मैथुन
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- सर्वार्थसिद्धि/7/16/353/10 स्त्रीपुंसयोश्चारित्रमोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयोः परस्परस्पर्शनं प्रति इच्छा मिथुनम् । मिथुनस्य भावं मैथुनमित्युच्यते । = चारित्रमोह का उदय होने पर राग परिणाम से युक्त स्त्री और पुरुष के जो एक दूसरे को स्पर्श करने की इच्छा होती है वह मैथुन कहलाता है । ( राजवार्तिक /7/16/543/29 ); (विशेष देखें ब्रह्मचर्य - 4.1)।
धवला 12/4, 2, 8, 5/282/5 त्थी-पुरिसविसयवावारो मणवयण-कायसरूवो मेहुणं ।..एत्थवि अंतरंगमेहुणस्सेव बहिरंगमेहुणस्स आसवभावो वत्तव्वो । = स्त्री और पुरुष के मन, वचन व कायस्वरूप विषयव्यापार को मैथुन कहा जाता है । यहाँ पर अंतरंग मैथुन के समान बहिरंग मैथुन को भी (कर्मबंध का) कारण बतलाना चाहिए ।
- मैथुन व अब्रह्म संबंधी शंकाएँ−देखें ब्रह्मचर्य - 4 ।
- वेद व मैथुन में अंतर− देखें संज्ञा ।
पुराणकोष से
आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं में तीसरी संज्ञा-कामेच्छा । महापुराण 36.131