श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश
From जैनकोष
श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश
1. भेद व लक्षण
1. श्रुतज्ञान सामान्य का लक्षण
- सामान्य अर्थ
सर्वार्थसिद्धि/ अ./सू./पू./पं श्रूयते अनेन तत् शृणोति श्रवणमात्रं वा श्रुतम् (1/9/94/1) श्रुतशब्दोऽयं श्रवणमुपादाय व्युत्पादितोऽपि रूढ़िवशात् कस्मिंश्चिज्ज्ञानविशेषे वर्तते। यथा कुशलवनकर्म प्रतीत्य व्युत्पादितोऽपि कुशलशब्दो रूढिवशात्पर्यवदाते वर्तते (1/20/120/4) श्रुतज्ञानविषयोऽर्थ: श्रुतम् (2/21/179/7)। विशेषेण तर्कणमूहनं वितर्क: श्रुतज्ञानमित्यर्थ: (9/43/455/6)।=1. पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुनना मात्र श्रुत कहलाता है ( राजवार्तिक/1/9/2/44/10 )। 2. यह श्रुत शब्द सुनने रूप अर्थ की मुख्यता से निष्पादित है तो भी रूढि से उसका वाच्य कोई ज्ञान विशेष है। जैसे - कुशल शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ कुशा का छेदना है तो भी रूढि से उसका अर्थ पर्यवदात अर्थात् विमल या मनोज्ञ लिया जाता है। ( राजवार्तिक/1/20/1/70/21 ); ( धवला 9/4,1,45/160/5 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/315/673/17 ) 3. श्रुतज्ञान का विषयभूत अर्थ श्रुत है। ( राजवार्तिक/2/21/-/134/18 ) 4. विशेष रूप से तर्कणा करना अर्थात् ऊहा करना वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान कहलाता है। ( राजवार्तिक/9/43/634/6 ), ( तत्त्वसार/1/24 ), ( अनगारधर्मामृत/1/1/5 पर उद्धृत)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/262 सव्वं पि अणेयतं परोक्ख-रूवेण जं पयासेदि। तं सुयणाणं भण्णदि ससय-पहुदीहि परिचत्तं।262। = जो परोक्ष रूप से सब वस्तुओं को अनेकांत रूप दर्शाता है, संशय, विपर्यय आदि से रहित उस ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं।262।
अनगारधर्मामृत/3/5 स्वावृत्त्यपायेऽविस्पष्टं यन्नानार्थप्ररूपणम् । ज्ञानं...तच्छुतम।5। = श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर नाना पदार्थों के समीचीन स्वरूप का निश्चय कर सकने वाले अस्पष्ट ज्ञान को श्रुत कहते हैं।5।
द्रव्यसंग्रह टीका/5/15/10 श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमात् ...मूर्त्तामूर्त्तवस्तुलोकालोकव्याप्तिज्ञानरूपेण यदस्पष्टं जानाति तत् ...श्रुतज्ञानं भण्यते। = श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से...जो मूर्तिक अमूर्तिक वस्तु को लोक तथा अलोक को व्याप्ति ज्ञान रूप से अस्पष्ट जानता है उसको श्रुतज्ञान कहते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/315/673,16 श्रूयते श्रोत्रेंद्रियेण गृह्यते इति श्रुत: शब्द:, तस्मादुत्पन्नमर्थज्ञानं श्रुतज्ञानमिति व्युत्पत्तेरपि अक्षरात्मकप्राधान्याश्रयणात् । = जो सुना जाता है उसको शब्द कहते हैं, शब्द से उत्पन्न ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। इस अर्थ में अर्थात्मक श्रुतज्ञान ही प्रधान हुआ, अथवा श्रुत ऐसा रूढि शब्द है।
- अर्थ से अर्थांतर का ग्रहण
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/122 अत्थाओ अत्थंतर उवलंभे तं भणंति सुयणाणं। = मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ के अवलंबन से तत्संबंधी दूसरे पदार्थ का जो उपलंभ अर्थात् ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं।122। ( धवला 1/1,1,115/ गा.183/359); ( गोम्मटसार जीवकांड/315/673 ); (न.च./गद्य/36/6)।
राजवार्तिक/1/9/27-29/ पृ./पं. इंद्रियानिंद्रियबलाधानात् पूर्वमुपलब्धेऽर्थे नोइंद्रियप्राधांयात् यदुत्पद्यते ज्ञानं तत् श्रुतम् (48/29)। एकं घटमिंद्रियानिंद्रियाभ्यां निश्चित्यायं घट इति तज्जातीयमन्यमनेकदेशकालरूपादिविलक्षणमपूर्वमधिगच्छति यत्तत् श्रुतम् (48/34)। अथवा इंद्रियानिंद्रियाभ्यामेकं जीवमजीवं चोपलभ्य तत्र सत्संख्या...आदिभि: प्रकारैरर्थप्ररूपणे कर्तव्ये यत्समर्थं तत् श्रुतम् (49/1)। =1. शब्द सुनने के बाद जो मन की ही प्रधानता से अर्थ ज्ञान होता है वह श्रुत है। 2. एक घड़े को इंद्रिय और मन से जानकर तज्जातीय विभिन्न देशकालवर्ती घटों के संबंध जाति आदि का जो विचार होता है वह श्रुत है। 3. अथवा श्रुतज्ञान इंद्रिय और मन के द्वारा एक जीव को जानकर उसके संबंध के सत् संख्या...आदि अनुयोगों के द्वारा नाना प्रकार से प्ररूपण करने में जो समर्थ होता है वह श्रुतज्ञान है।
धवला 1/1,1,2/93/5 सुदणाणं णाम मदि-पुव्वं मदिणाणपडिगहियमत्थं मोत्तूणण्णत्थम्हि वावदं सुदणाणावरणीय-क्खयोवसम-जणिदं। = जिस ज्ञान में मतिज्ञान कारण पड़ता है, जो मतिज्ञान से ग्रहण किये गये पदार्थ को छोड़कर तत्संबंधित दूसरे पदार्थ में व्यापार करता है, और श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। ( धवला 13/5,5,21/210/4;5,5,43/545/4 ); ( कषायपाहुड़ 1/1-1/28/42/6 ); ( कषायपाहुड़ 1/1-15/308/340/5 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/77 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/315/673/11 )।
2. शब्द व अर्थ लिंग रूप भेद व उनके लक्षण
कषायपाहुड़ 1/1-15/308-309/340-341/5 तं दुविहं - सद्दलिंगजं, अत्थलिंगजं चेदि। तत्थ तं सद्दलिंगजं तं दुविहं लोइयं लोउत्तरियं चेदि। सामण्णपुरिसवयणविणिग्गयवयणकलावजणियाणं लोइयसहजं। असच्चकारणविणिम्मुक्कपुरिसवयणविणिग्गयवयणकलावजणिय सुदणाणं लोउत्तरियं। धूमादिअत्थलिंगजं पुणअणुमाणं णाम।=श्रुतज्ञान शब्दलिंगज और अर्थलिंगज के भेद से दो प्रकार का है। उनमें भी जो शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है वह लौकिक और लोकोत्तर के भेद से दो प्रकार का है। सामान्य पुरुष के मुख से निकले हुए वचन समुदाय से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह लौकिक शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है। असत्य बोलने के कारणों से रहित पुरुष के मुख से निकले हुए वचन समुदाय से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह लोकोत्तर शब्द लिंगज श्रुतज्ञान है। तथा धूमादिक पदार्थ रूप लिंग से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थलिंगज श्रुतज्ञान है। इसका दूसरा नाम अनुमान भी है।
धवला 6/1,9-1,14/21/6 तत्थ सुदणाणं णाम इंदिएहि गहित्थादो तदो पुधभूदत्थग्गहणं, जहा सद्दाहो घडादीणमुवलंभो, धूमादो अग्गिस्सुवलंभो वा।=इंद्रियों से ग्रहण किये पदार्थ से उससे पृथग्भूत पदार्थ का ग्रहण करना श्रुतज्ञान है। जैसे शब्द से घट आदि पदार्थों का जानना। अथवा धूमादि से अग्नि का ग्रहण करना। ( धवला 1/1,1,115/357/8 ); ( धवला 13/5,5,21/210/5;5,5,43/245/5 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/78-79 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/44/188/2 )।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/316/676/3 श्रुतज्ञानस्य अनक्षरात्मकाक्षरात्मकौ द्वौ भेदौ।=अनक्षरात्मक और अक्षरात्मक के भेद से श्रुतज्ञान के दो भेद हैं। [वाचक शब्द पर से वाच्यार्थ का ग्रहण अक्षरात्मक श्रुत है, और शीतादि स्पर्श में इष्टानिष्ट का होना अनक्षरात्मक श्रुत है। देखें श्रुतज्ञान - 3.3]।
3. द्रव्य - भाव श्रुतरूप भेद व उनके लक्षण
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/348-349/744/15 अंगबाह्यसामायिकादिचतुर्दशप्रकीर्णकभेदद्रव्यभावात्मकश्रुतं पुद्गलद्रव्यरूपं वर्णपदवाक्यात्मकं द्रव्यश्रुतं, तच्छ्रवणसमुत्पन्नश्रुतज्ञानपर्यायरूपं भावश्रुतं।=आचारांग आदि बारह अंग, उत्पादपूर्व आदि चौदह पूर्व और चकार से सामायिकादि 14 प्रकीर्णक स्वरूप द्रव्यश्रुत जानना, और इनके सुनने से उत्पन्न हुआ जो ज्ञान सो भावश्रुत जानना। पुद्गलद्रव्यस्वरूप अक्षर पदादिक रूप से द्रव्यश्रुत है, और उनके सुनने से श्रुतज्ञान की पर्याय रूप जो उत्पन्न हुआ ज्ञान सो भावश्रुत है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/57/228/11 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/58/239/10 वर्तमानपरमागमाभिधानद्रव्यश्रुतेन तथैव तदाधारोत्पन्ननिर्विकारस्वसंवेदनज्ञानरूपभावश्रुतेन..।=वर्तमान परमागम नामक द्रव्यश्रुत से तथा उस परमागम के आधार से उत्पन्न निर्विकार स्व-अनुभव रूप भावश्रुत से परिपूर्ण...।
4. सम्यक् व मिथ्याश्रुतज्ञान के लक्षण
नोट - [सम्यक् श्रुत के लिए - देखें श्रुतज्ञान सामान्य का लक्षण ।]
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/119 आभीयमासुरक्खा भारह-रामायणादि उवएसा। तुच्छा असाहणीया सुयअण्णाण त्ति णं विंति।119।=चौरशास्त्र, हिंसा शास्त्र तथा महाभारत, रामायण आदि के तुच्छ और परमार्थशून्य होने से साधन करने के अयोग्य उपदेशों को श्रुताज्ञान कहते हैं। ( धवला 1/1,1,115/ गा.181/359); ( गोम्मटसार जीवकांड/304/655 )।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/41 यत्तदावरणक्षयोपशमादनिंद्रियावलंबाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तत् श्रुतज्ञानम् ।...मिथ्यादर्शनोदयसहचरितं श्रुतज्ञानमेव कुश्रुतज्ञानम् ।=उस प्रकार के (अर्थात् श्रुतज्ञान के) आवरण के क्षयोपशम से और मन के अवलंबन से मूर्त-अमूर्त द्रव्य का विकल्प रूप से विशेषत: अवबोधन करता है वह श्रुतज्ञान है।...मिथ्यादर्शन के उदय के साथ श्रुतज्ञान ही कुश्रुतज्ञान है।
5. उपयोग लब्धि व भावना रूप भेद निर्देश
पंचास्तिकाय/ प्रक्षेपक गा./43-2/86 सुदणाणं पुण णाणी भणंति लद्धी य भावणा चेव। उवओगणयवियप्पं णाणेण य वत्थु अत्थस्स।43-2।=ज्ञानी को श्रुतज्ञान लब्धि व भावनारूप से दो-दो प्रकार का होता है अथवा प्रमाण व नय के भेद से दो प्रकार का होता है। सकल वस्तु को ग्रहण करने वाले के प्रमाणरूप और वस्तु के एकदेश ग्रहण करने वाले के नय रूप होता है।
6. धारावाही ज्ञान निर्देश
न्यायदीपिका/1/15/13/7 एकस्मिन्नेव घटे विषयाज्ञानविघटनार्थमाद्ये ज्ञाने प्रवृत्ते तेन घटप्रमितौ सिद्धायां पुनर्घटोऽयं घटोऽयमित्येवमुत्पन्नान्युत्तरोत्तरज्ञानानि खलु धारावाहिकज्ञानानि भवंति। = एक ही घट में घट विषयक अज्ञान के निराकरण करने के लिए प्रवृत्त हुए पहले घट ज्ञान से घट की प्रमिति हो जाने पर फिर 'यह घट है' 'यह घट है' इस प्रकार उत्पन्न हुए ज्ञान धारावाहिक ज्ञान हैं।
7. श्रुतज्ञान में भेद होने का कारण
राजवार्तिक/1/20/9/72/9 मतिपूर्वकत्वाविशेषात् श्रुताविशेष इति चेत्; न, कारणभेदात्तद्भेदसिद्धे:।9। ...प्रतिपुरुषं हि मतिश्रुतावरणक्षयोपशमो बहुधा भिन्न: तद्भेदाद् बाह्यनिमित्तभेदाच्च श्रुतस्य प्रकर्षाप्रकर्षयोगो भवति मतिपूर्वकत्वाविशेषेऽपि। =प्रश्न - मतिज्ञान पूर्वक होने से सभी श्रुतज्ञानों में अविशेषता है, अर्थात् कोई भेद नहीं है ? उत्तर - नहीं; क्योंकि कारण भेद से कार्य के भेद का नियम सर्व सिद्ध है। चूँकि सभी प्राणियों के अपने-अपने क्षयोपशम के भेद से, बाह्य निमित्त के भेद से, श्रुतज्ञान का प्रकर्षाप्रकर्ष होता है, अत: मतिपूर्वक होने पर भी सभी के श्रुतज्ञानों में विशेषता बनी रहती है। ( धवला 9/4,1,45/161/1 )।
2. श्रुतज्ञान निर्देश
1. श्रुतज्ञान के पर्यायवाची नाम
षट्खंडागम 13/5,5/ सू.50/280 पावयणं पवयणीयं पवयणट्ठो गदीसु मग्गणदा आदा परंपरलद्धी अणुत्तरं पवयणं पवयणी पवयणद्धा पवयणसण्णियासो णयविधी णयंतरविधी भंगविधी भंगविधिविसेसो पुच्छाविधी पुच्छाविधिविसेसोतच्चं भूदं भव्वं भवियं अवितथं अविहदं वेदं णायं सुद्धं सम्माइट्ठी हेदुवादो णयवादो पवरवादो मग्गवादो सुदवादो परवादो लोइयवादो लोगुत्तरीयवादो अग्गं मग्गं जहाणुमग्गं पुव्वं जहाणुपुव्वं पुव्वादिपुव्वं चेदि।50।
धवला 13/5,5,50/285/12 कथं श्रुतस्य विधिव्यपदेश:। सर्वनयविषयाणामस्तित्वविधायकत्वात् । = 1. प्रावचन, प्रवचनीय, प्रवचनार्थ, गतियों में मार्गणता, आत्मा, परंपरा लब्धि, अनुत्तर, प्रवचन, प्रवचनी, प्रवचनाद्धा, प्रवचन संनिकर्ष, नयविधि, नयांतरविधि, भंगविधि, भंगविधिविशेष, पृच्छाविधि, पृच्छाविधि विशेष, तत्त्व, भूत, भव्य, भविष्यत, अवितथ, अविहत, वेद, न्याय, शुद्ध, सम्यग्दृष्टि, हेतुवाद, नयवाद, प्रवरवाद, मार्गवाद, श्रुतवाद, परवाद, लौकिकवाद, लोकोत्तरीयवाद, अग्रय, मार्ग यथानुमार्ग, पूर्व, यथानुपूर्व और पूर्वातिपूर्व ये श्रुतज्ञान के पर्याय नाम हैं।50। 2. प्रश्न - श्रुत की विधि संज्ञा कैसे है ? उत्तर - चूँकि वह सब नयों के विषय के अस्तित्व का विधायक है, इसलिए श्रुत की विधि संज्ञा उचित ही है।
2. श्रुतज्ञान में कथंचित् मति आदि ज्ञानों का निमित्त
तत्त्वार्थसूत्र/1/20 श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् ।20।
सर्वार्थसिद्धि/1/20/120/7 मति: पूर्वमस्य मतिपूर्वं मतिकारणमित्यर्थ:। = 1. श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है।...।20। 2. मति जिसका पूर्व अर्थात् निमित्त है वह मतिपूर्व कहलाता है। जिसका अर्थ मतिकारणक होता है। तात्पर्य यह है कि जो मतिज्ञान के निमित्त से होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/122 ), ( राजवार्तिक/1/20/2/70/25 ), (देखें श्रुतज्ञान - I.1.2), ( धवला 9/4,1,45/160/7 ), ( धवला 13/5,5,21/210/7 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/44/188/2 ), ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/703,717 )।
श्लोकवार्तिक/2/1/7/6/510/7 अवधिमन:पर्ययविशेषत्वानुषंगात् । यथैव हि मत्यार्थं परिच्छिद्य श्रुतज्ञानेन परामृशन्निर्देशादिभि: प्ररूपयति तथावधिमन:पर्ययेण वा। न चैवं श्रुतज्ञानस्य तत्पूर्वकत्वप्रसंग: साक्षात्तस्यानिंद्रियमतिपूर्वकत्वात् परंपरया तु तत्पूर्वकत्वं नानिष्टम् ।=प्रश्न - अवधि और मन:पर्यय से प्रत्यक्ष करके उस पदार्थ का श्रुतज्ञान द्वारा विचार हो जाता है तो मतिपूर्वकपने के समान अवधि मन:पर्ययपूर्वक भी श्रुतज्ञान के होने का प्रसंग आयेगा? उत्तर - नहीं, क्योंकि अव्यवहित पूर्ववर्ती कारण की अपेक्षा से श्रुतज्ञान का कारण मतिज्ञान ही है। हाँ, परंपरा से तो उन अवधि और मन:पर्यय को कारण मानकर श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति होना अनिष्ट नहीं है।
श्लोकवार्तिक 3/1/20/ श्लो.20/605 मतिसामान्यनिर्देशान्न श्रोत्रमतिपूर्वकं। श्रुतं नियम्यतेऽशेषमतिपूर्वस्य वीक्षणात् । = सूत्रकार ने मतिपूर्वं ऐसा निर्देश कहकर सामान्य रूप से संपूर्ण मतिज्ञानों का संग्रह कर लिया है। अत: केवल श्रोत्र इंद्रियजंय मतिज्ञान को ही पूर्ववर्त्ती मानकर श्रुतज्ञान उत्पन्न होय ऐसा नियम नहीं किया जा सकता है।
कषायपाहुड़ 1/1-1/34/51/4 ण मदिणाणपुव्वं चेव सुदणाणं सुदणाणादो वि सुदणाणुप्पत्तिदंसणादो। = यदि कहा जाय कि मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है सो भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि श्रुतज्ञान से भी श्रुतज्ञान की उत्पत्ति देखी जाती है।
3. श्रुतज्ञान में मन का निमित्त
तत्त्वार्थसूत्र/2/21 श्रुतमनिंद्रियस्य।21। = श्रुत मन का विषय है।
देखें मतिज्ञान - 3.1 ईहादि को मन का निमित्तपना उपचार से है पर श्रुतज्ञान नियम से मन के निमित्त से ही उत्पन्न होता है।
सप्तभंगीतरंगिणी/47/13 अनिंद्रियमात्रजंयत्वं श्रुतस्य स्वरूपम् ।=मन मात्र से उत्पन्न होना श्रुतज्ञान का स्वरूप है।
4. श्रुतज्ञान का विषय
देखें मतिज्ञान - 2.2 सर्व द्रव्यों की असर्व पर्यायों में वर्तता है।
राजवार्तिक/1/26/4/87/22 शब्दाश्च सर्वे संख्येया एव द्रव्यपर्यार्या: पुन: संख्येयासंख्येयानंतभेदा:, न ते सर्वे विशेषाकारेण तैर्विषयीक्रियंते। = सर्व शब्द संख्यात ही हैं और द्रव्यों की पर्यायें संख्यात और अनंत भेदवाली हैं। अत: संख्यात शब्द अनंत पदार्थों की स्थूल पर्यायों को ही विषय कर सकते हैं, सभी पर्यायों को नहीं। कहा भी है [प्रज्ञापनीयं भाव अनंत हैं और शब्द अत्यंत अल्प हैं। देखें आगम - 1.11]।
देखें श्रुतकेवली - 2.5 [द्रव्य श्रुत का विषय भले अल्प हो पर भावश्रुत का विषय अनंत है।]
देखें श्रुतज्ञान - 2.5 (परोक्ष रूप से सामान्यत: सर्व पदार्थों को ग्रहण करने से केवलज्ञान के समान है, पर विशेष रूप से ग्रहण करने से अल्पज्ञता है।)
5. श्रुतज्ञान की त्रिकालज्ञता
नयचक्र बृहद्/173 में उद्धृत गाथा सं.2 कालत्तयसंजुत्तं दव्वं गिहुणेइ केवलणाणं। तत्थ णयेण वि गिहूणइ भूदोऽभूदो य वट्टमाणो वि।2। = तीनों कालों से संयुक्त द्रव्य को केवलज्ञान ग्रहण करता है और नय के द्वारा भी भूत, भविष्य और वर्तमान काल के पदार्थों को ग्रहण किया जाता है।
देखें निमित्त - 2.3 अष्टांग महानिमित्त ज्ञान त्रिकालग्राही है।
देखें द्रव्य - 1.6;2/2 भविष्यत परिणाम से अभियुक्त द्रव्य द्रव्यनिक्षेप का विषय है।
6. मोक्षमार्ग में मति श्रुत ज्ञान की प्रधानता
श्लोकवार्तिक 2/1/3/62/14 केवलस्य सकलश्रुतपूर्वकत्वोपदेशात् । = संपूर्ण पदार्थों को जानने वाले केवलज्ञान की उत्पत्ति तो पूर्ववर्ती पूर्ण द्वादशांग श्रुतज्ञान रूप कारण से होती हुई मानी है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/719 अपि चात्मसंसिद्धयै नियतं हेतु मतिश्रुती ज्ञाने। प्रांत्यद्वयं विना स्यान्मोक्षो न स्यादृते मतिद्वैतम् । = आत्म सिद्धि के लिए मति श्रुतज्ञान निश्चित कारण है क्योंकि अंत के दो ज्ञानों के बिना मोक्ष हो सकता है किंतु मति, श्रुत ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं हो सकता।
7. शब्द व अर्थ लिंगज में शब्द लिंगज ज्ञान प्रधान
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/315/673/15 शब्दजलिंगजयो: श्रुतज्ञानभेदयो: मध्ये शब्दजं वर्णपदवाक्यात्मकशब्दजनितं श्रुतज्ञानं प्रमुखं प्रधानं दत्तग्रहणशास्त्राध्ययनादिसकलव्यवहाराणां तन्मूलत्वात् । अनक्षरात्मकं लिंगजं श्रुतज्ञानं एकेंद्रियादिपंचेंद्रियपर्यंतेषु जीवेषु विद्यमानमपि व्यवहारानुपयोगित्वादप्रधानं भवति। =श्रुतज्ञान के भेदों के मध्य-शब्द लिंगज अर्थात् अक्षर, वर्ण, पद, वाक्य आदि रूप शब्द से उत्पन्न हुआ जो अक्षरात्मक श्रुतज्ञान वह प्रधान है, क्योंकि लेना, देना, शास्त्र पढ़ना इत्यादि सर्व व्यवहारों का मूल अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। और जो लिंग से अर्थात् चिह्न से उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान है वह एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक के जीवों में होता है किंतु उससे कुछ व्यवहार की प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए वह अप्रधान होता है।
8. द्रव्य व भावश्रुत में भावश्रुत की प्रधानता
श्लोकवार्तिक 3/1/20 श्लो.17/608 मुख्या ज्ञानात्मका भेदप्रभेदास्तस्य सूत्रिता:। शब्दात्मका: पुनर्गौणा: श्रुतस्येति विभिद्यते। = इस सूत्र में श्रुतज्ञान के भेदप्रभेद मुख्य रूप से तो ज्ञान स्वरूप सूचित किये जाते हैं। हाँ, फिर शब्दात्मक भेद तो गौण रूप से कहे गये हैं। इस प्रकार श्रुत के मुख्यरूप से ज्ञानस्वरूप और गौण रूप से शब्द स्वरूप विशेष भेद लेने चाहिए।
9. श्रुतज्ञान केवल शब्दज नहीं होता
श्लोकवार्तिक/3/1/20/89/634/22 अथ शब्दानुयोजनादेव श्रुतमिति नियमस्तदा श्रोत्रमतिपूर्वकमेव श्रुतं न चक्षुरादिमतिपूर्वकमिति सिद्धांतविरोध: स्यात् । सांव्यवहारिकं शाब्दं ज्ञानं श्रुतमित्यपेक्षया तथा नियमे तु नेष्टबाधास्ति चक्षुरादिमतिपूर्वकस्यापि श्रुतस्य परमार्थताभ्युपगमात् स्वसमयसंप्रतिपत्ते:।
श्लोकवार्तिक/3/1/20/116/652/14 श्रुतं शब्दानुयोजनादेव इत्यवधारणस्याकलंकाभिप्रेतस्य कदाचिद्विरोधाभावात् । तथा संप्रदायस्याविच्छेदाद्युक्त्यनुग्रहाच्च सर्वमतिपूर्वकस्यापि श्रुतस्याक्षरज्ञानत्वव्यवस्थिते:।=1. प्रश्न शब्द की अनुयोजना से ही श्रुत होता है, इस प्रकार नियम किया जायेगा तब तो श्रोत्र इंद्रियजंय मतिज्ञानस्वरूप निमित्त से ही तो श्रुतज्ञान हो सकेगा। चक्षु आदि इंद्रियों से श्रुतज्ञान नहीं हो सकेगा। उक्त प्रकार सिद्धांत से विरोध आवेगा। उत्तर सांव्यवहारिक शब्द ज्ञान श्रुत है। इस अपेक्षा से नियम किया जायेगा, तब तो इष्ट सिद्धांत से कोई बाधा नहीं आती है। क्योंकि चक्षु आदि से उत्पन्न हुए मतिज्ञान को पूर्ववर्ती कारण मानकर उत्पन्न हुए भी श्रुतों को परमार्थ रूप से श्री अकलंक देव ने स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार अपने सिद्धांत की प्रतिपत्ति हो जाती है। 2. शब्द की अनुयोजना से ही श्रुत होता है, इस प्रकार श्री अकलंक देव को अभिप्रेत हो रहे अवधारण का कभी भी विरोध नहीं पड़ता है।...पूर्व से चली आ रही तिस प्रकार की आम्नायीं की विच्छित्ति नहीं हुई है। इस कारण संपूर्ण मतिज्ञानों को पूर्ववर्ती कारण मानकर श्रुत को अक्षरज्ञानपना व्यवस्थित हो गया है।
3. मतिज्ञान व श्रुतज्ञान में अंतर
1. दोनों में कथंचित् एकता
देखें श्रुतज्ञान - I.2.2 (मतिपूर्वक उत्पन्न होता है।)
राजवार्तिक/1/9/16/47/27 मतिश्रुतयो: परस्परापरित्याग:-'यत्र मतिस्तत्र श्रुतं यत्र श्रुतं तत्र मति:' इति। =मति श्रुत का विषय बराबर है और दोनों सहभावी हैं, जहाँ मति है, वहाँ श्रुत है, जहाँ श्रुत है वहाँ मति है।
राजवार्तिक/1/30/4/90/25 एते हि मतिश्रुते सर्वकालमव्यभिचारिणी नारदपर्वतवत् । तस्मादनयोरन्यतरग्रहणे इतरस्य ग्रहणं संनिहितं भवति। =मति और श्रुत सदा अव्यभिचारी हैं, नारद पर्वत की तरह एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते, अत: एक के ग्रहण से दूसरे का ग्रहण हो ही जाता है।
2. मति व श्रुतज्ञान में भेद
सर्वार्थसिद्धि/1/20/120/8 यदि मतिपूर्वं श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति कारणसदृशं हि लोके कार्यं दृष्टम् इति। नैतदैकांतिकम् । दंडादिकारणोऽयं घटो न दंडाद्यात्मक:। अपि च सति तस्मिंस्तदभावात् । सत्यपि मतिज्ञाने बाह्यश्रुतज्ञाननिमित्तसंनिधानेऽपि प्रबलश्रुतावरणोदयस्य श्रुताभाव:। श्रुतावरणक्षयोपशमप्रकर्षे तु सति श्रुतज्ञानमुत्पद्यत इति मतिज्ञानं निमित्तमात्रं ज्ञेयम् । =प्रश्न यदि श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है तो वह श्रुतज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोक में कारण के समान ही कार्य देखा जाता है? उत्तर यह कोई एकांत नियम नहीं है कि कारण के समान कार्य होता है। यद्यपि घट की उत्पत्ति दंडादिक से होती है तो भी वह दंडाद्यात्मक नहीं होता। दूसरे, मतिज्ञान के रहते हुए भी श्रुतज्ञान नहीं होता। यद्यपि मतिज्ञान रहा आता है और श्रुतज्ञान के बाह्य निमित्त भी रहे आते हैं तो भी जिसके श्रुत-ज्ञानावरण का प्रबल उदय पाया जाता है, उसके श्रुतज्ञान नहीं होता। किंतु श्रुतज्ञान का प्रकर्ष क्षयोपशम होने पर ही श्रुतज्ञान होता है इसलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तमात्र जानना चाहिए। ( राजवार्तिक/1/20/3-4/70/28;7-8/71/31 )।
राजवार्तिक/1/9/21-26/48/5 मतिश्रुतयोरेकत्वम्; साहचर्यादेकत्रावस्थानाच्चाविशेषात् ।21। न; अतस्तत्सिद्धे:। यत एव मतिश्रुतयो: साहचर्यमेकत्रावस्थानं चोच्यते अत एव विशेष: सिद्ध:। प्रतिनियतविशेषसिद्धयोर्हि साहचर्यमेकत्रावस्थानं च युज्यते, नान्यथेति।22। तत्पूर्वकत्वाच्च। ततश्चानयोर्विशेष:। यत्पूर्वं यच्च पश्चात्तयो: कथमविशेष:।23। तत एवाविशेष:, कारणसदृशत्वात् युगपद्वृत्तेश्चेति, चेत्...तन्न; किं कारणम् । ...द्वयोर्हि सादृश्यं युगपद्वृत्तिश्चेति।24। स्यादेतत्-विषयाविशेषात् मतिश्रुतिरेकत्वम् । एवं हि वक्ष्यते मतिश्रुतयोर्निबंधो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ( तत्त्वार्थसूत्र/1/26 ) इति; तन्न; किं कारणम् । ग्रहणभेदात् । अन्यथा हि मत्या गृह्यते अन्यथा श्रुतेन।25।...स्यादेतत् उभयोरिंद्रियानिंद्रियनिमित्तत्वादेकत्वम् ।...तन्न; किं कारणम् । असिद्धत्वात् । जिह्वा हि शब्दोच्चारक्रियाया निमित्तं न ज्ञानस्य, श्रवणमपि स्वविषयमतिज्ञाननिमित्तं न श्रुतस्य, इत्युभयनिमित्तत्वमसिद्धम् । = प्रश्न चूँकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों सहचारी हैं, और एक व्यक्ति में युगपत् पाये जाते हैं, अत: दोनों में कोई विशेषता न होने से दोनों को एक ही कहना चाहिए ? उत्तर साहचर्य तथा एक व्यक्ति में दोनों के युगपत् रहने से ही यह सिद्ध होता है कि दोनों जुदे-जुदे हैं, क्योंकि दोनों बातें भिन्न सत्तावाले पदार्थों में ही होती है। मतिपूर्वक श्रुत होता है, इसलिए दोनों की कारण-कार्यरूप से विशेषता सिद्ध है ही। प्रश्न कारण के सदृश ही कार्य होता है, चूँकि श्रुत मतिपूर्वक हुआ है, अत: उसे भी मतिरूप ही कहना चाहिए। सम्यग्दर्शन होने पर कुमति और कुश्रुत को युगपत् ज्ञानव्यपदेश होता है अत: दोनों एक ही कहना चाहिए ? उत्तर यह प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि जिन कारण सदृशत्व और युगपद्वृत्ति हेतुओं से आप एकत्व सिद्ध करना चाहते हों उन्हीं से उनमें भिन्नता सिद्ध होती है। सादृश्य और युगपद्वृत्ति पृथक् सिद्ध पदार्थों में ही होते हैं। प्रश्न मति और श्रुतज्ञान का विषय एक होने से दोनों में एकत्व है ऐसा कहा गया है कि मतिज्ञान व श्रुतज्ञान की संपूर्ण द्रव्यों में एकदेश रूप से प्रवृत्ति होती है। ( तत्त्वार्थसूत्र/1/26 ) उत्तर ऐसा नहीं है, क्योंकि दोनों के जानने के प्रकार जुदा-जुदा हैं। प्रश्न मति और श्रुत दोनों इंद्रिय और मन से उत्पन्न होते हैं, इसलिए दोनों में एकत्व है ? उत्तर एक कारणता असिद्ध है। वक्ता की जीभ शब्द के उच्चारण में कारण होती है न कि ज्ञान में। श्रोता का ज्ञान भी शब्द प्रत्यक्षरूप मतिज्ञान में निमित्त होता है न कि अर्थज्ञान में, अत: श्रुत में मनोनिमित्तता असिद्ध है।
राजवार्तिक/1/20/5/71/11 नायमेकांतोऽस्ति-कारणसदृशमेव कार्यम् इति। कुत:। तत्रापि सप्तभंगीसंभवात् । कथम् । घटवत् । यथा घट: कारणेन मृत्पिंडेन स्यात्सदृश: स्यान्न सदृश इत्यादि।...तथा श्रुतं सामान्यादेशात् स्यात्कारणसदृशं यतो मतिरपि ज्ञानं श्रुतमपि। अव्यवहिताभिमुखग्रहणनानाप्रकारार्थप्ररूपणसामर्थ्यादिपर्यायादेशात् स्यान्न कारणसदृशम् । =यह कोई नियम नहीं है कि कारण के सदृश ही कार्य होना चाहिए। क्योंकि यहाँ पर भी सप्तभंगी की योजना करनी चाहिए। घड़े की भाँति जैसे पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से मिट्टी रूप कारण के समान घड़ा होता है। पर पिंड और घट पर्यायों की अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं।...उसी तरह चैतन्य द्रव्य की मति और श्रुत दोनों एक हैं, क्योंकि मति भी ज्ञान है और श्रुत भी ज्ञान है। किंतु तत्तत् ज्ञान पर्यायों की दृष्टि से दोनों ज्ञान जुदा-जुदा हैं।
श्लोकवार्तिक/3/1/9/30/24/22 न मतिस्तस्यास्तर्कात्मिकाया: स्वार्थानुमानात्मिकायाश्च तथा भावरहितत्वात् । न हि यथा श्रुतमनंतव्यंजनपर्यायसमाक्रांतानि सर्वद्रव्याणि गृह्णाति न तथा मति:। =तर्कस्वरूप अथवा स्वार्थानुमानस्वरूप भी उस मतिज्ञान में श्रुतज्ञान के समान सर्व तत्त्वों का ग्राहकपना नहीं है, जिस प्रकार अनंत व्यंजन पर्यायों से चारों ओर घिरे हुए संपूर्ण द्रव्यों को श्रुतज्ञान ग्रहण करता है, तिस प्रकार मतिज्ञान नहीं जानता।
3. श्रोतज मतिज्ञान व श्रुतज्ञान में अंतर
राजवार्तिक/1/9/30/49/4 श्रुत्वा यदवधारयति तत् श्रुतमिति केचिंमंयंते; तन्न युक्तम्; कुत:। मतिज्ञानप्रसंगात् । तदपि शब्दं श्रुत्वा 'गोशब्दोऽयम्' इति प्रतिपाद्यते। ...श्रुतं पुनस्तस्मिंनिंद्रियानिंद्रियगृहीतागृहीतपर्यायसमूहात्मनि शब्दे तदभिधेये च श्रोत्रेंद्रियव्यापारमंतरेण जीवादौ नयादिभिरधिगमोपायैर्याथात्म्येनाऽवबोध:।
राजवार्तिक/1/20/6/71/25 स्यादेतत्-श्रोत्रमतिपूर्वस्यैव श्रुतत्व प्राप्नोति। कुत:। तदर्थत्वात् । श्रुत्वा अवधारणाद्धि श्रुतमित्युच्यते, तेन चक्षुरादिमतिपूर्वस्य श्रुतत्वं न प्राप्नोति; तन्न; किं कारणम् । उक्तमेतत्-'श्रुतशब्दोऽयं रूढिशब्द:' इति। रूढिशब्दाश्च स्वोत्पत्तिनिमित्तक्रियानपेक्षा: प्रवर्तंत इति सर्वमतिपूर्वस्य श्रुतत्वसिद्धिर्भवति। =1. प्रश्न सुनकर निश्चय करना श्रुत है ? उत्तर ऐसा कहना युक्त नहीं है। यह तो मतिज्ञान का लक्षण है, क्योंकि वह भी शब्द को सुनकर 'यह गो शब्द है' ऐसा निश्चय करता ही है। किंतु श्रुतज्ञान मन और इंद्रिय के ज्ञान द्वारा गृहीत या अगृहीत पर्याय वाले शब्द या उसके वाच्यार्थ का श्रोत्रेंद्रिय के व्यापार के बिना ही नय आदि योजना के द्वारा विभिन्न विशेषों के साथ जानता है। 2. प्रश्न श्रोत्रेंद्रिय जन्य मतिज्ञान से जो उत्पन्न हो उसे ही श्रुत कहना चाहिए, क्योंकि सुनकर जो जाना जाता है वही श्रुत होता है। इस प्रकार चक्षु इंद्रिय आदि से श्रुत नहीं हो सकेगा ? उत्तर श्रुत शब्द श्रुतज्ञान विशेष में रूढ़ होने के कारण सभी मतिज्ञान पूर्वक होने वाले श्रुतज्ञानों में व्याप्त है। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/194/409/21 )।
श्लोकवार्तिक/3/1/9/33/27/3 केचिदाहुर्मतिश्रुतयोरेकत्वं श्रवणनिमित्तत्वादिति, तेऽपि न युक्तिवादिन:। श्रुतस्य साक्षाच्छ्रवणनिमित्तत्वासिद्धे: तस्यानिंद्रियवत्त्वादृष्टार्थसजातीयनानार्थपरामर्शनस्वभावतया प्रसिद्धत्वात् । =प्रश्न कर्ण इंद्रिय को निमित्त पाकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं, इस कारण दोनों का एकपना है ? उत्तर आप युक्तिवादी नहीं है, क्योंकि कर्ण इंद्रिय को साक्षात् निमित्त मानकर श्रुतज्ञान का उत्पन्न होना असिद्ध है।...श्रुतज्ञान की अनिंद्रियवांपना यानी मन को निमित्त मानकर और प्रत्यक्ष से नहीं देखे गये सजातीय और विजातीय अनेक अर्थों का विचार करना रूप स्वभावों से सहितपने करके प्रसिद्धि हो रही है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/315/673/19 तत्र जीवोऽस्तीत्युक्ते जीवोऽस्तीति शब्दज्ञानं श्रोत्रेंद्रियप्रभवं मतिज्ञानं भवति ज्ञानेन जीवोऽस्तीति शब्दवाच्यरूपे आत्मास्तित्वे वाच्यवाचकसंबंधसंकेतसंकलनपूर्वकं यत् ज्ञानमुत्पद्यते तदक्षरात्मकं श्रुतज्ञानं भवति, अक्षरात्मकशब्दसमुत्पन्नत्वेन कार्ये कारणोपचारात् । वातशीतस्पर्शज्ञानेन वातप्रकृतिकस्य तत्स्पर्शे अमनोज्ञज्ञानमनक्षरात्मकं लिंगजं श्रुतज्ञानं भवति, शब्दपूर्वकत्वाभावात् ।= 'जीव: अस्ति' ऐसा शब्द कहने पर कर्ण इंद्रिय रूप मतिज्ञान के द्वारा 'जीव: अस्ति' यह शब्द ग्रहण किया। इस शब्द से जो 'जीव नाम पदार्थ है' ऐसा ज्ञान हुआ सो श्रुतज्ञान है। शब्द और अर्थ के ऐसा वाच्य वाचक संबंध है। सो यहाँ 'जीव: अस्ति' ऐसे शब्द का जानना तो मतिज्ञान है, और उसके निमित्त से जीव नामक पदार्थ का जानना सो श्रुतज्ञान है। ऐसे ही सर्व अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का स्वरूप जानना। अक्षरात्मक शब्द से समुत्पन्न ज्ञान, उसको भी अक्षरात्मक कहा। यहाँ पर कार्य में कारण का उपचार किया है, परमार्थ से ज्ञान कोई अक्षर रूप नहीं है। जैसे शीतल पवन का स्पर्श होने पर 'तहाँ शीतल पवन का जानना तो मतिज्ञान है, और उस ज्ञान से वायु की प्रकृतिवाले को यह पवन अनिष्ट हैं' ऐसा जानना श्रुतज्ञान है, सो यह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है, क्योंकि यह अक्षर के निमित्त से उत्पन्न नहीं हुआ है।
4. मनोमति ज्ञान व श्रुतज्ञान में अंतर
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/43/ प्रक्षेपक 1-2/85/19 तन्मतिज्ञानं तच्च पुनस्त्रिविधं उपलब्धिर्भावना तथोपयोगश्च...अर्थग्रहणशक्तिरूपलब्धिर्ज्ञातेऽर्थे पुन: पुनश्चिंतनं भावना नीलमिदं पीतमिदं इत्यादिरूपेणार्थग्रहणव्यापार उपयोग:।1। श्रुतज्ञानं...लब्धिरूपं च भावनारूपं चैव।...उपयोगविकल्पं नयविकल्पं च उपयोगशब्देनात्र वस्तुग्राहकं प्रमाणं भण्यते नयशब्देन तु वस्त्वेकदेशग्राहको ज्ञातुरभिप्रायो विकल्प:।...यद्भावश्रुतं तदेवोपादेयं। =मतिज्ञान तीन प्रकार का है उपलब्धि, भावना और उपयोग। अर्थग्रहण की शक्त्ि को लब्धि कहते हैं, जाने हुए अर्थ का पुन: पुन: चिंतवन करना भावना कहलाता है, और यह नीला है, यह पीला है इत्यादि रूप से अर्थ ग्रहण के व्यापार को उपयोग कहते हैं।...श्रुतज्ञान दो प्रकार का है लब्धिरूप और भावनारूप ही, तथा उपयोग विकल्प और नय विकल्प। उपयोग शब्द से यहाँ वस्तु ग्राहक प्रमाण कहा जाता है। और नय शब्द से तो वस्तु का एक देश ग्राहक ज्ञाता का अभिप्राय रूप विकल्प ग्रहण किया जाता है। यह भावश्रुत ही उपादेय है।
5. ईहादिक मतिज्ञान श्रुतज्ञान में अंतर
राजवार्तिक/1/9/28/48/31 स्यादेतत्-ईहादीनामपि श्रुतव्यपदेश: प्राप्त:, तेऽप्यनिद्रियनिमित्ता इति; तन्न; किं कारणम् । अवगृहीतमात्रविषयत्वति। इंद्रियेणावगृहीतो योऽर्थस्तन्मात्रविषया ईहादय:, श्रुतं पुनर्न तद्विषयम् । किं विषयं तर्हि श्रुतम् । अपूर्वविषयम् । =प्रश्न ईहा आदि ज्ञान को भी श्रुत व्यपदेश प्राप्त होता है, क्योंकि वे भी मन के निमित्त से उत्पन्न होते हैं ? उत्तर ऐसा नहीं है क्योंकि वे मात्र अवगृह के द्वारा गृहीत ही पदार्थ को जानते हैं, जबकि श्रुतज्ञान अपूर्व अर्थ को विषय करता है। ( कषायपाहुड़/1/1-15/308/340/1 ); ( धवला 6/1,9-14/17/4 )।
श्लोकवार्तिक/3/1/9/32/26/22 नहि यादृशमतींद्रियनिमित्तत्वमहीयांस्तादृशं श्रुतस्यापि। = यद्यपि ईहा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ही मन से होते हैं, किंतु जिस प्रकार ईहा ज्ञान का निमित्तपन मन को प्राप्त है, उस सरीखा श्रुतज्ञान का भी निमित्तपना मन में नहीं है। केवल सामान्य रूप से उस मन का निमित्तपना तो मति और श्रुत के तदात्मकपन का गमन हेतु नहीं है।
देखें मतिज्ञान - 3.1 ईहादि को अनिंद्रिय का निमित्तत्व उपचार से है पर श्रुतज्ञान अनिंद्रिय निमित्तक ही है।
4. श्रुतज्ञान व केवलज्ञान में कथंचित् समानता असमानता
1. श्रुत भी सर्व पदार्थ विषयक है
देखें ऋद्धि - 2.2.3 केवलज्ञान के विषयभूत अनंत अर्थ को श्रुतज्ञान परोक्ष रूप से ग्रहण कर लेता है।
देखें श्रुतज्ञान - 2.5 केवलज्ञान की भाँति श्रुतज्ञान भी मन के द्वारा त्रिकाली पदार्थों को ग्रहण कर लेता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/235 श्रमणानां ज्ञेयत्वमापद्यंते स्वयमेव, विचित्रगुणपर्यायविशिष्टसर्वद्रव्यव्यापकानेकांतात्मकश्रुतज्ञानोपयोगी भूयो विपरिणमनात् । अतो न किंचिदप्यागमचक्षुषामदृश्यं स्यात् । = वे (विचित्रगुणपर्यायों सहित समस्त पदार्थ) श्रमणों को स्वयमेव ज्ञेयभूत होते हैं, क्योंकि श्रमण विचित्र गुणपर्यायवाले सर्वद्रव्यों में व्यापक अनेकांतात्मक श्रुतज्ञानोपयोग रूप होकर परिणमित होते हैं। इससे (यह कहा है कि) आगम चक्षुओं को आगम रूप चक्षु वालों को कुछ भी अदृश्य नहीं है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ गा./पृ./पं.अत्राह शिष्य: आत्मपरिज्ञाने सति सर्वपरिज्ञानं भवतीत्यत्र व्याख्यानं, तत्र तु पूर्वसूत्रे भणितं सर्वपरिज्ञाने सत्यात्मपरिज्ञानं भवतीति। यद्येवं तर्हि छद्मस्थानां सर्वपरिज्ञानं नास्त्यात्मपरिज्ञानं कथं भविष्यति। आत्मपरिज्ञानाभावे चात्मभावना कथं। तदभावे केवलज्ञानोत्पत्तिर्नास्तीति। परिहारमाहपरोक्षप्रमाणभूतश्रुतज्ञानेन सर्वपदार्था ज्ञायंते। कथमिति चेत् लोकालोकादिपरिज्ञानं व्याप्तिज्ञानरूपेण छद्मस्थानामपि विद्यते, तच्च व्याप्तिज्ञानं परोक्षाकारेण केवलज्ञानविषयग्राहकं कथंचिदात्मैव भण्यते। (49/65/13) सर्वे द्रव्यगुणपर्याया: परमागमेन ज्ञायंते। कस्मात् । आगमस्य परोक्षरूपेण केवलज्ञानसमानत्वात् पश्चादागमाधारेण स्वसंवेदनज्ञाने जाते स्वसंवेदनज्ञानबलेन केवलज्ञाने च जाते प्रत्यक्षा अपि भवंति। (235/325/13)। =प्रश्न आत्मा के जानने पर सर्व जाना जाता है, ऐसा यह व्याख्यान है, और पूर्वसूत्र में सर्व का ज्ञान होने पर आत्मा का ज्ञान होता है, ऐसा है तो छद्मस्थों के सर्व का ज्ञान तो होता नहीं है, तो आत्मज्ञान कैसे होगा ? और आत्मज्ञान के अभाव में आत्मा की भावना कैसे संभव है, तथा भावना के अभाव में केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है ? उत्तर परोक्ष प्रमाणभूत श्रुतज्ञान के द्वारा सर्व पदार्थ जाने जाते हैं, क्योंकि लोकालोक का परिज्ञान व्याप्ति रूप से छद्मस्थों के भी पाया जाता है। और वह केवलज्ञान को विषय करने वाला व्याप्ति ज्ञान परोक्ष रूप से कथंचित् आत्मा ही है। सर्व द्रव्य गुण और पर्याय परमागम से जाने जाते हैं, क्योंकि आगम के परोक्षरूप से केवलज्ञान से समानपना होने के कारण, आगम के आधार से पीछे स्वसंवेदन ज्ञान के हो जाने पर, और स्वसंवेदन ज्ञान के बल से केवलज्ञान के हो जाने पर समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष भी हो जाते हैं।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/99/159/94 यत्पुनर्द्वादशांगचतुर्दशपूर्वरूपपरमागमसंज्ञं तच्च मूर्तामूर्तोभयपरिच्छित्तिविषये व्याप्तिज्ञानरूपेण परोक्षमपि केवलज्ञानसदृशमित्यभिप्राय:। =द्वादशांग अर्थात् 12 अंग चौदह पूर्वरूप परमागम संज्ञा वाला द्रव्यश्रुत है, वह मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के द्रव्यों के ज्ञान के विषय में परोक्ष होने पर भी व्याप्ति ज्ञान रूप से केवलज्ञान के सदृश है, ऐसा अभिप्राय है।
देखें श्रुतज्ञान - I.2.4 श्रुतज्ञान सर्व पदार्थ विषयक है।
2. दोनों में प्रत्यक्ष परोक्ष मात्र का अंतर है
आप्तमीमांसा/105 स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वे प्रकाशने। भेद: साक्षादसाक्षाच्च, ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ।105। =स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों सर्व तत्त्वों का प्रकाशन करने वाले हैं। इन दोनों में केवल परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप जानने मात्र का भेद है। इन दोनों में से यदि एक हो, और अन्यतम न हो तो, वह अवस्तु ठहरे। ( गोम्मटसार जीवकांड/369/795 )।
देखें अनुभव - 4 श्रुतज्ञान में केवल ज्ञानवत् प्रत्यक्ष अनुभव होता है।
3. समन्वय
धवला 15/1/4/4 मदिसुदणाणाणं सव्वदव्वविसयत्तं किण्ण वुच्चदे, तासिं मुत्तोमुत्तासेसदव्वेसु वावारुवलंभादो। ण एस दोसो, तेसिं दव्वाणमणंतेसु पज्जाएसु तिकालविसएसु तेहि सामण्णेणावगएसु विसेससरूवेण वावाराभावादो। भावे वा केवलणाणेण समाणत्तं तेसिं पावेज्ज। ण च एवं, पंचणाणुवदेसस्स अभावप्पसंगादो। = प्रश्न मतिज्ञान व श्रुतज्ञान समस्त द्रव्यों को विषय करने वाले हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते, क्योंकि उनका मूर्त व अमूर्त सर्व द्रव्यों में व्यापार पाया जाता है। उत्तर यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उन द्रव्यों की त्रिकाल विषयक अनंत पर्यायों में उन ज्ञानों का सामान्य रूप से व्यवहार नहीं है। अथवा यदि उनमें उनकी विशेष रूप से भी प्रवृत्ति स्वीकार की जाय तो वे दोनों ज्ञान केवलज्ञान की समानता को प्राप्त हो जावेंगे। परंतु ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि, वैसा होने पर पाँच ज्ञानों का जो उपदेश प्राप्त है उसके अभाव का प्रसंग आता है।
5. मति श्रुत ज्ञान की कथंचित् प्रत्यक्षता-परोक्षता
1. मति श्रुत ज्ञान कथंचित् परोक्ष हैं
प्रवचनसार/57 परदव्वं ते अक्खाणेव सहावोत्ति अप्पाणो भणिदा। उवलद्धं तेहि कधं पच्चक्खं अप्पणो होंति।57। = वे इंद्रियाँ पर द्रव्य हैं, उन्हें आत्मस्वभाव स्वरूप नहीं कहा है। उनके द्वारा ज्ञात आत्मा का प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है।
सर्वार्थसिद्धि/1/11/101/6 अत: पराणींद्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्यनिमित्तं प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो मतिश्रुतं उत्पद्यमानं परोक्षमित्याख्यायते। =मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के इंद्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेशादिक बाह्य निमित्तों की अपेक्षा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं अत: ये परोक्ष कहलाते हैं। ( राजवार्तिक/1/11/6/52/24 ) (और भी देखें परोक्ष - 4)।
कषायपाहुड़/1/1-1/16/24/3 मति-सुदणाणाणि परोक्खाणि, पाएण तत्थ अविसदभावदंसणादो। =मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि इन दोनों में प्राय: अस्पष्टता देखी जाती है।
2. इंद्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने में दोष
सर्वार्थसिद्धि/1/12/103/7 स्यांमतमिंद्रियव्यापारजनितं ज्ञानं प्रत्यक्षं व्यतीतेंद्रियविषयव्यापारं परोक्षमित्येतदविसंवादि लक्षणमभ्युपगंतव्यमिति। तदयुक्तम्, आप्तस्य प्रत्यक्षज्ञानाभावप्रसंगात् । यदि इंद्रियनिमित्तमेव ज्ञानं प्रत्यक्षमिष्यते एवं सति आप्तस्य प्रत्यक्षज्ञानं न स्यात् । न हि तस्येंद्रियपूर्वोऽर्थाधिगम:। अथ तस्यापि करणपूर्वकमेव ज्ञानं कल्प्यते, तस्यासर्वज्ञत्वं स्यात् । तस्य मानसं प्रत्यक्षमिति चेत्; मन:प्रणिधानपूर्वकत्वात् ज्ञानस्य सर्वज्ञत्वाभाव एव। आगमतस्तत्सिद्धिरिति चेत् । न; तस्य प्रत्यक्षज्ञानपूर्वकत्वात् । योगिप्रत्यक्षमन्यज्ज्ञानं दिव्यमप्यस्तीति चेत् । न तस्य प्रत्यक्षत्वं; इंद्रियनिमित्तत्वाभावात्; अक्षमक्षं प्रति यद्वर्तते तत्प्रत्यक्षमित्यभ्युपगमात् । =प्रश्न जो ज्ञान इंद्रियों के व्यापार से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है और जो इंद्रियों के व्यापार से रहित है वह परोक्ष है। प्रत्यक्ष व परोक्ष का यह अविसंवादी लक्षण मानना चाहिए ? उत्तर कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त लक्षण के मानने पर आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान का अभाव प्राप्त होता है। यदि इंद्रियों के निमित्त से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है तो ऐसा मानने पर आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि आप्त के इंद्रियपूर्वक पदार्थ का ज्ञान नहीं होता। कदाचित् उसके भी इंद्रिय पूर्वक ही ज्ञान पाया जाता है तो उसके सर्वज्ञता नहीं रहती। प्रश्न उसके मानस प्रत्यक्ष होता है ? उत्तर मन के प्रयत्न से ज्ञान की उत्पत्ति मानने पर सर्वज्ञत्व का अभाव ही होता है। प्रश्न आगम से सर्व पदार्थों का ज्ञान हो जायेगा ? उत्तर नहीं, क्योंकि सर्वज्ञता प्रत्यक्षज्ञान पूर्वक प्राप्त होती है। प्रश्न योगी-प्रत्यक्ष नाम का एक अन्य दिव्यज्ञान है? उत्तर उसमें प्रत्यक्षता नहीं बनती, क्योंकि वह इंद्रियों के निमित्त से नहीं होती है। जिसकी प्रवृत्ति प्रत्येक इंद्रिय से होती है वह प्रत्यक्ष है ऐसा आपके मत में स्वीकार भी किया है। ( राजवार्तिक/1/12/6-9/53-54 )।
3. परोक्षता व अपरोक्षता का समन्वय
न्यायदीपिका/2/12/34/1 इंद्रियानिंद्रियनिमित्तं देशत: 'सांव्यवहारिकम्'। इदं चामुख्यप्रत्यक्षम्, उपचारसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव, मतिज्ञानत्वात् । =इंद्रिय और मन के निमित्त से होने वाला एक देश स्पष्ट सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान अमुख्य प्रत्यक्ष है गौण रूप से प्रत्यक्ष है, क्योंकि उपचार से सिद्ध होता है, वास्तव में तो परोक्ष ही है।
देखें परोक्ष - 4 (इंद्रिय ज्ञान परमार्थ से परोक्ष है व्यवहार से प्रत्यक्ष है।)
देखें अनुभव - 4 वह बाह्य विषयों को जानते समय परोक्ष है और स्वसंवेदन के समय प्रत्यक्ष है।