स्वार्थ
From जैनकोष
स्वयंभू स्तोत्र/ मू./31 स्वास्थ्यं यदात्यंतिकमेष पंसां स्वार्थो न भोग: परिभंगुरात्मा। तृषोऽनुषंगान्न च तापशांतिरितीदमाख्यद्भगवां सुपार्श्व:।31। =यह जो आत्यंतिक स्वास्थ्य है वही पुरुषों का स्वार्थ है, क्षणभंगुर भोग स्वार्थ नहीं है, क्योंकि इंद्रिय विषय सुख सेवन से उत्तरोत्तर तृष्णा की वृद्धि होती है ताप की शांति नहीं होती। यह स्वार्थ और अस्वार्थ का स्वरूप शोभन पार्श्वों के धारक भगवान् सुपार्श्व ने बताया है।31।
स्याद्वादमंजरी/3/15/21 तेषां (ज्ञानिनां) हि परार्थस्यैव स्वार्थत्वेनाभिमतत्वात् । =महात्मा लोग दूसरे के स्वार्थ को अपना स्वार्थ समझते हैं।
अनगारधर्मामृत/4/44 मौनमेव सदा कुर्यार्दाय: स्वार्थैकसिद्धये। स्वैकसाध्ये परार्थे वा ब्रूयात्स्वार्थाविरोधत:।44। =परोपकार की अपेक्षा न करके आत्म कल्याण के लिए निरंतर मौन धारणा चाहिए। परोपकार का कार्य ऐसा हो जो कि एक अपने द्वारा ही सिद्ध होता हो तो आत्म कल्याण में विरोध न आवे इस तरह बोलना चाहिए।44।