । ये नौ प्रकार के होते हैं । वे हैं—सचित, अचित्त, सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संवृत, विवृत और संवृत-विवृत । महापुराण 17.21, हरिवंशपुराण 2.116