अवधिज्ञान
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
सम्यग्दर्शन या चारित्रकी विशुद्धताके प्रभावसे कदाचित् किन्हीं साधकोंको एक विशेष प्रकारका ज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिसे अवधिज्ञान कहते हैं। यद्यपि यह मूर्तीक अतवा संयोगी पदार्थोंको जान सकता है, परंतु इंद्रियों आदिकी सहायताके बिना ही जाननेके कारण प्रत्यक्ष है। सकल पदार्थों का न जाननेके कारण देश प्रत्यक्ष है। भावोंकी वृद्धि हानिके साथ इसमें वृद्धि हानि होनी स्वाभाविक है, अतः यह कई प्रकारका हो जाता है। इसके जाननेकी शक्तियाँ जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यंत अनेक प्रकारकी होती है। परिणामोंमें संक्लेश उत्पन्न हो जानेपर यह छूट भी जाता है। देव नारकियोंमें यह अहेतुक होता है, इसलिए भवप्रत्यय कहलाता है, और मनुष्य तिर्यंचोंमें गुण प्रत्यय। यद्यपि लौकिक दृष्टिसे यह चमत्कारिक है, परंतु मोक्षमार्गमें इसका कोई मूल्य नहीं। इसकी उत्पत्ति शरीरमें स्थित शंख चक्र आदि किन्हीं विशेष चिह्नोंसे बतायी जाती है।
1. भेद व लक्षण
1. अवधिज्ञान सामान्यका लक्षण
2. अवधिज्ञानके भेद प्रभेद (सम्यक् व मिथ्या, गुणप्रत्यय, देशावधि-परमावधि आदि)
3. सम्यक् मिथ्या अवधिका लक्षण
4. गुण प्रत्यय व भवप्रत्ययका लक्षण
5. देशावधि आदि भेदोंके लक्षण
6. वर्द्धमान हीयमान आदि भेदोंके लक्षण
2. अवधिज्ञान निर्देश
1. अवधिज्ञानमें अवधि पदका सार्थक्य
2. प्रत्येक समय नया ज्ञान उत्पन्न होता है
3. अवधि व मति श्रुतज्ञानमें अंतर
4. अवधि व मतिःपर्यय ज्ञानमें अंतर
5. अवधिकी अपेक्षा मनःपर्यय विशुद्ध कैसे है?
6. मोक्षमार्गमें अवधि व मनःपर्ययका कोई मूल्य नहीं
7. पंचमकालमें अवधि व मनःपर्यय संभव नहीं
8. पंचमकालमें भी कदाचित् अवधि संभव है
9. मिथ्यादृष्टिका अवधिज्ञान विभंग कहलाता है
• अवधिज्ञान निसर्गज होता है- देखें अधिगम
• अवधिज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है- देखें मतिज्ञान - 2.4
3. अवधि व मनःपर्ययकी कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता
• अवधि व मनःपर्ययकी देश प्रत्यक्षता- देखें प्रत्यक्ष - 1.3
1. अवधि व मनःपर्यय कर्म प्रकृतियोंको प्रत्यक्ष जानते हैं
2. दोनों कर्मबद्ध जीवको प्रत्यक्ष जानते हैं
3. अवधि मनःपर्ययकी कथंचित् परोक्षता
4. दोनोंकी प्रत्यक्षता परोक्षताका समन्वय
5. अवधि व मतिज्ञानकी प्रत्यक्षतामें अंतर
4. अवधिज्ञानमें इंद्रियों व मनके निमित्तका सद्भाव व असद्भाव
1. अवधि ज्ञानमें कथंचित् मनका सद्भाव
2. अवधिज्ञानमें मनके निमित्तका अभाव
• बिना इंद्रियोंके प्रत्यक्षज्ञान कैसे हो? -देखें प्रत्यक्ष - 2.4
5. अवधि ज्ञानके उत्पत्ति-स्थान व करण चिह्न विचार
1. देशावधि गुण प्रत्यय ज्ञानकरण चिन्होंसे उत्पन्न होता है और शेष सब सर्वांग से
2. करण चिह्नोंके आकार
3. चिह्नोंके आकार नियत नहीं हैं
4. शरीरमें शुभ व अशुभ चिह्नोंका प्रमाम व अवस्थान
5. सम्यक्त्व व मिथ्यात्वके कारणकरण-चिह्नोंमें परिवर्तन
6. सम्यक्त्व व मिथ्यात्व कृत चिह्नभेद संबंधी मतभेद।
7. सर्वांग क्षयोपशमके सद्भावमें करण-चिह्नोंकी क्या आवश्यकता?
8. सर्वांगकी बजाय एकदेशमें ही क्षयोपशम मान लें तो?
• करण चिह्नोंके अधीन होनेके कारण अवधिज्ञान परोक्ष क्यों न हो जायेगा? देखें उपर क्रम - 8
9. करणचिह्नोंमें भी ज्ञानोंत्पत्तिका कारण क्षयोपशम ही है
6. अवधिज्ञानके भेदों संबंधी विचार
1. भव प्रत्यय व गुण प्रत्ययमें अंतर
2. क्या भव प्रत्ययमें ज्ञानावरणका क्षयोपशम नहीं है?
3. भव प्रत्यय है तो भवके प्रथम समयही उत्पन्न क्यों नहीं होता?
4. देव नारकी सम्यगृष्टियोंके अवधिज्ञानको भवप्रत्यय कहें या गुणप्रत्यय?
5. सभी सम्यगदृष्टि आदिकोंको गुणप्रत्यय ज्ञान उत्पन्न क्यों नहीं होता?
6. भव व गुण प्रत्ययमें देशावधि आदि विकल्प
7. परमावधिमें कथंचित् देशावधिपना
8. देशावधि आदि भेदोमें वर्द्धमान आदि अथवा प्रतिपाती आदि विकल्प
9. देशावधि आदि भेदोमें चारित्रादि संबंधी विशेषताएँ
7. अवधिज्ञानका स्वामित्व
1. सामान्यरूपसे अवधिज्ञान चारों गतियोंमें संभव है
2. भवप्रत्यय केवल देव नारकियों व तीर्थंकरोंको होता है
3. गुणप्रत्यय केवल मनुष्य और तिर्यंचोंमें ही होता है
4. भवप्रत्यय ज्ञान सम्यगृष्टि व मिथ्यादृष्टि दोनोंको होता है
5. गुणप्रत्यय अवधिज्ञान केवल सम्यग्दृष्टियोंको ही होता है
6. उत्कृष्ट देशावधि मनुष्योंमें तथा जघन्य मनुष्य व तिर्यंच दोंनोंमें संभव है पर देव व नारकियोंमें नहीं
7. उत्कृष्ट देशावधि उत्कृष्ट संयतोंको ही होता है पर जघन्य ज्ञान असंयत सम्यग्दृष्टि आदिकोंको भी संभव है
8. मिथ्यादृष्टियोंमें भी अवधिज्ञानकी संभावना
9. परमावधि वसर्वावधि चरमशरीरी संयतोंमें ही होता है
10. अपर्याप्तावस्थामें अवधिज्ञान संभव है पर विभंग नहीं
11. संज्ञी संमूर्च्छनोंमें अवधिज्ञानकी संभावना व असंभावना
12. अपर्याप्तावस्थामें अवधिज्ञानके सद्भाव और विभंगके अभाव संबंधी शंका
8. अवधि ज्ञानकी विषय सीमा
1. द्रव्यकी अपेक्षा रूपीको ही जानता है
2. द्रव्यप्रमामकी अपेक्षा अनंतको नहीं जानता।
3. क्षेत्रप्ररूपणाका स्पष्टीकरण
4. देवोंके ज्ञानकी क्षेत्रप्ररूपणा परिणाम नियामक नहीं स्थान-नियामक है
5. कालकी अपेक्षा अवधिज्ञान सावधि त्रिकालग्राही है
6. भावकी अपेक्षा पुद्गल व संयोगी जीवकी पर्यायोंको जानता है
• मूर्त ग्राहक अवधि ज्ञान अमूर्त जीवके भावोंको कैसे जानता है? - देखें मनःपर्यय - 6
7. अवधिज्ञानके विषयभूत क्षेत्रादिकोंमें वृद्धि हानिका क्रम
9 अवधिज्ञान विषयक प्ररूपणाएँ
1. द्रव्य व भाव संबंधी सामान्य नियम
2. नरकगतिमें देशावधिका विषय
3. भवनत्रिक देवोंमें देशावधिका विषय
4. कल्पवासी देवोंमें देशावधिका विषय
5. तिर्यंच व मनुष्योंमें देशावधिका विषय
6. परमावधि व सर्वावधिका विषय
7. देशावधिकी क्रमिक वृद्धिके 19 कांडक
10 अन्य संबंधित विषय
• अवधिज्ञानके स्वामित्व संबंधी गुण-स्थान, जीवसमास मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ-देखें सत्
• अवधिज्ञान विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ-दे वह वह नाम
• अवधिज्ञानियोमें कर्मोका बंध उदय सत्त्व आदि - देखें वह वह नाम
• सभी मार्गणाओंमें आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम - देखें मार्गणा
• प्रत्येक तीर्थंकरके तीर्थंमें अवधिज्ञानियोंका प्रमाण - देखें तीर्थंकर - 5
• विभंग ज्ञानके दर्शन पूर्वक होनेका विधि निषेध - देखें दर्शन - 6.2
1. भेद व लक्षण
1. अवधिज्ञान सामान्यका लक्षण
1. व्युत्पत्ति
पं.सं./प्र.1/123 अवहीयदित्तिओही सीमाणाणेत्ति वण्णियं समए।
= जो द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा अवधि अर्थात् सीमासे युक्त अपने विषयभूत पदार्थको जाने, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। सीमासे युक्त जाननेके कारण परमागममें इसे सीमा ज्ञान कहा गया है।
(ध.1/1,1,115/184/359) (गो.जी./मू./370/797)।
स.सि.1/9/94/3 अवाग्धानादवच्छिन्नविषयाद्वा अवधिः।
= अधिकतर नीचेके विषयको जाननेवाला होनेसे या परिमित विषयवाला होनेसे अवधि कहलाता है।
रा.वा.1/9/3/44/14 अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमाद्यु भयहेतुसन्निधाने सति अवाग्धीयते अवाग्दधाति अवग्धानमात्रं वावधिः। अवशब्दोऽधः पर्यायवचनः `यथा अधः-क्षेपणम् अवक्षेपणम्' इति। अधोगतभूयद्रव्योविषयो ह्यवधिः। अथवा अवधिर्मर्यादा, अवधिना प्रतिबद्धं ज्ञानामवधिज्ञानम्। तथाहि-`रूपिष्ववधेः' (त.सु./1/27) इति।
= `अव्' पूर्वक `धा' धातुसे कर्म आदि साधनोंमें अवधि शब्द बनता है। तहाँ नं. 1 = `अव्' शब्द `अधः' वाची है जैसे अधःक्षेपणको अवक्षेपण कहते हैं; अवधिज्ञान भी नीचेकी और बहुत पदार्थोंको विषय करता है।
(ध.13/5,5/21/210/12)
अधोगौरवधर्मत्वात् पुद्गलः अवाङ् नाम त दधाति परिच्छित्तीति अवधिः
= नीचे गौरवधर्मवाला होनेसे पुद्गलकी अवाग् संज्ञा है, उसे जो धारण करता है अर्थात् जानता है वह अवधि है- नं.2 : अथवा अवधि शब्द मर्यादार्थक है अर्थात् द्रव्य क्षेत्रकालादिकी मर्यादासे सीमित ज्ञान अवधिज्ञान है।
(रा.वा.1/20/15/78/27) (ध.6/1,9-1/14/25/8) (ध.9/4,1,2/13/1/4) (ध.13/5,5,21/210/12) (क.पा.1/1-$12/16/2)
2. मूर्तीक पदार्थका प्रत्यक्ष सीमित ज्ञान
ति.प.4/972 अंतिमखंदंताइं परयाणुप्पहुदिमुत्तिदव्वाइं। जं पच्चक्खइ जाणि तमोहिणाणं ति णायव्वं ॥972॥
= जो प्रत्यक्षज्ञान अंतिम स्कंध पर्यंत परमाणु आदिक मूर्त द्रव्योंको जानता है उसको अवधिज्ञान जानना चाहिए।
(ज.पा./13/56) (न.दी./2/$13/34)
क.पा.1/1/$28/43 परमाणुपज्जवंतासेसपोग्गलदव्वाणमसंखेज्जलोगमेत्तखेत्तकालभावाणं कम्मसंबंधवसेण पोग्गलभावमुवगयजाव..[जीवदव्वा] णं च पच्चक्खेण...[परिच्छित्तिं कुणइ ओहिणाणं]
= महास्कंधसे लेकर परमाणु पर्यंत समस्त पुद्गल द्रव्योंको, असंख्यात लोकप्रमाण क्षेत्र, काल और भावोंको तथा कर्मके संबंधसे पुद्गल भावको प्राप्त हुए जीवोंको जो प्रत्यक्षरूपसे जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
ध.1/1,1,2/93/7 ओहीणाणं णाम दव्वखेत्तकालभाववियप्पियं पोग्गलदव्वं पच्चक्खं जाणदि।
= द्रव्य क्षेत्र काल और भावके विकल्पसे अनेक प्रकारके पुद्गल द्रव्यको जो प्रत्यक्ष जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
(ध.1/1,1,115/358/2)
द्र.सं./टी./5/17/1 अवधिज्ञानावरणीयक्षयोपशमान्मूर्तं वस्तु यदेकदेशप्रत्यक्षेण सविकल्पं जानाति तद्वधिज्ञानम्।
= अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे मूर्तीक पदार्थको जो एकदेश प्रत्यक्ष द्वारा सविकल्प जानता है वह अवधिज्ञान है।
स.भ.त.47/13 प्रत्यक्षस्यापि विकलस्यावधि मनःपर्ययलक्षणस्येंद्रियानिंद्रियांपेक्षत्वे सति स्पष्टतया स्वार्थव्यवसायत्मकं स्वरूपम्।
= इंद्रिय और अनिंद्रिय अर्थात् मनकी कुछ भी अपेक्षा न रखकर केवल आत्मामात्रकी अपेक्षासे निर्मलता पूर्वक स्पष्ट रीति से अपने विषयभूत पदार्थोंका निश्चय करना - यह विकल प्रत्यक्षरूप अवधि तथा मनःपर्यय ज्ञानका स्वरूप है।
2. अवधिज्ञानके भेद प्रभेद
1. सम्यक् व मिथ्या अवधिकी अपेक्षा
त.सू.1/31 मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ।
= मति, श्रुत और अवधि ये तीन (ज्ञान) विपर्यक भी होते हैं।
स.सि.1/31/138/4 अवधिज्ञानेन सम्यग्दृष्टिः रूपिणोऽर्थानवगच्छिति तथा मिथ्यादृष्टिः विभंगज्ञानेनेति।
= सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थोंको जानता है और मिथ्यादृष्टि विभंगज्ञानके द्वारा।
रा.वा.1/31/92/12 सम्यग्दर्शनमिथ्यादर्शनोदयविशेषात्तेषां त्रयाणां द्विधा वलृत्पिर्भवति-..अवधिज्ञान विभंगज्ञानमिति।
= सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शनके उदयसे उन तीनों (मति श्रुत व अवधि) के दो-दो प्रकार बन जाते हैं। (तहाँ अवधिज्ञान के दो प्रकार हैं) - अवधिज्ञान और विभंगज्ञान (मिथ्यावधिज्ञान)।
2. गुणप्रत्यव व भवप्रत्ययकी अपेक्षा
ष.ख.13/5,5,53/सू.53/290 तं च ओहिणाणं दुविहं भवपच्चइयं घुणपच्चइयं चेव ॥53॥
= भवप्रत्यय व गुणप्रत्ययके भेदसे अवधिज्ञान दो प्रकार है।
(रा.वा.1/20/15/78/29) (गो.जी./मू./370/796)
स.सि.1/20/125/3 द्विधोऽवधिर्भवप्रत्ययः क्षपोपशमनिमित्तश्चेति।
= अवधिज्ञान दो प्रकार है - भवप्रत्यय और क्षयोपशम निमित्तक।
3. अवधिज्ञानके अनेक भेदोंका निर्देश
ष.ख.13/5,5/सूत्र 56/292 तं च अणेयविहं देसोही परमोही सव्वोही हीयमाणयं वड्ढमाणयं अवट्ठिदं अणवट्ठिदं अणुगामी अणणुगामी सप्पडिवादोअप्पडिवादो एयक्खेतमणेयक्खेत ॥56॥
= वह (अवधिज्ञान) अनेक प्रकार है - देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हीयमान, वर्द्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एक क्षेत्रावदि और अनेक शेत्रावधि।
रा.वा.1/224/81/27 अनुगाम्यननुगामिवर्धमानहीयमानावस्थितानवस्थितभेदात् षड्विधः ॥4॥ पुनरपरेऽवधेस्त्रयो भेदाः-देशावधिः परमावधिः सर्वावधिश्चेति। तत्र देशावधिस्त्रेधा जघन्य उत्कृष्ट अजघन्योत्कृष्टश्चेति। तथा परमावधिरपि त्रिधा। सर्वावधिरविकल्पत्यादेक एव।..वर्द्धमानो, हीयमान अवस्थितः अनवस्थितः अनुगामी अननुगामी अप्रतिपाती प्रतिपाती इत्येतेऽष्टौ भेदा देशावधेर्भवंति। हीयमानप्रतिपातिभेदवर्जा इतरे षड्भेदा भवंति परमावधेः। अवस्थितोऽनुगाम्यननुगाम्यप्रतिपाती इत्येते चत्वारो भेदाः सर्वावधेः।
= अवधिज्ञानके अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित, ये छह भेद हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वावधिके भेदसे भी अवधिज्ञान तीन प्रकारका है। देशावधि और परमावधिके जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट ये तीन प्रकार हैं। सर्वावधि एक ही प्रकार का है। वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, अप्रतिपाती और प्रतिपाती ये आठ भेद देशावधिमें होते हैं। हीयमान प्रतिपाती, इन दोको छोड़कर शेष छः भेद परमावधिमें होते हैं। अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अप्रतिपाती ये चार भेद सर्वावधिमें होते हैं।
(प.का./ता.वृ/43/उद्धृत प्रक्षेपक गाथा सं. 3 - देशावधि आदि तीन भेद), (पं.सं./प्रा/1/124 - वर्द्धमान आदि छः भेद), (श्लो.वा.4/1/22/10-17/16-21 रा.वा. वाले सर्व विकल्प); (ह.पु.10/152 - देशावधि आदि तीन भेद), (क.पा.1/1/$13/17/1 - देशावधि आदि तीन भेद) (ध.6/1,9-1,14/25/9- देशावधि आदि तीन भेद) (ध.9/4,1,2/14/1,5 - देशावधि आदि तीन तथा देशावधिके जघन्य उत्कृष्टादि तीन भेद) (ध.9/4,1,4/48/5 सर्वाधिका एक ही विकल्प तथा परमावधिके जघन्य उत्कृष्टादि तीन विकल्प) (गो.जी./मू.372/799 - वर्द्धमान आदि छः तथा देशावधि आदि तीन भेद), (ज.प.13/51-देशावधि आदि तीन भेद), (पं.सं.सं.1/222 = वर्धमान आदि छः भेद)
ध./पु.13/5,5,56/294/5 तच्छ तिविहं खेत्ताणुगामी भवाणुगामी खेत्तभवाणुगामी चेदि।
= वह (अनुगामी) तीन प्रकारका है-क्षेत्रानुगामी भवानुगामी और क्षेत्रानुगामी और क्षेत्रभवानुगामी ।
(गो.जी./जी.प्र.372/799/8)
3. सम्यक् मिथ्या अवधिके लक्षण
1. सम्यगवधिका लक्षण-देखें अवधिज्ञान सामान्य
2. मिथ्यावधिका लक्षण
पं.सं./प्रा.1/120 विवरीओहिणाणं खओवसमियं च कंबीजं च। वेभंगो त्ति व बुच्चइ समत्तणाणीहिं समयम्हि।
= जो क्षयोपशम अवधिज्ञान मिथ्यात्वसे संयुक्त होनेके कारण विपरीत स्वरूप है, और नवीन कर्मका बीज है उसे आगममें कुअवधि या विभंग ज्ञान कहा गया है।
(ध.1/1,1,115/181/359) (गो.जी./मू.305/357) (पं.सं./सं.1/232) (पं.का./त.प्र.41/82)।
4. गुणप्रत्यय व भवप्रत्ययका लक्षण
स.सि.1/21/125/6 भवः प्रत्योऽस्य भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणां वेदितव्यः।
स.सि.1/22/127/3 तो निमित्तमस्येति क्षयोपशमनिमित्तः।
= जिस अवधिज्ञानके होनेमें भव निमित्त है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। वह देव और नारकियों के जानना चाहिए। - इन दोनों अर्थात् सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावी क्षय और उन्हींके सदवस्थारूप उपशमके निमित्तसे जो होता है वह क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान है।
(रा.वा.1/21/2/79/11 व 81/3)
ध.13/5,5,53/290/5 भव उत्पत्तिः प्रादुर्भावः स प्रत्ययः कारणं यस्य अवधिज्ञानस्य तद् भवप्रत्ययकम्।
ध.13/5,5,53/291/10 अणुव्रतमहाव्रतीनि सम्यवत्वाधिष्ठानानि गुणः कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद्गुणप्रत्ययकम्।
= भव, उत्पत्ति और प्रादुर्भाव ये पर्याय नाम हैं। जिस अवधिज्ञानका निमित्त भव (नरक व देव भव) है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। - सम्यक्त्वसे अधिष्ठित अणुव्रत और महाव्रत गुण जिस अवधिज्ञानके कारण हैं वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है।
(गो.जी./जी.प्र.370/797/4)
5. देशावधि आदि भेदोंके लक्षण
ध.13/5,5,59/323/3 परमा ओही मज्याया जस्स णाणस्स तं परमोहिणाणं। किं परमं। असंखेज्जलोगसेत्तसंजमवियप्पा।...देसं सम्मतं। संजमस्स अवयवभावादो; तमोही मज्जाया जस्स णाणस्स तं देसोहिणाणं।...सव्वं केवलणाणं, तस्स विसओ जो जो अत्थो सो विसव्वं उवयारादो। सव्वमोही मज्जाया जस्स णाणस्स तं सव्वोहिणाणं।
= परम अर्थात् असंख्यात लोकमात्र संयमभेद ही जिस ज्ञानकी अवधि अर्थात् मर्यादा है वह ``परमावधि ज्ञान कहा जाता है।..देशका अर्थ सम्यक्त्व है, क्योंकि वह संयम का अवयव है। वह जिस ज्ञानकी अवधि अर्थात् मर्यादा है वह ``देशावधिज्ञान हैं।....सर्वका अर्थ केवलज्ञान है। उसका विषय जो जो अर्थ होता है, वह भी उपचार से सर्व कहलाता है। सर्व अवधि अर्थात् मर्यादा जिस ज्ञानकी होती है वह ``सर्वावधिज्ञान है।
ध.9/4,1,3/41/6 परमो ज्येष्ठः परमश्चासौ अवधिश्च परमावधिः।
ध.9/4,1,4/47/9 सर्वं विश्वं कृत्स्नमवधिर्मर्यादा यस्य स बोधः सर्वावधिः। एत्थ सव्वसद्दो सयलदव्ववाचओ ण घेत्तव्वो, परदो अविज्जमाणदव्वस्स ओहित्ताणुववत्तीदो। किंतु सव्वसद्दो सव्वेगदेसम्हि रूवयदे वट्टमणो घेत्तव्वो। तेण सव्वरूवयदं ओही जिस्से त्ति संबंधो कायव्वो। अथवा सरति गच्छति आकुंचनविसर्पणादीनीति पुद्गलद्रव्यं सर्व्वं, तमोही जिस्से सा सव्वोही।
ध.9/4,1,5/52/6 अंतश्च अवधिश्च अंतावधी, न विद्येते तौ यस्य स अनंतावधिः।
= परम शब्दका अर्थ ज्येष्ठ है। परम ऐसा जो अवधि वह परमावधि है। - विश्व और कृत्स्न ये `सर्व' शब्दके समानार्थक शब्द हैं। सर्व है मर्यादा जिस ज्ञानकी, वह सर्वावधि है। यहाँ सर्व शब्द समस्त द्रव्यका वाचक नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जिसके परे अन्य द्रव्य न हो उसके अवधिपना नहीं बनता। किंतु `सर्व' शब्द सर्वके एकदेशरूप रूपी द्रव्यमें वर्तमान ग्रहण करना चाहिए। अथवा जो आकुंचन और विसर्पणादकोंको प्राप्त हो वह पुद्गल द्रव्य सर्व है, वही जिसकी मर्यादा है वह ``सर्वावधि है। ...अंत और अवधि जिसके नहीं है वह ``अनंतावधि है।
(विशेष देखें अवधिज्ञान - 6)
6. वर्द्धमान हीयमान आदि भेदों के लक्षण
1. वर्द्धमान आदि छः भेदों के लक्षण
स.सि.1/22/127/9 कश्चिदवधिर्भास्करप्रकाशवद्गच्छंतमनुगच्छति। कश्चिन्नानुगच्छति तत्रैवानिपतति उन्मुखप्रश्नादेषिपुरुषवचनवत्। अपरोऽवधिः अरणिनिर्मथनोत्पंनशुष्कपर्णोपचीयमानेंधननिचयसमिद्धपावकवत्सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धपरिणामसंनिधानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते आ असंख्येयलोकेभ्यः। अपरोऽवधिपरिच्छिंनोपादानसंतत्यग्निशिखावत्सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेशपरिणामवृद्धियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो हीयते आ अंगुलस्यासंख्येयभागात्। इतरोऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणावस्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवावतिष्ठते, न हीयते नापि वर्धते लिंगवत् आ भवक्षयादाकेवलज्ञानोत्पत्तेर्वा। अन्योऽवधि सम्यग्दर्शनादिगुणवृद्धिहानियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते यादनेन वर्धितव्यं हीयते च यावदनेनहातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोर्मिवत्। एवं षड्विधोऽवधिर्भवति।
= 1. कोई अवधिज्ञान, जैसे सूर्यका प्रकाश उसके साथ जाता है, वैसे अपने स्वामीका अनुसरण करता है। उसे ``आनुगामी कहते हैं। (विशेष देखो नीचे) 2. कोई अवधिज्ञान अनुसरण नहीं करता. किंतु जैसे विमुख हुए पुरुष उसे ग्रहण नहीं करता है, वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहीं पर छूट जाता है। (उसे अनुगामी कहते हैं। विशेष देखो आगे) 3. कोई अवधि ज्ञान जंगल के निर्मंथनसे उत्पन्न हुई और सूखे पत्तोंसे उपचीयमान ईंधनके समुदायसे वृद्धिसे प्राप्त हुई अग्निके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी विशुद्धिरुप परिणामोंके सन्निधान वश जितने परिणाममें उत्पन्न होता है, उससे (आगे) असंख्यातलोक जाननेकी योग्यता होने तक बढ़ता जाता है। (वह ``वर्द्धमान है)। 4. कोई अवधिज्ञान परिमित उपादान संततिवाली अग्निशिखाके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी हानिसे हुए संक्लेश परिणामोंके बढ़नेसे जितने परिणाममें उत्पन्न होता है उससे (लेकर) मात्र अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जाननेकी योग्यता होने तक घटता चला जाता है। (उसे ``हीयमान कहते हैं)। 5. कोई अवधिज्ञानसम्यग्दर्शनादि गुणोंके समानरूपसे स्थिर रहनेके कारण जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उतना ही बना रहता है। पर्यायके नाश होने तक या केवलज्ञानके उत्पन्न होने तक शरीरमें स्थिर मस्सा आदि चिह्नोंवत् न घटता है न बढ़ता है उसे ``अवस्थित कहते हैं। 6. कोई अवधिज्ञान वायु के वेगसे प्रेरित जलकी तरंगोके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी कभी वृद्धि और कभी हानि होनेसे जितना परिमाणमें उत्पन्न होता है, उससे बढ़ता है जहाँ तक उसे बढ़ना चाहिये, और घटता है जहाँ तक उसे घटना चाहिये उसे ``अनवस्थित कहते हैं। इस प्रकार अवधिज्ञान छः प्रकारका है।
(रा.वा.1/22/4/81/17) (ध.13/5,5,56/293/4) (गो.जी./जी.प्र.373/799/7)
2. अनुगामी अननुगामी की विशेषताएँ
ध.13/5,5,56/294/4 जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं जीवेण सह गच्छदि तमणुगामी णाम तं च तिविहं खेताणुगामी भवाणुगामी खेत्तभवाणुगामी चेदि। तत्थ जमोहिणाणं एयम्मि खेत्ते उप्पण्णं संतं सगपरपयोगेहि सगपरखेत्तेसु हिंडंतस्स जीवस्स व विणस्सदि तं खेत्ताणुगामी णाम। जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं तेण जीवेण सह अण्णभवं गच्छदि तं भवाणुगामी णाम। जं भरहेरावद-विहेदादिखेत्ताणि देव-णेरइय-माणुसतिरिक्खभवं पि गहच्छदि त खेत्तभवाणुगामि त्ति भणिदं होदि। जं तमणणुगामी णाम ओहिणाणं त तिविहं खेत्ताणणुगामी भवाणणुगामी खेत्तभवाणणुगामी चेदि। [जं] खेत्ततरं ण गच्छदि, भवंतरं चेव गच्छदि [तं] खेत्ताणणुगामी त्ति भण्णदि। जं भवंतरं ण गच्छदि खेत्ततरं चेव गच्छदि तं भवाणणुगामी णाम। जं खेत्तंतरभवांतराणि ण गच्छदि एक्कम्हि चेव खेत्ते भवे च पडिबद्धं तं खेत्तभवाणणुगामी त्ति भण्णदि।
= 1. जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीवके साथ जाता है वह अनुगामी अवधिज्ञान है। वह तीन प्रकारका है-क्षेत्रानुगामी, भवनानुगामी और क्षेत्रभवानुगामी। उनमें-से जो अवधिज्ञान एक क्षेत्रमें उत्पन्न होकर स्वतः या परप्रयोगसे जीवके स्वक्षेत्र या परक्षेत्रमें विहार करनेपर विनष्ट नहीं होता है, वह क्षेत्रानुगामी अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर उस जीवके साथ अन्य भव में जाता है वह भवानुगामी है। जो भरत ऐरावत और विदेह आदि क्षेत्रोंमें तथा देव नारक मनुष्य और तिर्यंच भवमें भी साथ जाता है वह क्षेत्रभावानुगामी अवधिज्ञान है। 2. जो अननुगामी अवधिज्ञान है वह तीन प्रकारका है-क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी और क्षेत्रभवाननुगामी। जो क्षेत्रांतरमें साथ नहीं जाता; भवांतरमें ही साथ जाता है वह क्षेत्राननुगामी अवधिज्ञान कहलाता है। जो भवांतर में साथ नहीं जाता; क्षेत्रांतर और भवांतर दोनोंमें साथ नहीं जाता, किंतु एक ही क्षेत्र और भवके साथ संबंध रखता है वह क्षेत्रभवाननुगामी अवधिज्ञान कहलाता है।
(गो.जी./जी.प्र.372/799/8)
3. प्रतिपाति व अप्रतिपाती के लक्षण
ध.13/5,5,56/295/1 जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं णिम्मूलदो विणस्सदि तं सप्पडिवादी णाम। ...जमोहिणाणं संतं केवलणाणेण समुप्पण्णे चेव विणस्सदि, अण्णहा विणस्सदि, तमप्पडिवादी णाम।
= जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल विनाशको प्राप्त होता है वह सप्रतिपाती अवधिज्ञानी उत्पन्न होकर निर्मूल विनाशको प्राप्त होता है वह सप्रतिपाती अवधिज्ञान है। जीव अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञानके उत्पन्न होने पर ही विनष्ट होता है अन्यथा विनष्ट नहीं होता वह अप्रतिपाती अवधिज्ञानी है।
4. एकक्षेत्र व अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान के लक्षण
ध.13/5,5,56/295/6 जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करणं होदि तमोहिणाणमेगक्खेत्तं णाम। जमोहिणाणं पडिणियदखेत्तं वज्जिय सरीरसव्वावयवेसु वट्टदि तमणेक्खेत्तं णाम।
= जिस अवधिज्ञानका करण जीव शरीरका एक देश होता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्रके बिना शरीरके सब अवयवों में रहता है वह अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान है।
(विशेष देखें अवधिज्ञान - 5)
अवधिज्ञान निर्देश
1. अवधिज्ञानमें अवधि पदका सार्थक्य
क.पा.1/1/$12/17/1 किमट्ठं तत्थ ओहिसद्दो परूविदो। णः एदम्हादो हेट्ठिमसव्वणाणाणि सावहियाणि उवरिमणाणं णिरवहियमिदि जाणावणट्ठं। ण मणपज्जवणाणेण वियहिचारो; तस्य वि अवहिणाणादो अप्पविसयत्तेण हेट्ठिमत्तब्भूब्गमादो। पओगरस पुण ट्ठाणविवज्जासो संजमसहगयत्तेण कयविसेसपदुप्पायणफलो त्ति ण कोच्छि(च्चि)दोसो।
= प्रश्न-अवधिज्ञानमें अवधि शब्दका प्रयोग किस लिए किया गया है? उत्तर-इससे नीचेके सभी ज्ञान सावधि हैं, और ऊपरका केवलज्ञान निरवधि है। इस बातका ज्ञान करानेके लिए अवधिज्ञानमें `अवधि' शब्दका प्रयोग किया है। यदि कहा जाय कि इस प्रकारका कथन करनेपर मनःपर्यय ज्ञानसे व्यभिचार दोष आता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि मनःपर्ययज्ञान भी अवधिज्ञानसे अल्पविषयवाला है, इसलिए विषयकी अपेक्षा उसे अवधिज्ञानसे नीचेका स्वीकार किया है। फिर भी संयमके साथ रहनेके कारण मनःपर्ययज्ञानमें जो विशेषता आती है उस विशेषताको दिखलानेके लिए मनःपर्ययको अवधिज्ञानसे नीचे न रखकर ऊपर रखा है, इस लिए कोई दोष नहीं है।
(ध.9/4,1/2/13/4)
2. प्रत्येक समय नया ज्ञान उत्पन्न होता है
ध.13/5,5,59/298/13 सो कस्स वि ओहणिणास्स अवट्ठाणकालो होदि। कुदो। उप्पण्णबिदियसमए चेव विणट्ठस्स ओहिणाणस्स एगसमयकालुवलंभादो। जीवट्ठाणादिसु ओहिणाणस्स जहण्णकालो अंतोमुहुत्तमिदि पढिदो। तेण सह कधमेदं सुत्तं न विरुज्झदे। ण एस दोसो, ओहिणाणसामण्ण-विसेसावलंबणादो। जीवट्ठाणे जेण सामण्णोहिणाणस्स कालो परूविदो तेण तत्त्थ अंतोमुहुत्तो होदि। एत्थ पुण ओहिणाणविसेसेण अहियारो, तेण एक्कम्हि ओहिणाणविसेसे एगसमयमच्छिदूण बिदिय समए वड्ढीए हाणीए वा णाणंतरमुवगयस्स एगसमओ लब्भदे। एवं दोतिण्णि समए आदिं कादूण जाव समऊणावलिया त्ति ताव एवं चेव परूवणा कायव्वा। कुदो। दो-तिण्णिआदिसमए अच्छिदूण वि ओहिणाणस्स वड्ढिहाणीहि णाणंतरगमणं संभवदि।
= वह (एक समय) किसी भी अवधिज्ञानका अवस्थानकाल होता है, क्योंकि, उत्पन्न होनेके दूसरे समयमें ही विनष्ट हुए अवधिज्ञानका एक समय काल उपलब्ध होता है। प्रश्न-जीवस्थान आदि (काल प्ररूपणा) में अवधिज्ञानका जघन्यकाल अंतर्मूहूर्त कहा है। उसके साथ सह सूत्र कैसे विरोधको प्राप्त नहीं होता? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अवधिज्ञान सामान्य और अवधिज्ञान विशेषका अवलंबन लिया गया है। यतः जीवस्थानमें सामान्य अवधिज्ञानका काल कहा गया है, अतः वहाँ अंतर्मुहूर्त मात्र काल होता है। किंतु यहाँपर अवधिज्ञान विशेषका अधिकार है, इसलिए एक अवधिज्ञान विशेषका एक समय काल तक रहकर दूसरे समयमें वृद्धि या हानिके द्वारा ज्ञानांतरको प्राप्त हो जानेपर एक समय काल उपलब्ध होता है। इसी प्रकार दो या तीन आदि समयसे लेकर एक समय कम आवली काल तक ईसी प्रकार कथन करना चाहिए, क्योंकि, दो या तीन आदि समय तक रहकर भी अवधिज्ञानकी वृद्धि हानिके द्वारा ज्ञानांतर रूपसे प्राप्ति संभव है।
3. अवधि, मति व श्रुतज्ञानमें अंतर
ध.6/1,9-1,14/26/1 मदिसुदणाणेहिंतो एदस्स सावहियत्तेण भेदाभावापुधपरूवणं णिरत्थमयिदि च, ण एस दोसो, मदिसुदणाणाणि परोक्खाणि। ओहिणाणं; पुण पंचक्खं तेण तहिंतो तस्स भेदुवलंभा। मदिणाणं पि पंचक्खं निस्सदीदि चे ण, मदिणाणेण पंचक्खं वत्थुस्स अणुवलंभा।
= प्रश्न-अवधि अर्थात् मर्यादा-सहित होनेकी अपेक्षा अवधिज्ञानका मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, इन दोनोंसे कोई भेद नहीं है, इसलिए इसका पृथक् निरूपण करना निरर्थक है? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान हैं। किंतु अवधिज्ञान तो प्रत्यक्षज्ञान है। इसलिए उक्त दोनों ज्ञानोंसे अवधिज्ञानके भेद पाया जाता है। प्रश्न-मतिज्ञान भी तो प्रत्यक्ष दिखलाई देता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि मतिज्ञानसे वस्तुका प्रत्यक्ष उपलंभ नहीं होता।
(विशेष देखें आगे अवधिज्ञान - 3)
4. अवधि व मनःपर्यय ज्ञानमें अंतर
त.सू.1/25 विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्ययोः।
= विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयकी अपेक्षा अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें भदे हैं।
(त.सा.1/29/29)
रा.वा.6/10/19/519/3 मनःपर्ययज्ञानं स्वविषये अवधिज्ञानवत् व स्वमुखेन वर्तते। कथं तर्हि। परकीयमनःप्रणालिकया। ततो यथा मनोऽतीतानागतानर्थाश्चिंतयति न तु पश्यति। तथा मनःपर्ययज्ञान्यपि भूतभविष्यंतौ वेत्ति न पश्चति। वर्तमानमपि मनोविषयविशेषाकारेणैव प्रतिपद्यते।
= मनःपर्ययज्ञान अवधिज्ञानकी तरह स्वमुखसे विषयोंको न ही जानता, किंतु परकीय मन प्रणालीसे जानता है। अतः मन जैसे अतीत और अनागत अर्थोंका विचार चिंतन तो करता है, देखता नहीं है, उसी तरह मनःपर्ययज्ञानी भी भूत और भविष्यत्को जानता है, देखता नहीं। वर्तमान भी मनको विषयविशेषाकारसे जानता है।
ध.6/1,9-1,14/29/1 आहिमणपज्जवणाणाणं को विसेसो। उच्चदेमणवपज्जवणाणं विसिट्ठसंजमपच्चयं, ओहिणाणे पुण भवपच्चयं गुणपच्चयं च। मणपज्जवणाणं मदिपुव्वं चेव ओहिणाणं पुण ओहिदंसणपुव्वं एसो तेसिं विसेसो।
= प्रश्न-अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन दोनोंमें क्या भेद है? उत्तर-मनःपर्ययज्ञान विशिष्ट संयमके निमित्तसे उत्पन्न होता है, किंतु अवधिज्ञान भवके निमित्तसे और गुण अर्थात् क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न होता है। मनःपर्ययज्ञान तो मतिपूर्वक ही होता है, किंतु अवधिज्ञान अवधि दर्शनपूर्वक होता है। यह उन दोनोंमें भेद है।
5. अवधि ज्ञानसे मनःपर्यय विशुद्ध क्यों
रा.वा.1/25/1/86/16 स्यान्मतम्-अवधिज्ञानान्मनःपर्ययोऽविशुद्धतरः। कुतः अल्पद्रव्यविषयत्वात्। यतः सर्वावधिरूपिद्रव्यानंतभागो मनःपर्ययद्रव्यमितिः तन्नः कि कारणम्। भूयः पर्यायज्ञानात्। यथा कश्चिद् बहूनि शास्त्राणि व्याचष्टे एकदेशेन, न साकल्येन तद्गतमर्थं शक्नोति वक्तुं, अपरस्त्वेकं शास्त्रं साकल्येन व्याचष्टे यावंतस्तस्यार्थास्तां सर्वान् शक्नोति वक्तुम्, अयं पूर्वस्माद्विशुद्धतरविज्ञानो भवति। तथा अवधिज्ञानविषयानंतभागज्ञोऽपि मनपर्ययो विशुद्धतरः, यतस्तमनंतभागं रूपादिभिर्बहुभिः पर्यायैः प्ररूपयति।
= प्रश्न-अवधिज्ञानकी अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान अविशुद्धतर है, क्योंकि उसका द्रव्य विषय अल्प हे। जैसे कि कहा भी है कि सर्वावधिके रूपीद्रव्यका अनंतवां भाग मनःपर्ययका विषय है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, वह उस अपने विषयभूत द्रव्यकी बहुत पर्यायोंका जानता है। जैसे कोई बहुत-से शास्त्रोंको एक देशरुपसे जानता है परंतु साकल्यरूपसे उसको कहनेमें समर्थ नहीं है; और दूसरा कोई केवल एक ही शास्त्रको जानता है परंतु साकल्यरूपसे जितना कुछ भी उसके द्वारा प्रतिपादित अर्थ है उस सर्वको कहनेमें समर्थ है। तब यह पहलेकी अपेक्षा विशुद्धतर विज्ञान समझा जाता है। इसी प्रकार अवधिज्ञानके विषयका अनंतवाँ भाग भी मनःपर्ययज्ञान विशुद्धतर है, क्योंकि उस अंतवें भाग द्रव्यकी बहुत अधिक पर्यायोंको प्ररूपति करता है।
6. मोक्षमार्गसे अवधि व मनःपर्ययका कोई मूल्य नहीं
रा.वा.2/1/3/2/62 केवलस्य सकलश्रुतपूर्वकत्वोपदेशात्।
= केवलज्ञानकी उत्पत्ति पूर्ववर्ती पूर्ण द्वादशांग श्रुतज्ञानरूप कारणसे होती हुई मानी है। (भाषाकार-केवलज्ञानमें अत्युपयोगी श्रुतज्ञान है, अवधि मनःपर्यय नहीं है।)
पं.ध.पू.719 अपि चात्मसंसिद्ध्यै नियतं हेतू मतिश्रुते ज्ञाने। प्रांत्यद्वयं विना स्यान्मोक्षो न स्यादृते मतिद्वैतम् ॥719॥
= आत्माकी सिद्धिके लिए मतिश्रुतज्ञान निश्चित कारण है क्योंकि अंतमें दो (अवधि व मनःपर्यय) ज्ञानोंके बिना मोक्ष हो सकता है, किंतु मति श्रुतज्ञानके बिना मोक्ष नहीं हो सकता। रहस्यपूर्ण चिट्ठी ``इस अनुभवमें मतिज्ञान व श्रुतज्ञान ही है, अन्य कोई ज्ञान नहीं।
7. पंचम कालमें अवधि व मनःपर्यय संभव नहीं
म.पु.41/76 परिवेषोपरक्तस्य श्वेतभानोर्निशामनात्। नोत्पत्स्यते तपोभृत्सु समनःपर्ययोऽवधिः ॥76॥
= (भरतके स्वप्नोंका फल बताते हुए भगवान् कहते हैं) परिमंडलसे घिरे हुए चंद्रमाको देखने से यह जान पड़ता है कि पंचमकालके मुनियोंमें अवधिज्ञान व मनःपर्ययज्ञान नहीं होगा।
8. पंचम कालमें भी कदाचित् अवधिज्ञान संभव है।
ति.प.4/1510-1517 दादूणं पिंडग्गं समणा कालो य अतंराणं पि। गच्छंति ओहिणाणं उप्पज्जइ तेसुएक्कम्मि ॥1512॥ कक्की पडिएक्केक्कं दुस्समसाहुस्स ओहिणाणं पि। संघाय चादुवण्णा थोवा आयंति तक्काले ॥1517॥
= आचारांगधरोंके पश्चात् 275 वर्ष व्यतीत होनेपर कल्की नरपतिको पट बाँधा गया था ॥1510॥ वह कल्की मुनियोंके आहारमे-से भी अग्रपिंडको शुक्ल (के रूपमें) माँगने लगा ॥1511॥ तब श्रमण अग्रपिंडको देकर और `यह अंतरायोंका काल है' ऐसा समझकर [निराहार] चले जाते हैं। उस समय उनमेंसे किसी एकको अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है ॥1512॥ इस प्रकार एक हजार वर्षोंके पश्चात् पृथक्-पृथक् एक-एक कल्को तथा पाँच सौ वर्षों पश्चात् एक-एक उपकल्की होता है ॥1516॥ प्रत्येक कल्कीके प्रति एक-एक दुषमाकालवर्ती साधुको अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उसके समयमें चातुर्वर्ण्य संघ भी अल्प हो जाते हैं ॥1517॥
9. मिथ्यादृष्टि का अवधिज्ञान विभंग कहलाता है
पं.सं./प्रा.1/120 वेभंगो त्ति व वुच्चई सम्मत्तणाणीहिं समयम्हि।
= उसे (मिथ्यात्व संयुक्त अवधिज्ञानको) आगममें विभंगाज्ञान कहा गया है।
(ध.1/1,1,115/181/359) (गो.जी./मू.305/657) (पं.सं.सं.1/232)
ध.13/5,5,53/290/8 ण च मिच्छाइट्ठीसु ओहिणाणं णत्थि त्ति वोत्तुं जुतं, मिच्छतसहचरिदओहिणाणस्सेव विहंगणाणववएसादो।
= मिथ्यादृष्टियोंके अवधिज्ञान नहीं होता, ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि, मिथ्यात्व सहचरित अवधिज्ञानको ही विभंग ज्ञान संज्ञा है।
3. अवधि व मनःपर्ययकी कंथचित् प्रत्यक्षता परोक्षता
1. अवधि-मनःपर्यय कर्मप्रकृतियोंको प्रत्यक्ष जानते हैं
ध.1/1,1,1/56/3 कर्मणामसंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा केषां प्रत्यक्षेति चेन्न, अवधिमनःपर्ययज्ञानिनां सूत्रमधीयानानां तत्प्रत्यक्षतायाः समुपलंभात्।
= प्रश्न-कर्मोंकी असंख्यात गुणश्रेणी रूपसे निर्जरा होती है, यह किनते प्रत्यक्ष है? उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सूत्रका अध्ययन करनेवालोंकी असंख्यात गुणित श्रेणीरूपसे प्रति समय कर्मनिर्जरा होता है, यह बात अवधिज्ञानी और मनःपर्यय ज्ञानियोंको प्रत्यक्षरूपसे उलब्ध होती है।
2. दोनों कर्मबद्ध जीवको प्रत्यक्ष जानते हैं
स.सि.8/26/405/3 एवं व्याख्यातो सप्रपंचः बंधपदार्थः। अवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाणगम्यस्तदुपदिष्टागमानुमेयः।
= इस प्रकार (148 प्रकृतियोंके निरूपण द्वारा) बंध-पदार्थका विस्तारके साथ व्याख्यान किया। यह अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान रूप प्रत्यक्ष प्रमाणगम्य है और इन ज्ञानवाले जीवों द्वारा उपदिष्ट आगमसे अनुमेय है।
ध.13/5,5,63/333/4 दिष्टसुदाणुभूदट्ठविसयणाणविसेसिदजीवो सदी णाम। तं पि पच्चक्खं पेच्छदि। अमुत्तो जीवो कधं मणपज्जवणाणेण मुत्तट्ठपरिच्छेदियोहिणाणादोहेट्ठिमेण परिच्छिज्जदे। णमुत्तट्ठकम्मेहि आणादिबंधनबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तोदो। स्मृतिरभूर्त्ताचेत्-न जीवदोपुधभूदसदीए अणुवलंभा। अणागयत्थविसयमदिणाणेण विसेसिदजीवो मदी णाम। तं पि पच्चक्खं जाणदि। वट्टमाणत्थविसयमदिणाणेण विसेसिदजीवो चिंता णाम तंपि पच्चक्कं वेच्छदि।
= दृष्ट श्रुत और अनुभूत अर्थको विषय करनेवाले ज्ञानसे विशेषित जीवका नाम स्मृति है, इसे भी वह (मनःपर्ययज्ञानी) प्रत्यक्षसे देखता है। प्रश्न-यतः जीव अमूर्त है अतः वह मूर्त अर्थको जाननेवाले अवधिज्ञानसे नीचेके मनःपर्ययज्ञानके द्वारा कैसे जाना जाता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, संसारी जीव मूर्त आठ कर्मोंके द्वारा अनादिकालीन बंधनसे बद्ध है इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता? प्रश्न-स्मृति तो अमूर्त है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, स्मृति जीवसे पृथक् नहीं उपलब्ध होती है। अनागत अर्थका विषय करनेवाले मतिज्ञानसे विशेषित जीवकी मति संज्ञा है, इसे भी वह प्रत्यक्ष जानता है। वर्तमान अर्थको विषय करनेवाले मतिज्ञानसे विशेषित जीवकी चिंता संज्ञा है-इसे भी वह प्रत्यक्ष देखता है।
3. अवधि मनःपर्ययकी कथंचित् परोक्षता
ध./पू.701 छद्मस्थायामावरणेंद्रियसहायसापेक्षम्। यावज्ज्ञानचतुष्टयमर्थात् सर्वं परोक्षमिव वाच्यम् ॥701॥
= छद्मस्थ अवस्थामें आवरण और इंद्रियोंकी सहायताकी अपेक्षा रखनेवाले जितने भी चारों ज्ञान है वे सब परमार्थ रीति से परोक्षवत् कहने चाहिए।
मो.मा.प्र.3/51/4 सो यहु (अवधि ज्ञान) भी शरीरादिक पुद्गलानिवै आधीन है।..अवधि दर्शन है सो मतिज्ञान वा अवधिज्ञानवत् पराधीन जानना।
4. अवधि मनःपर्ययकी प्रत्यक्षता परोक्षताका समन्वय
पं.ध./पू.702-705 अवधिमनःपर्ययवद्द्वैतं प्रत्यक्षमेकदेशत्वात्। केवलमिदभुपचारादथ च विवक्षावशान्न चान्वर्थात् ॥702॥ तत्रोपचारहेतुर्यथा मतिज्ञानमक्षजं नियमात्। अथ तत्पूर्वं श्रुतमपि न तथावधि-चित्तपर्ययं ज्ञानम्। ॥703॥ यस्मादवग्रहेहावायानतिधारणापरायत्तम्। आद्यं ज्ञानं द्वयमिह यथा नैव चांतिमं द्वैतम् ॥704॥ दुरस्थानर्थानिह समवक्षमिव वेत्तिहेलया यस्मात्। केवलमेव मनसादवधिमनःपर्ययद्वयं ज्ञानम् ॥705॥
= अवधि और मनःपर्यय ये दोनों ज्ञान एकदेशपनसे प्रत्यक्ष हैं, यह कथन केवल उपचारसे अथवा विवक्षा वश समझना चाहिए, किंतु अन्वर्थसे नहीं ॥702॥ उपचारका कारण यह है कि जैसे नियमसे मतिज्ञान इंद्रियोंसे उत्पन्न होता है और श्रुतज्ञान भी मतिपूर्वक होता है, वैसे अवधिमनःपर्यय ज्ञान इंद्रियादिकसे उत्पन्न नहीं होते हैं ॥703॥ क्योंकि जैसे यहाँ पर आदिके दोनों ज्ञान अवग्रह ईहा अवाय और धारणाको उल्लंघन नहीं करनेसे पराधीन हैं; वैसे अंतके दोनों ज्ञान नहीं हैं ॥704॥ क्योंकि यहाँ पर अवधि और मनःपर्यय ये दोनों ज्ञान केवल मनसे ही दूरवर्ती पदार्थोंको लीलामात्रसे प्रत्यक्षकी तरह जानते हैं ॥705॥
5. अवधि व मतिज्ञान की प्रत्यक्षतामें अंतर
ध.6/1,9-1,14/26/2 मतिसुदणाणाणि परोक्खाणि, ओहिणाणं पुण पच्चक्खं; तेण तेहिंतो तस्स भेदुवलंभा। मदिणाणं वि पच्चक्खं दिस्सदीदि चे ण, मदिणाणेण पच्चक्खं वत्थुस्स अणुवलंभा। जो पच्चक्खमुवलंभइ, सो वत्थुस्स एगदेसो त्ति वत्थू ण होदि। जो वि वत्थू, सो वि ण पच्चक्खेण उवलब्भदि; तस्स पच्चक्खापच्चक्खपरोक्खमइणाणविसयत्तादो। तदो मदिणाणंपच्चक्खेण ण वत्थु परिच्छेदयं। जदि एवं, तो ओहिणाणस्स वि पच्चक्ख-परोक्खत्तं परज्जदे। तिकालगोयराणंतपज्जाएहि उवचियं वत्थू, ओहिणाणस्स पच्चक्खेण तारिसवत्थुपरिच्छेदणसत्तीए अभावादो इति चे ण, ओहिणाणम्मि पच्चक्खेण वट्टमाणोसेसपज्जायविसिट्ठवत्थुपरिच्छित्तीए उवलंभा, तीदाणागदअसंखेज्जपज्जायविसिट्ठवत्थुदंसणादो च। एवं पि तदो वत्थुपरिच्छेदो णत्थि त्ति ओहिणास्स पच्चक्ख-परोक्खत्तं परसज्जदे। ण, उभयणयसमुहवत्थुम्मि-ववहारजोगम्मि ओहिणाणस्स पच्चक्खत्तुवलंभा। ण चाणं तवंजणपज्जाए ण घेप्पदि त्ति ओहिणाणं वत्थुस्स एगदेसपरिच्छेदयं, ववहारणयवंजणपज्जाएहि एत्थ वत्थुत्तब्भुवगमादो। ण मदिणाणस्स वि एसो कमो, तस्स वट्टमाणासेसपज्जायविसिट्ठ-वत्थु परिच्छेयणसत्तीए अभावादो।
= निर्देश-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं, किंतु अवधिज्ञान तो प्रत्यक्षज्ञान है, इसलिए उक्त दोनों ज्ञानोंसे अवधिज्ञानके भेद पाया जाता है। प्रश्न-मतिज्ञान भी तो प्रत्यक्ष दिखलाई देता है? उत्तर-नहीं क्योंकि मतिज्ञानसे वस्तुका प्रत्यक्ष उपलंभ नहीं होता है। मतिज्ञानसे जो प्रत्यक्ष जाना जाता है वह वस्तुका एकदेश है; और वस्तुका एकदेश संपूर्ण वस्तुरूप नहीं हो सकता है। जो भी वस्तु है वह मतिज्ञानके द्वारा प्रत्यक्षरूपसे नहीं जानी जाती है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षरूप परोक्ष मतिज्ञानका विषय है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि मतिज्ञान प्रत्यक्षरूप से वस्तुका जाननेवाला नहीं है। (जितने अंशको स्पष्ट जाना वह प्रत्यक्ष है शेष अंश अप्रत्यक्ष है। और इंद्रियावलंबी होनेसे परोक्ष है इसलिए यहाँ मतिज्ञानको `प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष' परोक्ष कहा गया है) प्रश्न-यदि ऐसा है तो अवधिज्ञानके भी प्रत्यक्षपरोक्षात्मकता प्राप्त होती है, क्योंकि, वस्तु त्रिकालगोचर अनंत पर्यायोंसे उपचित है, किंतु अवधिज्ञानके प्रत्यक्ष द्वारा उस प्रकारकी व्सतुके जाननेकी शक्ति का अभाव है? उत्तर-नहीं, क्योंकि अवधिज्ञानमें प्रत्यक्षरूपसे वर्तमान समस्त पर्यायविशिष्ट वस्तुका ज्ञान पाया जाता है, तथा भूत और भावी असंख्यात पर्यायविशिष्ट वस्तुका ज्ञान देखा जाता है। प्रश्न-इस प्रकार माननेपर भी अवधिज्ञानसे पूर्ण वस्तुका ज्ञान नहीं होता है, इसलिए, अवधिज्ञानके प्रत्यक्षपरोक्षात्मकता प्राप्त होती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, व्यवहारके योग्य, एवं द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दोनों नामोंके समूहरूप वस्तुमें अवधिज्ञानके प्रत्यक्षता पायी जाती है। प्रश्न-अवधिज्ञान अनंत व्यंजन पर्यायोंको नहीं ग्रहण करता है, इसलिए वस्तुके एकदेशका जाननेवाला है? उत्तर-ऐसा भी नहीं जानना चाहिए, क्योंकि, व्यवहार नयके योग्य व्यंजनपर्यायोंकी अपेक्षा यहाँ पर वस्तुत्य माना गया है। यदि कहा जाय कि मतिज्ञानका भी यही क्रम मान लेंगे, सो नहीं माना जा सकता, क्योंकि मतिज्ञानके वर्तमान अशेष पर्यायविशिष्ट वस्तुके जाननेकी शक्तिका अभाव है, तथा मतिज्ञानके प्रत्यक्षरूपसे अर्थ ग्रहण जाननेकी शक्तिका अभाव है, तथा मतिज्ञानके प्रत्यक्षरूपसे अर्थ ग्रहण करनेके नियमका अभाव है।
ध.13/5,5,21/211/3 अवध्याभिनिबोधिकज्ञानयोरेकत्वम्, ज्ञानत्वं प्रत्यविशेषादिति चेत्-न प्रत्याक्षाप्रत्यक्षयोरनिंद्रियजेंद्रियजयोरेकत्वविरोधात्। ईहादिमतिज्ञानस्याप्यनिंद्रियजत्वमुपलभ्यत इति चेत्-न, द्रव्यार्थिकनये अवलंब्यमाने ईहाद्यभावतस्तेषामनिंद्रियजत्वाभावात् नैगगनये अदलंब्यमानेऽपि पारंपर्येणेंद्रियअत्वोपलंभाच्च। प्रत्यक्षमाभिनिबोधिकज्ञानम्, तत्र वैशद्योपलभादवधिज्ञानवदिति चेत्-न, ईहादिषु मानसेषु च वैशद्याभावात्। न चेदं प्रत्यक्षलक्षणम्, पच्चेंद्रियविषयावग्रहस्यापि विशदस्यावधिज्ञानस्येव प्रत्यक्षतापत्तेः। अवग्रहे वस्त्वेकदेशो विशदं चेत्-न, अवधिज्ञानऽपि तदविशेषात्। ततः पराणींद्रियाणि आलोकादिश्च, परेषामायत्तज्ञानं परोक्षम्। तदन्यत्प्रत्यक्षमित्यंगीकर्तव्यम्।
= प्रश्न-अवधिज्ञान और आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान ये दोनों एक हैं, क्योंकि ज्ञान सामान्यकी अपेक्षा इनमें कोई भेद नहीं। उत्तर-नहीं, क्योंकि अवधिज्ञान प्रत्यक्ष है और अभिनिबोधिक ज्ञान परोक्ष है, तथा अवधिज्ञान इंद्रिय जन्य नहीं है और अभिनिबोधिक ज्ञान इंद्रियजंय है, इसलिए इन्हें एक माननेमें विरोध आता है। प्रश्न-ईहादि मतिज्ञान भी अनिंद्रियज उपलब्ध होते हैं? उत्तर-नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयका अवलंबन लेनेपर ईहादि स्वतंत्र ज्ञान नहीं है इसलिए वे अनिंद्रियज नहीं ठहरते। तथा नैगम नयका अवलंबन लेनेपर भी वे परंपरासे इंद्रियजंय ही उपलब्ध होते हैं। प्रश्न-आभिनिबोधिक ज्ञान प्रत्यक्ष है, क्योंकि उसमें अवधिज्ञानके समान विशदता उपलब्ध होती है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, इहादिकोंमें और मानसिकज्ञानोंमें विशदताका अभाव है। दूसरे यह विशदता प्रत्यक्षका लक्षण नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर पंचेंद्रिय विषयक अवग्रह भी विशद होता है, इसलिए उसे भी अवधिज्ञानकी तरह प्रत्यक्षता प्राप्त हो जायगी। प्रश्न-अवग्रहमें वस्तुका एकदेश विशद होता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, अवधिज्ञानमें भी उक्त विशदतासे कोई विशेषता नहीं है, अर्थात् इसमें भी वस्तुकी एकदेश विशदता पायी जाती है। इसलिए `पर' का अर्थ इंद्रियाँ और आलोक आदि हैं, और पर अर्थात् इनके अधीन जो ज्ञान होता है वह परोक्ष ज्ञान है। तथा इससे अन्य ज्ञान प्रत्यक्ष है, ऐसा यहाँ स्वीकार करना चाहिए।
4. अवधिज्ञानमें इंद्रियों व मनके निमित्तका सद्भाव व असद्भाव
1. अवधिज्ञान में कथंचित मनका सद्भाव
पं.ध./पू./699 देशप्रत्यक्षमिहाप्यवधिमनःपर्यये च यज्ज्ञानम्। देशं नोइंद्रियमन उत्थात् प्रत्यक्षनिरपेक्षात् ॥699॥
= अवधिमनःपर्ययरूप जो ज्ञान है वह देशप्रत्यक्ष है क्योंकि वह केवल अनिंद्रियरूप मनसे उत्पन्न होनेके कारण देश तथा अन्य बाह्य पदार्थों की अपेक्षा न रखने से प्रत्यक्ष कहलाता है।
1. अवधिज्ञानमें मनके निमित्तका अभाव
अष्टशती/का.3/निर्णयसागर बन्बई-``आत्मनमेवापेक्ष्यैतानि वीणि ज्ञानानि उत्पद्यंते। न इंद्रियानिंद्रियापेक्षा तत्रास्ति। उक्तं च - अतएवाक्षानपेक्षांजनादिसंस्कृतचक्षुषो, यथालोकानपेक्षा।
= अवधि, मनःपर्यय व केवल ये तीनों ज्ञान आत्माकी अपेक्षा करके ही उत्पन्न होते हैं। तहाँ इंद्रिय या अनिंद्रियकी अपेक्षा नहीं होती। कहा भी है - ``जिस प्रकार अंजन आदिसे संस्कृत आँख आलोकादिसे निरपेक्ष ही देखती है, उसी प्रकार ये तीनों ज्ञान भी इंद्रियोंसे निरपेक्ष ही जानते हैं।
अष्टसहस्री/पृ.50/निर्णयसागर बंबई - ``नि हि सर्वार्थैव सकृदक्षसंबंधः संभवति साक्षात्परंपरया वा। ननु. चावधिमनः पर्ययज्ञानिनोर्देशतो विरतव्यामोहयोः असर्वदर्शनः कथमक्षानपेक्षा संलक्षणीया। तदावरण क्षयोपशमातिशयवशात्स्वविशेषपरिस्फुरत्वात् इति ब्रु मः।
= इन ज्ञानोंमें साक्षात् या परंपरा रूपसे किसीं भी प्रकार इंद्रियोंका संबंध संभव नहीं है। प्रश्न-अवधि व मनःपर्ययज्ञानियोंको जो कि केवल एकदेश रूपसे मोहसे छूटे हैं तथा असर्वदर्शी हैं, इंद्रियोंसे निरपेक्षपना कैसे कहा जा सकता है? उत्तर-क्योंकि अपने आवरण कर्मके क्षयोपशमके कारणही वे अपने-अपने विषयमें परिस्फुरित होते हैं। इसलिए ऐसा कहा है।
गो.जी./मू./446/863 ``इंदियणोइंदियजोगादि पेक्खित्तु उजुमदी होदि। णिरवेक्खिय बिउलमदी ओहिं वा होदि णियमेण ॥446॥
= ऋजुमति ज्ञान तो स्व व परके इंद्रिय, मन व योगोंकी सापेक्षतासे उत्पन्न होता है, परंतु विपुलमति व अवधिज्ञान नियमसे इनकी अपेक्षा रहित है।
5. अवधिज्ञानके उत्पत्ति स्थान व करण चिह्न विचार
1. देशावधि गुणप्रत्ययज्ञान करण चिह्नोंसे उत्पन्न होता है और शेष सब सर्वांगसे होते हैं
ध.13/5,5,56/24/295 णेरइय-देव-तित्थयरोहिवखेत्तस्सवाहिरं एदे। जाणंति सव्वदो खलु सेसा देसेण जाणंति। सेसा देसेण जाणंति त्ति एत्थ णियमो ण कायव्वो, परमोहिसव्वोहिंणाणगणहराइणं सगसव्वावयवेहि सगविसईभूदत्थस्स गहणुवलंभादो। तेण सेसा देसेण सव्वदो च जाणंति त्ति घेत्तव्वं।
= नारकी, देव और तीर्थंकर इनका जो अवधिक्षेत्र है उसके भीतर ये सर्वांगसे जानते हैं और शेष जीव शरीरके एकदेशसे जानते हैं ॥24॥
शेष जीव शरीरके एक देशसे जानते हैं, इस प्रकारका यहाँ नियम नहीं करना चाहिए, क्योंकि परमावधिज्ञानी और सर्वावधिज्ञानी गणधरादिक अपने शरीरके सब अपयवोंसे अपने विषयभूत अर्थको ग्रहण करते हुए देखे जाते हैं। इसलिए शेष जीव शरीरके एक देशसे और सर्वांगसे जानते हैं, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
पं.स./सं./1/158 तीर्थकृच्छ्वाभ्रदेवाना सर्वांगोत्थोऽवधिर्भवेत्। नृतिरश्चां तु शंखाव्जस्वस्तिकाद्यंगचिह्नजम् ॥158॥
= तीर्थंकर, नारकी व देवोंको अवधिज्ञान सर्वांगसे उत्पन्न होता है। तथा मनुष्यों व तिर्यंचोंको शरीरवर्ती शंख कमल व स्वस्तिक आदि करणं चिह्नोंसे उत्पन्न होता है।
(गो.जी./मू./371/798)
2. करण चिह्नोंके आकार
ष.ख.13/5,5/सू.75-58/296 खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा ॥57॥ सिरिवच्छ-कलस-संख-सोत्थिय-णंदावत्तादीणि संठाणादि णादव्वणि भवंति ॥58॥
= क्षेत्रकी अपेक्षा शरीरप्रदेश अनेक संस्थान संस्थित होते हैं ॥57॥ श्रीवस्त, कलश, शंख, सांथिया, और नंदावर्त आदि आकार जानने योग्य हैं ॥58॥ (आदि शब्दसे अन्य संस्थानोंका ग्रहण होता है)
(रा.वा./1/22/4/83/25)
पं.सं/सं./1/158 अत्र शंखाब्जस्वस्तिकश्रीवत्सध्वजकलशनंद्यावर्तहलादोंयवधेरुत्पत्तिक्षेत्रसंस्थानानि।
= शंख, कमल, स्वस्तिक, श्रीवत्स, ध्वज, कलश, नंद्यावर्त. हल आदिक अवधिज्ञानकी उत्पत्तिके क्षेत्र संस्थान होते हैं।
(गो.जी./जी.प्र./371/798/6)
3. चिह्नोंके आकार नियत नहीं हैं
ध.13/5,5,57/296/10 जहा कायाणमिंदयाणं च पडिणियदं संठाणं तहा ओहिणाणस्स ण होदि, किंतु ओहिणाणावरणीयखओवसमगदजीवपदेसाणं करणीभूदसरीरपदेसा अणेयसंठाणसंठिदा होंति।
= जिस प्रकार शरीरका और इंद्रियोंका प्रतिनियत आकार होता है उस प्रकार अवधिज्ञान का नहीं होता है। किंतु अवधि ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमको प्राप्त हुए जीवप्रदेशोंके करणरूप शरीर प्रदेश अनेक संस्थानोंसे संस्थित होते हैं।
4. शरीरमें शुभ व अशुभ चिह्नोंका प्रमाण व अवस्थान
ध.13/5,5,58/297/10 ण च एक्कस्स जीवस्स एक्कम्हि चेव पदेसे ओहिणाणकरणं होदि त्ति णिममो अत्थि, एग-दो-तिण्णि-चत्तारि-पचछआदिखेत्ताणमेगजीवम्हि संखादिसुहसंठाणाणं कम्हिविसंभवादो। एदाणि संठाणाणि तिरिक्खमणुस्साणं णाहीए उवरिमभागे होंति. णो हेट्ठा; सुहसंठाणाणमधोभागेण सह विरोहादो। तिरक्खमणुस्सविहंगणाणीणं णाहीए हेट्ठा सरडादि असुहसंठाणाणि होंति त्ति गुरूवदेसो, ण सुत्तमत्थि।
= एक जीवके एक ही स्थानमें अवधिज्ञानका करण होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि किसी भी जीवके एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह आदि क्षेत्र रूप शंकादि शुभ संस्थान संभव है। ये संस्थान तिर्यंच और मनुष्योंके नाभिके उपरिस भागमें होते हैं, नीचेके भागमें नहीं होते, क्योंकि, शुभ संस्थानोंका अधोभागके साथ विरोध है। तथा तिर्यंच और मनुष्य विभंगज्ञानियोंके नाभिशे नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते हैं। ऐसा गुरुका उपदेश है, इस विषयमें कोई सूत्र वचन नहीं है।
(पं.सं./सं./1/158 व्याख्या) (गो.जी./जी.प्र./371/798/6)
5. सम्यक्त्व व मिथ्यात्वके कारण करण चिह्नोंमें परिवर्तन
ध.13/5,5,58/2 विहंगणाणीणं ओहिणाणे सम्मत्तादिफलेण समुप्पण्णे सरडादिअसुहसंठाणाणि फिट्टिदूण णाहोए उवरि संखादिसुहसंठाणाणि होंति त्ति घेत्तव्वं। एवमोहिणाणपच्छायदविहंगणाणीणं पि सुहसंठाणाणि फिट्टिदूण असुहसंठाणाणि होंति त्ति घेतव्वं।
= विभंगज्ञानियोंके सम्यक्त्व आदिके फल स्वरूपसे अवधिज्ञानके उत्पन्न होनेपर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभिके ऊपर शंख आदि शुभ आकार हो जाते हैं, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार अवधिज्ञानसे लौटकर प्राप्त हुए विभंगज्ञानियोंके भी शुभ स्थान मिटकर अशुभ संस्थान हो जाते हैं, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
6. सम्यक्त्व व मित्थात्व कृत चिह्नभेद संबंधी मतभेद
ध.13/5,5,58/298/5 के वि आइरिया ओहिणाण-विभंगणाणं खेत्तसंठाणभेदो णाभीए हेट्ठोवरि णियमो च णत्थि त्ति भणंति, दोण्णंपि ओहिणाणत्तं पडिभेदाभावादो। ण च सम्मत्तमिच्छत्तसहचारेण कदणामभेदादो भेदो अत्थि, अइप्पसंणादी। एदमेत्थ पहाणं कायव्वं।
= कितने ही आचार्य अवधिज्ञान और विभंगज्ञानका क्षेत्रसंस्थानभेद तथा नाभिके नीचे ऊपरका नियम नहीं है, ऐसा कहते हैं, क्योंकि अवधिज्ञानसामान्यकी अपेक्षा दोनोंमें कोई भेद नहीं है। सम्यक्त्व और मिथ्यात्वकी संगतिसे किये गये नामभेदके होनेपर भी अवधिज्ञानकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं हो सकता; क्योंकि ऐसा माननेपर अतिप्रसंग दोष आता है। इसी अर्थको यहाँ प्रधान करना चाहिए।
7. सर्वांग क्षयोपशमके सद्भावमें करण चिन्होंकी क्या आवश्यकता
ध.13/5,5,56/296/2 ओहिणाणं अणेयखेत्तं चेव, सव्वजीवपदेसेसु अक्कमेण खओवसमं गदेसु सरीरेगदेसेणेव बज्झट्ठावगमाणुववत्तीदो। ण, अण्णत्थ करणाभावेण करणसरूवेण परिणदसरीरेगदेसेण तदवघमस्स विरहाभावादो। ण च सकरणो खओवसमो तेण विणा जाणदि, विप्पडिसेहादो।
= प्रश्न-अवधिज्ञान अनेकक्षेत्र ही होता है, क्योंकि सब जीव प्रदेशोंके युगपत् क्षयोपशमको प्राप्त होनेपर शरीरके एकदेशसे है बाह्य अर्थका ज्ञान नहीं बन सकता? उत्तर-नहीं, क्योंकि अन्य देशोंमें करण स्वरूपता नहीं है, अतएव करणस्वरूपसे परिणत हुए शरीर के एक देशसे बाह्य अर्थ का ज्ञान माननेमें कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न-सकरण क्षयोपशम उसके बिना जानता है? उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि इस मान्यताका विरोध है।
8. सर्वांगकी बजाय एक देशमें ही क्षयोपशम मान लें तो
ध.13/5,5,56/293/5 जीवपदेसाणमेगदेसे चेव ओहिणाणावरणवखओवसमे संते एयक्खेत्तं जुज्जदि त्ति ण पच्चवट्ठेयं, उदयगदगोवुच्छाए सव्वजीवपदेसविसयाए देसट्ठाइणीए संतीए जीवेगदेसे चेव खओवसमस्स बुत्तिविरोहादो। ण चोहिणणस्स पच्चवखत्तं पि फिट्टदि अणेयक्खेते अपरायत्ते पच्चक्खलवखणुवलंभादो।
= प्रश्न-जीवप्रदेशोंके एकदेशमें ही अवधिज्ञानानावरणका क्षयोपशम होनेपर एकेक्षेत्र अवधिज्ञान बन जाता है? उत्तर-ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उदयको प्राप्त हुई गोपुच्छा सब जीवप्रदेशोंको विषय करती है, इसलिए उसका देशस्थायिनी होकर जीवके एकदेशमें ही क्षयोपशम माननेमें विरोध आता है प्रश्न-इससे अवधिज्ञानकी प्रत्यक्षता विनष्ट हो जाती है? उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, वह अनेक क्षेत्रमें उसके पराधीन न होनेपर उसमें प्रत्यक्षका लक्षण पाया जाता है नोट-जीव प्रदेशोंके भ्रमण करनेपर ज्ञानके अभावका प्रसंग आ जायेगा - देखें इंद्रिय - 1
9. करण चिह्नोंमें भी ज्ञानोत्पत्तिका कारण तो क्षयोपशम ही है
गो.जी./जी.प्र./371/798/6 कलशादिशुभचिह्नलक्षितात्मप्रदेस्थावधिज्ञानावरणवीर्यांतरायकर्मद्वयक्षयोपशमोत्पंनमित्यर्थः।
= कलश इत्यादिक आकाररूप जहाँ शरीरविषे भले लक्षण होई तहाँ संबंधी जे आत्माके प्ररेश तिनिविषै तिष्टता जो अवधिज्ञानावरणकर्म अर वीर्यांतरायकर्म तिनिकै क्षयोपशमतैं उत्पन्न ही है।
6. अवधिज्ञानके भेदों संबंधी विचार
1. भवप्रत्यय व गुण प्रत्ययमें अंतर
गो.जी./जी.प्र.371/798/4 तत्र भवप्रत्ययावधिज्ञानं सुराणां नारकाणां चरमभवतीर्थकराणां च संभवति। तच्च तेषां सर्वांगगोत्थं भवति।..गुणप्रत्ययं अवधिज्ञानं नराणां तिरश्चां च संभवति। तच्च तेषां शंखादिचिह्नभवं भवति।..भवप्रत्यये अवधिज्ञाने दर्शनविशुद्ध्यादिगुण सद्भावेऽपि तदनपेक्ष्यैव भवप्रत्ययत्वं ज्ञातव्यं। गुणप्रत्ययेऽवधिज्ञाने तिर्यग्मनुष्यसद्भावेऽपि तदनपैक्षयैव गुणप्रत्ययत्वं ज्ञातव्यं।
= भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवनिकै, नारकीनिकै, अर चरमशरीरी तीर्थंकर देवनिकै पाइये है। सो यहू उन के सर्वांगसे उत्पन्न हो है। बहुरि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है सो मनुष्य और तिर्यंचके संभवै है। सो यहू उनके शंखादि चिह्नोंसे उत्पन्न हो है। भवप्रत्यय अवधिज्ञान विषै भी सम्यग्दर्शनादि गुणका सद्भाव है तथापि उन गुणोंकी अपेक्षा नाहीं करनेतैं भवप्रत्यय कह्या। अर गुणप्रत्यय विषे मनुष्य तिर्यंच (भव) का सद्भाव है, तथापि उन पर्यायनिकी अपेक्षा नाहीं करने तै गुण प्रत्यय कहा है।
2. क्या भवप्रत्ययमें ज्ञानावरणका क्षयोपशम नहीं है
स.सि.1/21/125/7 भवः प्रत्ययोऽस्य भवप्रत्ययः। - यद्योवं तत्र क्षयोपशमनिमित्तत्वं न प्राप्नोति। नैष दोषः; तदाश्रयात्तत्सिद्धेः। भवं प्रतीत्य क्षयोपशमः संजायत इति कृत्वा भवः प्रधानकारणमित्युपदिश्यते। यथा पतत्रिणो गमनमाकाशे भवनिमित्तम्। न शिक्षागुणविशेषः, तथा देवनारकाणां व्रतनियमाद्यमभावेऽपि जायते इति भवप्रत्ययः' इत्युच्यते। इतरथा हि भवः साधारण इति कृत्वा सर्वेषामविशेषः स्यात्। इष्यते च तत्रावधेः प्रकर्षाप्रकर्षवृत्तिः।
= जिस अवधिज्ञानके होनेमें भव निमित्त है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो अवधिज्ञानके होनेमें क्षयोपशमकी निमित्तता नहीं बनती? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भवके आश्रयसे क्षयोपशमकी सिद्धि हो जाती है। भवका आलंबन लेकर क्षयोपशम हो जाता है ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है ऐसा उपदेश दिया जाता है। जैसे पक्षियोंका आकाशमें गमन करना भवनिमित्तक होता है, शिक्षा गुणकी अपेक्षासे नहीं होता वैसे ही देव और नारकियोंके व्रत नियमादिकके अभावमें भी अवधिज्ञान होता है, इसलिए उसे भव निमित्तक कहते हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो भव तो सबके साधारण रूप पाया जाता है, अतः सबके एक-सा अवधिज्ञान प्राप्त होगा। परंतु वहाँ पर अवधिज्ञान न्यूनाधिक कहा ही जाता है। इससे जाना जाता है कि वहाँपर अवधिज्ञान होता तो क्षयोपशमसे ही है, पर वह क्षयोपशम भवके निमित्तसे प्राप्त होता है, अतः उसे `भवप्रत्यय' कहते हैं।
(रा.वा.1/21/3-4/79/12)
3. भव प्रत्यय है तो भवके प्रथम समय ही उत्पन्न क्यों नहीं होता
ध.13/5,5,52/290/6 जदि भवमेत्तमोहिणाणस्स कारणं होज्ज तो देवेसु णेरइएसु वा उप्पणपढमसमए ओहिणाणं किण्ण उप्पज्जदे। ण एस दोसो, ओहिणाणुप्पत्तीए छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदभवग्गहणादो।
= प्रश्न-यदि भवमात्र ही अवधिज्ञानका कारण है, तो देवों और नारकियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही अवधिज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त भवको ही यहाँ अवधिज्ञानकी उत्पत्तिका कारण माना गया है।
4. देव नारकी सम्यग्दृष्टियोंके ज्ञानको भवप्रत्यय कहें कि गुणप्रत्यय
ध.13/5,5,53/290/9 देवणेरइयसम्माइट्ठीसु समुप्पण्णोहिणाणं ण भवपच्चइयं, सम्मत्तेण विणा भवादो चेव ओहिणाणस्साविब्भावाणुवलंभादो। ण एस दोसो, सम्मतेण विणा वि मिच्छाइट्ठोसु पज्जत्तयदेसु ओहिणाणुप्पत्तिदं सणादो। तम्हा तत्थतणमोहिणाणं भवपच्चइयं चेव।
= प्रश्न-देव और नारकी सम्यग्दृष्टियोंमें उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान भवप्रत्यय नहीं, क्योंकि उनके सम्यक्त्वके बिना एकमात्र भवके निमित्तसे ही अवधिज्ञानकी उपलब्धि नहीं होती। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना भी पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंके अवधिज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए वहाँ उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय ही है।
5. सभी सम्यग्दृष्टि आदिकोंको गुणप्रत्यय ज्ञान उत्पन्न क्यों नहीं होता
ध.13/5,5,53/292/1 जदि सम्मत्त-अणुव्वदमहव्वदेहिंत्तो ओहिणाणमुप्पज्जदि तो सव्वेसु असंजदसम्माइट्ठिसंजदासंजद-संजदेसुआहिणाणं किण्ण उपलब्भदे। ण एस दोसो, असंखेज्जलोगमेत्त सम्मत-संजमासंजमसंजमपरिणामेसु ओहिणाणावरणक्खओवसमणिमित्ताणं परिणामाणमइथोवत्तादो। णचते सव्वेसु संभवंति, तप्पडिवक्खपरिणामं बहुत्तेणतदुवलद्धीए थोवत्तादो।
= प्रश्न-यदि सम्यक्त्व, अणुव्रत और महाव्रत के निमित्तसे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो सब असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतोंके अवधिज्ञान क्यों नहीं पाया जाता? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सम्यक्त्व संयमासंयम और संयमरूप परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं। उनमें-से अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशणके निमित्तभूत परिणाम अतिशय स्तोक हैं। वे सबके संभव नहीं हैं, क्योंकि उनके प्रतिपक्षभूत परिणाम बहुत हैं, इसलिए उनकी उपलब्धि क्वचित् ही होती है।
6. भव व गुणप्रत्ययमें देशावधि आदि विकल्प
पं.का./मू/43 की प्रक्षेपक गा.3/86 ओहिं तहेव घेप्पदु देसं परमं च ओहिसव्वं च। तिण्णि वि गुणेण णियमा भवेण देसं तहा णियदं ॥3॥
= अवधिज्ञान तीन प्रकारका जानना चाहिए-देशावधि, परमावधि व सर्वावधि। ये तीनों ही नियमसे गुणप्रत्यय हैं तथा भवप्रत्यय निश्चितरूप से देशावधि ही है।
गो.जी./मू/373/801 भवपच्चइगो ओही देसोही होदि परमसव्वोही। गुणपच्चइगो णियमा देसोहो वि य गुणे होदि ॥373॥
= भवप्रत्यय अवधिज्ञान तो देशावधि ही होता है। परमावधि व सर्वावधि गुणप्रत्यय ही होते हैं तथा देशावधि गुणप्रत्यय भी होता है।
7. परमावधिमें कथंचित् देशावधिपना
रा.वा./1/20/15/79/1 सर्वशब्दस्य निरवशेषवाचित्वात् सर्वावधिमपेक्ष्य परमावधेर्देशावधित्वमेवेति वक्ष्यामः।
= `सर्व' शब्द क्योंकि निरवशेषवाची है इसलिए सर्वावधिकी अपेक्षा परमावधिको भी देशावधिपना कहा जाता है।
(रा.वा./1/22/4/83/19)
8. देशावधि आदि दोनों वर्द्धमान आदि अथवा प्रतिपाती आदि विकल्प
रा.वा./1/22/4/81/27 देशावधिस्त्रेधा-जघन्य-उत्कृष्टः अजन्योत्कृष्टश्चेति। तथा परमावधिपरि त्रेधा। सर्वावधिविकल्पत्वादेक एव।
रा.वा./1/22/4/82/1 वर्द्धमानो हीयमानः अवस्थितः अनवस्थितः अनुगामी अननुगामी अप्रतिपाती प्रतिपाती इत्येतेऽष्टौ भेदा देशावधेर्भवंति। हीयमानप्रतिपातिभेदवर्जा इतरे षट्भेदा भवंति परमावधेः। `अवस्थितोऽनुगाम्यननुगाम्यप्रतिपाती' इत्येते चत्वारो भेदाः सर्वावधेः।
रा.वा./1/22/4/83/11 एष त्रिविधोऽपि परमावधिः वर्द्धमानो भवति न हीयमानः। अप्रतिपाती न प्रतिपाती।...अवस्थितो भवति अनवस्थितश्च वृद्धिं प्रति न हानिम्। ऐहलौकिकदेशांतरगमनादनुगामी पारलौकिकदेशांतरगमनाभावादननुगामी। -सर्वावधिरुच्यते ...स एष वर्धमानो न हीयमानो नानवस्थितो न प्रतिपाती, प्राक्संयतभवक्षयात् अवस्थितोऽप्रतिपाती, भवांतरं प्रत्ययनुगामी देशांतरं प्रत्यनुगामी।
= देशावधि तीन प्रकारका है-जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट। इसी प्रकार परमावधि तीन प्रकारका है। सर्वावधि निर्विकल्प होनेसे एक हि प्रकारका है। देशावधि में आठ भेद हैं-वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, अप्रतिपाती और प्रतिपाती। हीयमान और प्रतिपातीको छोड़कर शेष छह भेद परमावधिमें हैं। अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अप्रतिपाती ये चार भेद सर्वावधि में हैं। जघन्य आदि तीनों प्रकारका परमावधि वर्धमान ही होता है हीयमान नहीं। अप्रतिपाती ही होता है प्रतिपाती नहीं। अवस्थित होता है अथवा वृद्धिके प्रति अनवस्थित भी होता है परंतु हानिके प्रति नहीं। इस लोकमें देशांतर गमनके कारण अनुगामी है, परंतु परलोकरूप देशांतर गमनका अभाव होनेके कारण अननुगामी है। अब सर्वावधि को कहते हैं। वह वर्धमान ही होता है हीयमान नहीं। अनवस्थित व प्रतिपाती भी नहीं होता। वर्तमानके संयत भवके क्षय से पहिले तक अवस्थित और अप्रतिपाती है। भवांतरके प्रति अननुगामी है और देशांतरके प्रति अनुगामी है।
(गो.जी./मू.व.टी/375/308)
ध.13/5,5,59/310/5 परमोहि पुण दव्व-खेत्त-कालभावाणमक्कमेण वुड्ढी होदि वत्तव्वं।
ध.13/5,5,9/310/6 तत्थ परमोहिणाणीणं पडिवादाभावेण उप्पदाभावादो।
= परमावधि ज्ञानमें तो द्रव्य क्षेत्र काल और भवकी युगपत् वृद्धि होती है, ऐसा यहाँ व्याख्यान करना चाहिए। परमावधि ज्ञानियोंका प्रतिपात नहीं होनेसे वहाँ (स्वर्गमें) उनका उत्पाद संभव नहीं ।
9. देशावधि आदि भेदोंमें चारित्रादि संबंधी विशेषताएँ
ध.9/4,1,3/41/6 कधमेदस्स ओहिणाणस्स जेट्ठदा। देसोहिं पेक्खिदूणमहाविसयत्तादो। मणपज्जवणाणं वसंजदेसु चेव समुप्पत्तीदो, सगुप्पण्णभवे चेव केवलणाणुप्पत्तिकारणत्तादो। अप्पडिवादित्तादो वा जेट्ठादा।
= प्रश्न-इस (परमावधि) अवधिज्ञानके ज्येष्ठपना कैसे है? उत्तर-चूंकि यह परमावधिज्ञान देशावधिकी अपेक्षा महा विषय वाला है, मनःपर्ययज्ञानके समान संयत मनुष्योंमें ही उत्पन्न होता है, अपने उत्पन्न होनेके भवमें ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है और अप्रतिपाती है। इसलिए उसके ज्येष्ठपना संभव है।
ध.13/5,5,59/323/8 तं मिच्छत्तं पि गच्छेज्ज असंजमं पि गच्छेज्ज अविरोहादो।
= उस (देशावधि) के होनेपर जीव मिथ्यात्व को भी प्राप्त होता है, और असंयमको भी प्राप्त होता है, क्योंकि ऐसा होनेमें कोई विरोध नहीं है।
गो.जी./मू.व.टी/375/803 पडिवादी देसोही अप्पडिवादी हवंति सेसा ओ। मिच्छत्तं अविरमणं ण य य पडिवज्जदि चरिमदुगे ॥375॥ सम्यक्त्वचारित्राभ्यां प्रच्युत्य मित्यात्वासंयमयोः प्राप्तिः प्रतिपातः तद्युतः प्रतिपाती, स तु देशावधिरेव भवति।...परमावधिसर्वावधिद्विके जीवाः नियमेन मिथ्यात्वं अविरमणं च न प्रतिपद्यंते ततः कारणात् तौ द्वावपि अप्रतिपातिनौ। देशावधिज्ञानं प्रतिपाति अप्रतिपाति च इति निश्चितं।
= प्रतिपाती कहिए सम्यक्त्व व चारित्रसौं भ्रष्ट होई मिथ्यात्व व असंयमकौं प्राप्त होना, तीहि संयुक्त जो होई सो प्रतिपाती कहिए। देशावधिवाला तौ कदाचित् सम्यक्त्व चारित्रसौं भ्रष्ट होई मिथ्यात्व असंयमकौं प्राप्त हो है। अर परमावधि सर्वावधि दोय ज्ञानविषै वर्तमान जीव सो निश्चयसौ मिथ्यात्व अर अविरतिकौं प्राप्त न हो है जातै देशावधि तौ प्रतिपाती भी है, और अप्रतिपाती भी है, परमावधि सर्वावधि अप्रतिपाती ही हैं।
7. अवधिज्ञानका स्वामित्व
1. सामान्य रूपसे अवधि चारों गतियोंमें संभव है
स.सि.1/25/132/9 अवधिः पुनश्चातुर्गतिकेष्विति।
= अवधिज्ञान चारों गतियोंके जीवोंको होता है।
(रा.वा.1/25/87/1)
2. भवप्रत्यय केवल देव नारकियों व तीर्थंकरोंके होता है
त.सू./1/21 भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणां ॥21॥
= भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है।
(ष.ख/5,5/सू.54/293) (स.सा./1/27/26)
ध.13/5,5,53/291/2 सामण्णणिद्देसे संते सम्माइट्ठि-मिच्छाइट्ठीणमो, हिणाणं पज्जत्तभवपच्चइयं चेवे त्ति कुदो णव्वदे। अपज्जत्तेव णेरइएसु विहंगणाणपडिसेहण्णहाणुववत्तीदो।
= प्रश्न-देवों और नारकियोंका अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है, ऐसा सामान्य निर्देश होनेपर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टियोंका अवधिज्ञान पर्याप्त भवके निमित्तसे ही होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? उत्तर-क्योंकि अपर्याप्त देवों और नारकियोंके विभंग ज्ञानका जो प्रतिषेध किया है वह अन्यथा बन नहीं सकता।
गो.जी./मू./371/798 भवपच्चइगो सुरणिरयाणं तित्थेवि सव्व अंगुत्थो।
गो.जी./जी.प्र./371/799/4 तत्र भवप्रत्ययावधिज्ञानं सुराणां नारकाणां चरमभवतीर्थकराणां च संभवति।
= भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवनिकै नारकीनिकै अर चरमशरीरी तीर्थंकर देवनिकै पाईये है।
3. गुणप्रत्यय केवल मनुष्य व तिर्यंचोमें ही होता है
ष.ख.13/5,5/सू.55/293 जं तं गुणपच्चइयं तं तिरिक्ख-मणुस्साणं ॥55॥
= जो गुण प्रत्यय अवधिज्ञान है वह तिर्यंचों और मनुष्योंके होता है।
(गो.जी./मू./371/798) (त.सा.1/27/26)
त.मू.1/22 क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥22॥
= क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान छः प्रकार है, जो शेष अर्थात् तिर्यंचो और मनुष्योंके होता है।
4. भवप्रत्यय ज्ञान सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि दोनोंको होता है
ध.13/5,5,53/290/10 सम्मत्तेण वि मिच्छाइट्ठीसु पज्जपत्तपदेसु ओहिणाणुप्पत्तिदंसणादो। तम्हा तमोहिणाणं भवपच्चइयं चेव।
= सम्यक्त्वसे भी पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंके अवधिज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए वहाँ उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान भव प्रत्यय ही है।
5. गुणप्रत्यय अवधिज्ञान केवल सम्यग्दृष्टियोंको ही होता है
ष.ख.1/1,1/सू.120/364 आभिणिबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणमसंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ॥120॥
= आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान असंयत् सम्यग्दृष्टियोंसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं ॥120॥
(गो.जी./जी.प्र./724/1160/7)
स.सि.1/22/127/6 यथोक्तसम्यग्दर्शनादिनिमित्तसंनिधाने सति शांतक्षीणकर्मणां तस्योपलब्धिर्भवति।
= यथोक्त सम्यग्दर्शनादि निमित्तोंके मिलनेपर जिनके अवधिज्ञानावरण कर्म शांत और क्षीण हो गया है (अर्थात् क्षयोपशम प्राप्त हो गया है) उनके यह उपलब्धि या सामर्थ्य होती है
(रा.वा./1/22/2/81/10)।
ध.13/5,5,53/291/10 अणुव्रत-महाव्रतानि सम्यक्त्वाधिष्ठानानि गुणः कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद् गुणप्रत्ययकम्।
= सम्यक्त्वसे अधिष्ठिति अणुव्रत और महाव्रत गुण जिस अवधिज्ञानके कारण है वह गुणपत्यय अवधिज्ञान है।
पं.का./ता.वृ.43/प्रक्षेपक गा.3/86 त्रयोऽप्यवधयो विशिष्टसम्यक्त्वादिगुणेन निश्चयेन भवंति।
= देशावधि, परमावधि व सर्वावधि ये तीनों ही गुणप्रत्यय अवधिज्ञान निश्चयसे विशिष्ट सम्यक्त्वादि गुणोंके द्वारा होते हैं।
(गो.जी./जी.प्र./374/801/13)
6. उत्कृष्ट देशावधि मनुष्योंमें तथा जघन्य मनुष्य व तिर्यंच दोनोंके संभव है - देव नारकीमें नहीं
ष.ख.13/5,5,59/सूत्र गाथा 17/327 उक्कस्स माणुसेसु त माणुस तेरिच्छए जहण्णोही।
ध.13/5,5,59/327/5 उक्कस्सओहिणाणं तिरिक्खेसु देवेसु णेरइएसु वा ण होदि किंतु मणुस्सेसु चेव होदि। जहण्णमोहिणाणं देवणेरइएसु ण होदि किंतु मणुस्सतिरिक्खसम्माइट्ठीसु चेव होदि।
= उत्कृष्ट अवधिज्ञान मनुष्योंके तथा जघन्य अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंच दोनोंके होता है। उत्कृष्ट अवधिज्ञान तिर्यंच देव और नारकियोंके नहीं होता किंतु मनुष्योंके ही होता है। जघन्य अवधिज्ञान देव और नारकियोंके नहीं होता, किंतु सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यंचोंके ही होता है।
(गो.जी./जी.प्र./374/808/8) (रा.वा/1/22/4/82,34-83/3)
7. उत्कृष्ट देशावधि उत्कृष्ट संयतोंको ही होता है पर जघन्य असंयत सम्यग्दृष्टि आदिको भी संभव है
रा.वा.1/22/4/83/3 एषो देशावधिरुत्कृष्टो मनुष्याणां संयतानां भवति।
= यह उत्कृष्ट देशावधि संयत मनुष्योंको ही होता है।
ध.13/5,5,59/327/6 उक्कस्समोहिणाणं महारिसीणं चेव होदि (...जहण्णमोहिणाणं-मणुस्सतिरिक्खसम्माइट्ठीसु चेव होदि।
= उत्कृष्ट अवधिज्ञान महर्षियोंके ही होता है। जघन्य अवधिज्ञान सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यंचोंके ही होता है।
गो.जी./जी.प्र.374/802/8 देशावधेर्ज्ञानस्य जघन्यं नरतिरश्चोरेव संयतासंयतयोः भवति. न देवनारकयोः। देशावधेः सर्वोत्कृष्टं तु नियमेन मनुष्यगतिसकलसंयते एव भवति नेतरगतित्रये तत्र महाव्रता भवात्।
= देशावधिका जघन्य भेद संयमी व असंयमी (सम्यग्दृष्टि) मनुष्य तिर्यंच विषै ही हो है, देव नारीक विषै न हो है। बहुरि देशावधिका उत्कृष्ट भेद संयमी महाव्रती मनुष्य विषै ही हो है जाते और तीन गतिविषै महाव्रत संभवै नाहीं।
गो.जी./जी.प्र.373/801/13 देशावधिरपि गुणे दर्शनशुद्धयादिलक्षणे सति भवति।
= देशावधि भी दर्शन विशुद्धि आदि लक्षणवाले सम्यग्दर्शनादि गुण होते संतै हो है।
8. मिथ्यादृष्टीयोंमें भी अवधिज्ञानकी संभावना
ध.13/5,5,53/290/8 मिच्छाइट्ठिसु ओहिणाणं णत्थि त्ति वोत्तुं ण जुत्तं, मिच्छत्तसहचरिदओहिणाणस्सेव विहंगणाणववएसादो।
= मिथ्यादृष्टियोंके अवधिज्ञान नहीं होता, ऐसा कहना युक्त नहीं क्योंकि, मिथ्यात्व सहचरितं अवधिज्ञानकी ही विभंग ज्ञान संज्ञा है।
गो.जी./जी.प्र.305/657/5 मिथ्यादर्शनकलंकितस्य जीवस्य अवधिज्ञानावरणीयवीर्यांतरायक्षयोपशमजनितं..विपरीतग्राहकं तिर्यंग्मनुष्यगत्योः तीव्रकायक्लेशद्रव्यसंयमरूपगुणप्रत्ययं, चशब्दाद्दिवनारकगत्योर्भवप्रत्ययं च...अवधिज्ञानं विभंग इति।
= मिथ्यादृष्टि जीवनिकैं अवधिज्ञानावरण वीर्यांतरायके क्षयोपशमतै उत्पन्न भया ऐसा वि कहिए विशिष्ट जो अवधिज्ञान ताका भंग कहिए विपरीत भाव सो विभंग कहिए। सो तिर्यंच मनुष्य गतिविषै तो तीव्र कायक्लेशरूप द्रव्य संयमादिककरि उपजै है सो गुण प्रत्यय ही है। और `च' शब्द से देव नारक गतियोंमें भव प्रत्यय हो हैं।
9. परमावधि व सर्वावधि चरमशरीरी संयतोंमें ही होता है
रा.वा.1/22/4/83/11 स एष त्रिविधोऽपि परमावधिः उत्कृष्टचारित्रयुक्तस्यैव भवति नान्यस्य।...
= यह तीनों प्रकारका (जघन्य, मध्यव व उत्कृष्ट) परमावधिज्ञान उत्कृष्ट चारित्र युक्तके ही होता है अन्यके नहीं।
ध.13/5,5,59/323/4 परमोहिणाणं संजदेसु चेव उप्पज्जदि उप्पण्णे हि परमोहिणाणे सो जीवो मिच्छत्तं ण कयावि गच्छदि, असंजमं वि णो गच्छदि त्ति भणिदं होदि।..सव्वमोहिणाणं। एदं पि णिग्गंथाणं चेव होदि।
= ...परमावधि ज्ञानकी उत्पत्ति संयतोंके ही होती है। परमावधिज्ञानके उत्पन्न होनेपर वही जीव न कभी मिथ्यात्वको प्राप्त होता है और न कभी असंयमको भी प्राप्त होता है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है।...वह सर्वावधिज्ञान भी निर्ग्रंथोंके ही होता है।
(ध./9/4,1,3/41/7)
पं.का./ता.व.43 की प्रक्षेपक गा.3 की टीका 86/24 परमावधि-सर्वावधिद्वयं...चरमदेहतपोधनानां भवति। तथा चोक्तं। ``परमोहि सव्वोहि चरमसरीरस्स विरदस्स।
= परमावधि और सर्वावधि ये दोनों चरमशरीरी तपोधनोंके ही होते हैं। जैसे कि कहा भी है - ``परमावधि व सर्वावधि चरम शरीरी विरत अर्थात् संयतके होते है।
गो.जी./जी.प्र./373/801 देवनारकयोर्गृहस्थतीर्थंकरस्य च परमावधिसर्वावध्योरसंभवात्।
= देव, नारकी अर गृहस्थ तीर्थंकर इनके परमावधि व सर्वावधि होई नाहीं।
10. अपर्याप्तावस्थामें अवधिज्ञान संभव है पर विभंग नहीं
ष.ख.1/1,1/सू.118/363 पज्जत्ताणं अत्थि, अपज्जत्ताणं णत्थि।
= विभंग ज्ञान पर्याप्तकोंके ही होता है, अपर्याप्तकोंके नहीं होता ॥118॥
स.सि.1/22/127/5 न ह्यसंज्ञिनामपर्याप्तकानां च तत्सामर्थ्यमस्ति।
= असंज्ञी और अपर्याप्तकके यह सामर्थ्य नहीं है (क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान असंज्ञी व अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न नहीं होता है।)
ध.13/5,5,53/291/7 तिरिक्खमणुस्सेसु समत्तगुणेणुप्पण्णस्स तत्थावट्ठाणुवलंभादो।
= तिर्यंच और मनुष्योमें सम्यक्त्व गुणके निमित्तसे उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान देवों और नारकियोंके अपर्याप्त अवस्थामें भी पाया जाता है।
(विशेष देखें सत् प्ररूपणा)
11. संज्ञी संमूर्च्छनोंमें अवधिज्ञानकी संभावना असंभावना
ध.5/1,6,234/115/11 एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ सम्मूर्च्छिमपज्जतएसु उववण्णो। छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो; विससंतो, विसुद्धो, वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो तदो अंतोमुहुत्तेण ओहिणाणी जादो।
= मोहकर्म की अट्ठाईस प्रकृतिकी सत्तावाला कोई एक जीव संज्ञी सम्मूर्छिम पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो, विश्राम ले, विशुद्ध हो, वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पश्चात् अंतुर्मुहूर्तसे अवधिज्ञानी हो गया।
ध.5/1,6,237/118/11 सण्णिसम्सुच्छिमपरज्जत्तएसु संजमासंजमस्सेव ओहिणाणुवसमसम्मत्ताणं संभवाभावादो।...ओहिणाणाभावो कुदो णव्वदे। सम्मुच्छिमेसु ओहिणाणमुप्पाइय अंतरपरूवय आइरियामणुवलंभादो।...गब्भोवक्कतिएसु गमिदअट्ठतालीस (-पुव्वकोडि-) वस्सेसु ओहिणाणमुप्पादिय किण्ण अंतराविदो। ण, तत्थ वि ओहिणाणसंभवं परूवयंतवक्खाणाइरियाणमभावादो।
= प्रश्न-संज्ञी सम्मूर्च्छिम पर्याप्तकोंमें संयमासंयमके समान अवधिज्ञान और उपशम सम्यक्त्वकी संभावताका अभाव है। प्रश्न-संज्ञी सम्मूर्च्छिक जीवोमें अवधिज्ञानका अभाव कैसे जाना जाता है? उत्तर-क्योंकि, अवधिज्ञान को उत्पन्न कराके अंतरके प्ररूपणा करनेवाले आचार्योंका अभाव है। अर्थात् किसी भी आचार्यने इस प्रकार अंतरकी प्ररूपणा नहीं की। प्रश्न-गर्भोत्पन्न जीवोंमें व्यतीतकी गयी अड़तालीस पूर्व कोटी वर्षोंमें अवधिज्ञान उत्पन्न करके अंतरको प्राप्त क्यों नहीं कराया? उत्तर-नहीं, क्योंकि उन में भी अवधिज्ञानकी संभवताको प्ररूपणा करनेवाले व्याख्यानाचार्योंका अभाव है।
12. अपर्याप्तावस्थामें अवधिज्ञानके सद्भाव और विभंगके अभाव संबंधी शंका
ध.1/1,1,118/362/9 अथ स्याद्यदि देवनारकाणां विभंगज्ञानं भवनिबंधनं भवेदयपर्याप्तकालेऽपि तेन भवितव्यं तद्धेतोर्भवस्य सत्त्वादिति न,`सामान्यबोधनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठंते' इति न्यायात् नापर्याप्तिविशिष्टं देवनारकत्वं विभंगनिबंधनमपि तु पर्याप्तिविशिष्टमिति। ततो नापर्याप्तकाले तदस्तीति सिद्धम्।
= प्रश्न-यदि देव और नारकियोंके विभंगज्ञान भव-प्रत्यय होता है तो अपर्याप्तकालमें भी वह हो सकता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें भी विभंगज्ञानके कारणरूप भवकी सत्ता पायी जाती है? उत्तर-नहीं, क्योंकि `सामान्य विषयका बोध करानेवाले वाक्य विशेषोंमें रहा करते हैं' इस न्यायके अनुसार अपर्याप्त अवस्थासे युक्त देव और नारक पर्याय विभंगज्ञानका कारण नहीं है, किंतु पर्याप्त अवस्थासे युक्त ही देव और नारक पर्याय विभंगज्ञानका कारण है, इसलिए अपर्याप्तकालमें विभंग ज्ञान नहीं होता है, यह बात सिद्ध हो जाती है।
ध.13/5,5,53/291/3 विहंगणाणस्सेव अपज्जत्तकाले ओहिणाणस्स पडिसेहो किण्ण कीरदे। ण उप्पत्तिं पडि तस्स वि तत्थ विहंगणाणस्सेव पडिसेहदंसणादो।... ण च तत्थ ओहिणाणस्सच्चंताभावो, तिरिक्खमणुस्सेसु सम्मत्तगुणेणुप्पण्णस्स तत्थावट्ठाणुवलंभादो। ण विहंगणाणस्स एस कमो, तक्कारणाणुकंपादीणं तत्थाभावेण तदवट्ठाणाभावादो।
= प्रश्न-विभंगज्ञानके समान अपर्याप्तकालमें अवधिज्ञानका निषेध क्यों नहीं करते। उत्तर-नहीं क्योंकि, उत्पत्तिकी अपेक्षा उसका भी वहाँ विभंगज्ञानके समान ही निषेध देखा जाता है। ...पर इसका यह अर्थ नहीं कि देवों और नारकियोंके अपर्याप्त अवस्थामें अवधिज्ञानका अत्यंत अभाव है, क्योंकि तिर्यंचों और मनुष्योंमें सम्यक्त्व गुणके निमित्तसे उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान देवों और नारकियों के अपर्याप्त अवस्थामें भी पाया जाता है। प्रश्न-विभंगज्ञानमें भी यह क्रम लागू हो जायेगा? उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अवधिज्ञानके कारणभूत अनुकंपा आदिका अभाव होनेसे अपर्याप्तावस्थामें वहाँ उसका अवस्थान नहीं रहता।
8. अवधिज्ञानकी विषय सीमा
1. द्रव्यकी अपेक्षा रूपीको ही जानता है
त.सू./1/27 रूपिष्ववधेः ॥27॥
= अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति रूपी पदार्थोंमें होती है।
स.सि./1/27/134/10 रूपिष्वेवावधेर्विषयनिबंधनो नारूपिष्विति नियमः क्रियते।
= `रूपीं पदार्थोंमें ही अवधिज्ञानका विषय संबंध है अरूपी पदार्थोमें नहीं, यह नियम किया गया है।
(ध.13/5,5,21/211/2)
ध.9/4,1,3/44/6 एसो रूवयदसद्दो मज्झदीवओ त्ति हेट्ठोवरिमोहीणाणेसु सव्वत्थ जोजेयव्वो? एदेण दव्वपरूवणा कदा।
= यह रूपगत शब्द चूंकि मध्य दीपक है, अतएव इसे अधस्तन और उपरिम अवधिज्ञानोंमें (अर्थात् देशावधि, परमावधि व सर्वावधि तीनोंमें) जोड़ लेना चाहिए। इस व्याख्यान द्वारा द्रव्य प्ररूपणा की गयी। नोट :- यहाँ रूपीका अर्थ पुद्गल ही न समझना बल्कि कर्म व शरीरसे बद्ध जीव द्रव्य व उसके संयोगी भाव भी समझना
(देखें आगे अवधिज्ञान - 8.6)
2. द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा अनंतको नहीं जानता
ध.9/4,1,2/27/8 ण च ओहिणाणमुक्कस्सं पि अणंतसंखावगमक्खं आगमे तहीवदेसाभावादो। दव्वट्ठियाणंतपज्जाए पच्चक्खेण अपरिच्छिदंतो ओही कधं पच्चक्खेण दव्वं परिछिंदेज्ज। ण, तस्स, पज्जायावयवगयाणंतसंखं मोत्तूण असंखेज्जपज्जायावयवविसिट्ठदव्वपरिच्छेदयत्तादो।
= उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनंत संख्याके जाननेमें समर्थ नहीं है. क्योंकि, आगममें वैसे उपदेशका अभाव है। प्रश्न-द्रव्यमें स्थित अनंत पर्यायोंको प्रत्यक्षसे न जानता हुआ अवधिज्ञान प्रत्यक्षद्रव्यको कैसे जानेगा? उत्तर-नहीं, क्योंकि, अवधिज्ञान पर्यायोंके अवयवोमें रहनेवाली अनंत संख्याको छोड़कर असंख्यात पर्यायावयवोंसे विशिष्ट द्रव्यका ग्राहक है।
3. क्षेत्रप्ररूपणाका स्पष्टीकरण
ध.9/4,1,2/23/1 जहण्णोहिणाणी एगोलिए चेव जाणदि तेण ण सुत्तविरोहो त्ति के वि भणंति। णेदं पि घडदे, चक्खिंदियणाणादो वि तस्स जहण्णत्तप्पसंगादो। कुदो। चक्खिंदियणाणेण संखेज्जसूचिअंगुलवित्थारुस्सेहायामखेत्तब्भंतरट्ठिदवत्थुपरिच्छेददं सणादो, एदस्स जहण्णोहिखेत्तायामस्स असंखेज्जजोयणत्तुवलंभादो च। ...ण च सो कुलसेल-मेरुमहीयर-भवणविमाणट्ठपुढवी-देव-विज्जाहर-सरड-सरिसवादीणि वि पेच्छइ, एदेसिमेगागासे अवट्ठाणाभावादो। ण च तेसिमदमवं पि जाणादि, अविण्णादे अवयविम्हि एदस्स एसो अवयवो त्ति णादुमसत्तीदो। जदि अक्कमेण सव्वं घणलोगं जाणादि तो सिद्धो णो पक्खो, णिप्पडिवक्खत्तादो। सुहुमणिगोदोगाहणाए घणपदरागारेण ठइदाए आगासवित्थाराणेगोलिं चेव जाणदि त्ति के वि भणंति। णेदं पि घडदे, जद्देहं सुहुमणिगोदजहण्णोगाहणा तद्देहे जहण्णोहि खेत्तमिदि भणंतेण गाहासुत्तेण सह विरोहादो। ण चाणेगोलीपरिच्छेदो छदुमत्थाणं विरुद्धो, चक्खिंदियणाणेगोलिंठियपोग्गलक्खंदपरिच्छेदुवलंभादो।
= दृष्टि 1. जघन्य अवधिज्ञानी एक श्रेणीको ही जानता है, अतएव सूत्र विरोध नहीं होगा, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं परंतु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर चक्षु इंद्रियजंय ज्ञानकी अपेक्षा भी उसके जघन्यताका प्रसंग आवेगा। कारण कि चक्षु इंद्रियजंयज्ञानसे संख्यात सुच्यंगुल विस्तार, उत्सेध और आयामरूप क्षेत्रके भीतर स्थित वस्तुका ग्रहण देखा जाता है। तथा वैसा माननेपर इस जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रका आयाम असंख्यात योजन प्रमाण प्राप्त होगा।
इसके अतिरिक्त वह कुलाचल, मेरुपर्वत, भवनविमान, आठ पृथिवियों, देव, विद्याधर, गिरगिट और सरीसृपादिकोंको भी नहीं जान सकेगा, क्योंकि इनका एक आकाश (श्रेणी) में अवस्थान नहीं है। और वह उनके अवयवको भी नहीं जानेगा, क्योंकि, अवयवी के अज्ञात होनेपर `यह इसका अवयव है' इस प्रकार जाननेकी शक्ति नहीं हो सकती। यदि वह युगपत् सब घनलोकको जानता है, तो हमारा पक्ष सिद्ध है, क्योंकि वह प्रतिपक्षसे रहित है। दृष्टि 2. सूक्ष्म निगोद जीवकी अवगाहनाको घनप्रतराकारसे स्थापित करनेपर एक आकाश विस्ताररूप अनेक श्रेणीको ही जानता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परंतु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा होनेपर `जितनी सूक्ष्म निगोदकी जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिका क्षेत्र है,' ऐसा कहनेवाले गाथासूत्रके साथ विरोध होगा। और छद्मस्थोंके अनेक श्रेणियोंका ग्रहण विरुद्ध नहीं है, क्योंकि चक्षु इंद्रिजंयज्ञानसे अनेक श्रेणियोंमें स्थित पुद्गलस्कंधोंका ग्रहण पाया जाता है।
ध.13/5,5,59/302-302/6 ण च एगोली जहण्णोगाहणा होदि, समुदाए वक्कपरिसमत्तिमस्सिदूण तत्थतणसव्वागासपदेसाणं गहणादो। ...एदं जहण्णोगाहणक्खेत्तं एगागासपदेसोलीए रचेदूण तदंते ठ्ठिदं जहण्णदव्वं जाणादि त्ति किण्ण घेप्पदे। ण, जहण्णोगाहणादो असंखेंजगुणजहण्णोहिखेत्तप्पसंगादो। जं जहण्णोहिणाणेण अवरुद्धखेत्तं तं जहण्णोहिखेत्तं णाम। ...जत्तिया जहण्णोगाहणा तत्तियं चेव जहण्णोहिखेत्तमिदि सुत्तेण सह विरोहादो। ...ण च ओहिणाणी एगागासगुचीए जाणदि त्ति वोत्तु जुत्तं, जहण्णमदिणाणादो वि तस्स जहण्णत्तप्पसंगादो जहण्णव्वअवगमोवायाभावादो च। तम्हा जहण्णोहिणाणेण अवरुद्धखेत्तं सव्वमुच्चिणिदूण घणपदरागारेण ट्ठइदे सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणप्पमाणं होदि त्ति घेत्तव्वं। जहण्णोहिणिबंधणस्स खेत्तरस को विक्खंभो को उस्सेहो को वा आयामो त्ति भणिदे णत्थि एत्थ उवदेसो, किंतु ओहिणिबद्धक्खेत्तस्स पदरघणागारेण ठ्ठइदस्स पमाणमुस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो ति उवएसो।
= एक आकाश पंक्ति जघन्य अवगाहना होती है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, समुदाय रूप में वाक्यकी परिसमाप्ति इष्ट है। इसलिए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी अवगाहनामें स्थित सब आकाश प्रदेशोंका ग्रहण किया है। ...प्रश्न-इस जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रको एक आकाशप्रदेशपंक्तिरूपसे स्थापित करके उसके भीतर स्थित जघन्य द्रव्यको जानता है, ऐसा यहाँ क्यों नहीं ग्रहण करते? उत्तर-नहीं, क्योंकि ऐसा ग्रहण करनेपर जघन्य अवगाहनासे असंख्यातगुणे जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रका प्रसंग प्राप्त होता है। जो जघन्य अवधिज्ञानसे अवरुद्ध क्षेत्र है वह जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र कहलाता है। किंतु यहाँ पर वह जघन्य अवगाहनासे असंख्यात गुणा दिखाई देता है। ..."जितनी जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र है ऐसा प्रतिपादन करने वाले सूत्रके साथ उक्त कथनका विरोध होता है। ...अवधिज्ञानी एक आकाशप्रदेशसूचीरूपसे जानता है, यह कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर वह जघन्य मतिज्ञानसे भी जघन्य प्राप्त होता है और जघन्य द्रव्यके जाननेका अन्य उपाय भी नहीं रहता। इसलिए जघन्य अवधिज्ञानके द्वारा अवरुद्ध हुए सब क्षेत्रको उठाकर घनप्रतरके आकाररूपसे स्थापित करनेपर सूक्ष्म निगोद लब्धपर्याप्तक जीवकी जघन्य अवगाहना प्रमाण होता है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न-जघन्य अवधिज्ञानसे संबंध रखनेवाले क्षेत्रका क्या विष्कंभ है, क्या उत्सेध है, और क्या आयाम है? उत्तर-इस संबंध में कोई उपदेश उपलब्ध नहीं होता। किंतु घनप्रतराकाररूपसे स्थापित अवधिज्ञान संबंधी क्षेत्रका प्रमाण उत्सेध घनांगुलके असंख्यातवैं भाग है, यह उपदेश अवश्य ही उपलब्ध होता है।
ध.9/4,1,2/22/8 सुहुमणिगोदजहण्णोगाहणमेत्तमेदं सव्वं हि जहण्णोहिक्खेत्तमोहिणाणिजीवस्स तेण परिच्छिज्जमाणदव्वस्स य अंतरमिदि के वि आइरिया भणंति। णेदं घडदे, सुहुमणिगोदजहण्णोगाहणादी जहण्णोहिखेत्तस्स असंखेज्जगुणत्तप्पसंगादो। कधमसंखेज्जगुणत्तं। जहण्णोहिणाणविसयवित्थारूस्सेहेहि आयामे गुणिज्जमाणे तत्तो असंखेज्जगुणत्तसिद्धीदो। ण चासंखेज्जगुणत्तं संभवदि, जद्देहि सुहुमणिगोदस्स जहण्णोगाहणा तद्देहिं चेव जहण्णेहिखेत्तमिदि भणंतेण गाहासुत्तेण सह विरोहादो।
= सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहना मात्र यह सब ही जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र, अवधिज्ञानी जीव और उसके द्वारा ग्रहण किये जानेवाले द्रव्यका अंतर है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परंतु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेसे सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहनासे जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रके असंख्यातगुणे होनेका प्रसंग आवेगा। प्रश्न-असंख्यातगुणा कैसे होगा? उत्तर-क्योंकि जघन्य अवधिज्ञानके विषयभूत क्षेत्रके विस्तार और उत्सेधसे आयामको गुणा करनेपर उससे असंख्यात गुणत्व सिद्ध होता है। और असंख्यात गुणत्व संभव है नहीं, क्योंकि, `जितनी सूक्ष्म निगोदकी अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिका क्षेत्र है;' ऐसा कहनेवाले गाथा सूत्रके साथ विरोध आता है।
ध.9/4,1,4/48/7 परमोहिउक्कस्सखेत्तं तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे सव्वोहए उक्कस्सखेत्तं होदि। सव्वोहिउक्कस्सखेत्तुप्पायणट्ठं परमोहिउक्कस्सखेत्तं तिस्से चेव चरिम अणवट्ठिदगुणगारेण आवलियाए असंखेज्जदिभागपदुप्पण्णेण गुणिज्जदि त्ति के वि भणंति। तण्णघडदे, परियम्मे वुत्तओहिणिबद्धखेत्ताणुप्पत्तीदो।
= परमावधि के उत्कृष्टक्षेत्रको उसके योग्य असंख्यातलोकोंसे गुणित करनेपर सर्वावधिक उत्कृष्टक्षेत्र होता है। सर्वावधिके उत्कृष्टक्षेत्रको उत्पन्न करानेके लिए परिमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको आवलीके असंख्यातवें भागसे उत्पन्न उसके ही अंतिम अनवस्थित गुणाकारसे गुणा किया जाता है, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं, किंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा माननेपर परिकर्ममें कहे हुए अवधिसे निबद्ध क्षेत्र नहीं बनते।
4. देवोंके ज्ञानकी क्षेत्रप्ररूपणा परिमाण-नियामक नहीं स्थान नियामक है
गो.जी./जी.प्र.432/853/7 इदं क्षेत्रपरिमाणनियामकं न किंतु तत्रतनस्थाननियामकं भवति। कुतः अच्युतांतानां विहारमार्गेण अन्यत्रगतानां तत्रैव क्षेत्रे तदवध्युत्पत्त्यम्युगमात्।
= ऐसा इहाँ क्षेत्रका परिमाण कीया है, सो स्थानका नियमरूप जानना। क्षेत्रका परिमाण लीये नियमरूप न जानना। जातै अच्युत स्वर्ग पर्यंतके वासी विहारकरि अन्य क्षेत्रको जाँइ अर तहाँ अवधि होइ तो पूर्वोक्त स्थानकपर्यंत ही होइ। ऐसा नाहीं जो प्रथम स्वर्गवाला पहिले नारक जाइ और तहाँ सेती डेढ राजू नीचैं और जानै। सौधर्मद्विकके प्रथम नरक पर्यंत अवधिक्षेत्र है सो तहाँ भी तिष्ठता तहाँ पर्यंत क्षेत्रको ही जानै वैसे सर्वत्र जानना।
5. कालकी अपेक्षा अवधि त्रिकालग्राही
ध.6/1,9-1,14/27/3 ओहिणाणम्मि पक्कक्खेण वट्टमाणासेसपज्जायविसिट्ठवत्थुपरिच्छित्तीए उपलंभा, तीदाणाद-असंखेज्जपज्जायविसिट्ठवत्थु दंसणादो च।
= अवधिज्ञानमें प्रत्यक्षरूपसे वर्तमान समस्त पर्यायविशिष्ट वस्तुका ज्ञान पाया जाता है. तथा भूत और भावी असंख्यातपर्याय-विशिष्ट वस्तुका ज्ञान देखा जाता है।
(ध.9/4,1,44/127/8), (ध.13/5,5,59/305/3; 308/9; 310/11) (ध.15/8/2)
6. भावकी अपेक्षा पुद्गल व संयोगी जीवकी पर्यायोंको जानता है
स.सि.1/17/134/10 रूपिष्वपि भवन्न सर्वपर्यायेषु, स्वयोग्येष्वेवेत्यवधारणार्थमसर्वपर्यायेष्वित्यभिसंबंध्यते।
= रूपी पदार्थों में होता हुआ भी उनकी सब पर्यायोंमें नहीं होता किंतु स्वयोग्य सीमित पर्यायोंमें ही होता है इस प्रकारका निश्चय करनेके लिए `असर्वपर्यायेषु' पदका संबंध होता है।
रा.वा.1/27/4/88/19 `असर्वपर्यायेषु' इत्येतद्ग्रहणमनुवर्तते। ...ततो रूपिषु पुद्गलेषु प्रागुक्तद्रव्यादिपरमाणुषु, जीवपर्यायेषु औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकेषूत्पद्यतेऽवधिज्ञानम् रूपिद्रव्यसंबंधात् न क्षायिकपारिणामिकेषु नापि धर्मास्तिकायादिषु तत्संबंधाभावात्।
= इस सूत्रमें `असर्व पर्याय की अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए। अर्थात् पहले कहे गये रूपी द्रव्योंकी कुछ पर्यायोंको (देखो आगे विषय प्ररूपक चार्ट) और जीवके औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भावोंको अवधिज्ञान विषय करता है, क्योंकि इनमें रूपी कर्मका संबंध है। उसका संबंध न होनेके कारण वह क्षायिक व परिणामिक भाव तथा धर्म अधर्म आदि अरूपी द्रव्यों (व उनकी पर्यायों) को नहीं जानता।
ध.9/4,1,2/27/5 जमप्पणोजाणिददव्वं तस्स अणंतेसु वट्टमाणपज्जाएसु तत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागेमेत्तपज्जाया जहण्णोहिणाणेण विसईकया जहण्णभावो। के वि आइरिया जहण्णदव्वस्सुवरिट्ठिदरूवरस-गंध-फासादिसव्वपज्जाए जाणदि त्ति भणंति तण्ण घडदे, तेसिमाणंतयादो। ...तीदाणागयपज्जायाणं किण्ण भावववएसो। ण, तेसिं कालत्तब्भुवगमादो। एवं जहण्णभावपरूवणा कदा।
= अपना जो जाना हुआ द्रव्य है उसकी अनंत वर्तमान पर्यायोंमें-से जघन्य अवधिज्ञानके द्वारा विषयीकृत आवलीके असंख्यात भागमात्र पर्यायें जघन्य भाव है। कितने ही आचार्य जघन्य द्रव्यके ऊपर स्थित रूप, रस, गंध एवं स्पर्श आदि रूप सब पर्यायोंको उक्त अवधिज्ञान जानता है, ऐसा कहते हैं। किंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, वे अनंत हैं। और उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनंत संख्याके जाननेमें समर्थ नहीं है। प्रश्न-अतीत व अनागत पर्यायोंकी `भाव' संज्ञा क्यों नहीं है? उत्तर-नहीं है, क्योंकि, उन्हें काल स्वीकार किया गया है। इस प्रकार जघन्य भावकी प्ररूपणा की गयी।
घ.15/8/3 भावदो असंखेज्जलोगमेत्तदव्वपज्जाए तीदाणागदवट्टमाणकालविसए जाणदि। तेण ओहिणाणं सव्वदव्वपज्जयविसयं ण होदि।
= भावकी अपेक्षा वह अतीत, अनागत एवं वर्तमान् कालको विषय करनेवाली असंख्यात लोक मात्र द्रव्यपर्यायोंको जानता है। इसलिए अवधिज्ञान द्रव्योंकी समस्त पर्यायोंको विषय करनेवाला नहीं है।
7. अवधिज्ञानके विषयभूत क्षेत्रादिकोंमें वृद्धि-हानिका क्रम
ष.ख.13/5,5,59/गाथा सूत्र 8/309 कालो चदूण्ण बुड्ढी। कालो भजिदव्वो खेत्तवुड्ढीए। वुड्ढीए दव्व-पज्जए भजिदव्वो खेत्तकाला दु।
(म.ब./पु.1/गा.सू.7/22)
ध.13/5,5,59/310/4 एसो गाहत्थो देसोहीए जोजेयव्वा, ण परमोहीए। ...परमोहीए पुण दव्व-खेत्त-काल-भावाणमक्कमेण वुड्ढी होदि त्ति वत्तव्वा।
= काल चारों ही (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) वृद्धियोंके लिए होता है। क्षेत्रकी वृद्धि होने पर कालकी वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती। तथा द्रव्य और पर्यायकी वृद्धि होनेपर क्षेत्र और कालकी वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती ॥8॥
(रा.वा.1/22/4/83/21) (गो.जी./जी.प्र.412/836/11)।
नोट-इस गाथाके अर्थ की देशावधिज्ञानमें योजना करनी चाहिए, परमावधिमें नहीं। ...परमावधिज्ञानमें तो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी युगपत् वृद्धि होती है।
9. अवधिज्ञान विषयक प्ररूपणाएँ
1. द्रव्य व भाव संबंधी सामान्य नियम
ध.13/5,5,59/गा. सूत्र 3/301 ओगाहणा जहण्णा णियमा दु सुहुमणिगोदजीवस्स। जद्देही तद्देही जहण्णिया खेत्तदोओही ।3।
= सूक्ष्म निगोदलब्ध्यपर्याप्तक जीवकी जितनी जघन्य अवगाहना होती है उतना अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र है।
रा.वा.1/21/7/80/22 कालद्रव्यभावेषु कोऽवधिरिति। अत्रोच्यते-यस्य यावत्क्षेत्रावधिस्तस्य तावदाकाशप्रदेशपरिच्छिन्ने काल-द्रव्येभवतः। तावत्सु समयेष्वतीतेष्वनागतेषु च ज्ञानं वर्तते, तावत्संख्यातभेदेषु अनंतप्रदेशेषु पुद्गलस्कंधेषु जीवेषु च सकर्मेषु। भावतः स्वविषयपुद्गलस्कंधानां रूपादिविकल्पेषु जीवपरिणामेषु चौदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकेषु वर्तते।
= प्रश्न-काल द्रव्य व भावों में क्या अवधि होती है? उत्तर-जिस अवधिज्ञानका जितना क्षेत्र है उतने आकाश प्रदेशप्रमाण काल और द्रव्य होते हैं। अर्थात् उतने समयप्रमाण अतीत और अनागतका ज्ञान होता है और उतने भेदवाले अनंतप्रदेशी पुद्गलस्कंधोंके रूपादिगुणोंमें और (उतने ही कर्म स्कंध युक्त) जीवके औदयिक औपशमिक व क्षायिक भावोंमें अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। नोट-(सर्व ही प्ररूपणाओंमें यह सामान्य नियम द्रव्य व भाव व कालके संबंधमें विशेषता जाननेके लिए लागू करते रहना)।
2. नरक गतिमें देशावधिका विषय
(म.ब.1/गा.14/23) (ति.प.2/172); (रा.वा.1/21/7/80/27) (ह.पु.4/340-341) (घ.13/5,5,59/325-326) (गो.जी.मू.424/848) (त्रि.सा.202)
नाम जघन्य क्षेत्र उत्कृष्ट क्षेत्र काल द्रव्यभाव
- - ऊपर तिर्यक् नीचे - -:
रत्नप्रभा - सर्वत्र अपने बिलके शिखर तक सर्वत्र असं. कोड़ाकोणी योजन 4 कोश तक स्व स्व अंतर्मुहूर्त (विशेष दे सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार
शर्कराप्रभा - सर्वत्र अपने बिलके शिखर तक सर्वत्र असं. कोड़ाकोणी योजन 3.5 कोश तक स्व स्व अंतर्मुहूर्त (विशेष दे सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार
वालुकाप्रभा - सर्वत्र अपने बिलके शिखर तक सर्वत्र असं. कोड़ाकोणी योजन 3 कोश तक स्व स्व अंतर्मुहूर्त (विशेष दे सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार
पंकप्रभा - सर्वत्र अपने बिलके शिखर तक सर्वत्र असं. कोड़ाकोणी योजन 2.5 कोश तक स्व स्व अंतर्मुहूर्त (विशेष दे सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार
धूमप्रभा - सर्वत्र अपने बिलके शिखर तक सर्वत्र असं. कोड़ाकोणी योजन 2 कोश तक स्व स्व अंतर्मुहूर्त (विशेष दे सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार
तमःप्रभा - सर्वत्र अपने बिलके शिखर तक सर्वत्र असं. कोड़ाकोणी योजन 1.5 कोश तक स्व स्व अंतर्मुहूर्त (विशेष दे सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार
महातमःप्रभा - सर्वत्र अपने बिलके शिखर तक सर्वत्र असं. कोड़ाकोणी योजन 1 कोश तक स्व स्व अंतर्मुहूर्त (विशेष दे सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार
3. भवनत्रिक देवोंमें देशावधिका विषय
(ध.13/5,5,59/सू. 10-11/314) (म.ब.1/गा.9-10/22) (ध.9/4,1,2/8/25) (ति.प.3/177-181) (रा.वा.1/21/7/80/5) (ज.प.11/140-141) (गो.जी./मू.426-429/850)।
नाम ज. क्षेत्र उत्कृष्ट क्षेत्र काल द्रव्य-भाव
- - ऊपर तिर्यक् नीचे - -:
असुरकुमार 25 यो. ऋजुविमान का शिखर असं. कोड़ाकोड़ी योजन स्वकीय अवस्थान असं.वर्ष सर्वत्र असुरकुमारके कालका असंख्या. भाग (विशेष देखो सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
नागकुमारादि 25 यो. मेरुशिखर असं. सहस्र योजन स्वकीय अवस्थान असं. वर्ष सर्वत्र असुरकुमारके कालका असंख्या. भाग (विशेष देखो सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
8 प्रकार व्यंतर 25 यो. स्वभवन शिखर असं. को. को. योजन असं. सहस्र योजन असं. वर्ष सर्वत्र असुरकुमारके कालका असंख्या. भाग (विशेष देखो सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
1 पल्य आयु वाले व्यंतर - 1 लाख योजन (ति.प.6/99) - - असं. वर्ष सर्वत्र असुरकुमारके कालका असंख्या. भाग (विशेष देखो सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
1000 वर्षायुष्कव्यंतर 5 कोष सर्वत्र 50 कोश (ति.प.6/90) - - असं. वर्ष सर्वत्र असुरकुमारके कालका असंख्या भाग (विशेष देखो सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
ज्योतिषी 25xसं.योजन स्वविमान शिखर असं. को. को. योजन असं. सहस्र योजन असं. वर्ष सर्वत्र असुरकुमारके कालका असंख्या. भाग (विशेष देखो सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
4. कल्पवासी देवोमें देशावधिका विषय
(म.ब.1/गा.सू./11 13/22) (ध.13/5 5,59/गा.सू.12-14/316-322) (ध.9/गा. 10-12/25) (ति.प.8/685-690) (रा.वा.1/21/7/80/13) (ह.पु.6/113-117) (त्रि.सा.527) (गो.जी./मू.430-436/852-856)
नाम स्वर्ग जघन्य क्षेत्र उत्कृष्ट क्षेत्र उत्कृष्ट काल द्रव्य व भाव
- कथित स्थान के अंत तक ऊपर तिर्यक् नीचे अतीत व अनागत - - - - त्रस नाली में कथित प्रमाण कथित स्थान के अंत तक - -:
सौधर्म ईशान ज्योतिषदेव का उत्कृष्ट सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक 1.5 राजू रत्नप्रभा असं. को. वर्ष सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
सनत्कुमार-माहेंद्र रत्नप्रभा सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक 4 राजू शर्कराप्रभा पल्य/असं. सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
ब्रह्म ब्रह्मोत्तर शर्करा प्र. सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक 5.5 राजू बालुका पल्य/असं सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
लांतव कापिष्ठ बालुका सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक 6 राजू बालुका किंचिदून-पल्य सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
शुक्र महाशुक्र बालुका सर्वत्र अपने अपने विमानके शिखर तक 7.5 राजू पंकप्रभा किंचिदून-पल्य सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
शतार सहस्रार बालुका सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक 8 राजू पंकप्रभा किंचिदून-पल्य सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
आनत प्राणत पंकप्रभा सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक 9.5 राजू धूम्रप्रभा किंचिदून-पल्य सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
आरण अच्युत पंकप्रभा सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक 10 राजू धूम्रप्रभा किंचिदून-पल्य सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
नव ग्रैवेयक धूम्रप्रभा सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक 11 राजू तमप्रभा किंचिदून-पल्य सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
नवअनुदिश महातम प्र. (ह.पु.6,116) सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक कुछ अधिक 13 राजू वातवलय रहित लोकनाड़ी किंचिदून-पल्य सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
पंच अनुत्तर वातवलय रहित लोक नाड़ी सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक कुछ कम 14 राजू वातवलय सहित लोकनाड़ी किंचिदून-पल्य सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
5. तिर्यंच व मनुष्योंमें देशावधिका विषय
(म.ब.1/गा.सू.14-15/23) (रा.वा.1/22/4/82/5) (ध.2/1,1,2/93) (गो.जी./मू.425/249)।
नाम ज. उ. द्रव्य क्षेत्र काल भाव
तिर्यंच उ. तैजस शरीर प्रमाण असं. द्वीपसमुद्र असं. वर्ष (1 समय कम पल्य) सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
मनुष्य ज. एक जीवका औदारिक शरीर/लोक प्रदेश (स्वक्षेत्रके प्रदेशोंके असं. भाग प्रमाण विस्रसोपचय सहित स्व शरीर) उत्सेधांगुल\असं. (लब्ध्यपर्याप्त निगोदियाकी अवगाहनाप्रमाण का असं. भाग) आवली\असं. सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
- उ. एक परमाणु या कार्माण शरीर प्रमाण समस्त लोक (असं. लोक) असं. लोक प्रमाण समय सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
6. परमावधि व सर्वावधिका विषय
(म.ब.1/गा.सू.8/22) (ध.13/5,5,59/गा.सू.15/323) (ध.9/4,1,3/16/42-50) (रा.वा.1/22/4/83/5) (गो.जी./मू./414-421/837)।
ज. उ. द्रव्य क्षेत्र काल भाव
(1) परमावधि-(घ.9/पृ.)
ज. देशावधिका उत्कृष्ट x सं.(45) देशावधिका उत्कृष्ट x असं. (45) देशावधिका का उत्कृष्ट x असं. (45) देशावधिका उत्कृष्ट x असं. (45)
उ. परमावधिका जघन्य + (देशावधिका उत्कृष्ट x अग्निकायद्वारापरिच्छिन्न अनंतपरमाणु) असं. लोक (42) असं. लोक प्रदेश प्रमाण समय (सामान्य नियम) अंतिम विकल्प तक क्रमेण असं. गुणित (47)
नोट - परमावधिके जघन्य से उत्कृष्ट पर्यंत विषयवृद्धिके विकल्प देखो
(ध.9/4,1,3/44)
(2) सर्वावधि-(घ.9/पृ.)
नोट - यहाँ जघन्य उत्कृष्टका विकल्प नहीं है |
- परमावधिका उत्कृष्ट + वह/असं. (48) परमावधिका उत्कृष्ट x असं. लोक (48) परमावधिका उत्कृष्ट x असं. (50) परमावधिका उत्कृष्ट x असं. (48)
7. देशावधिकी क्रमिक वृद्धि के 19 कांडक
(म.ब.1/गा.सू.2-6/21) (ध.13/5,5,59/गा.सू.3-9/301-328) (ध.9/4,1,2/गा.5-7/24-29) (रा.वा.1/22/4/85/8) (गो.जी./मू.व.टी.404-413/830-836)
कांडक सं. ध./13 पृ. द्रव्य क्षेत्र काल भाव
1 304 प्रथम कांडकमें विस्रसोपचय सहित निज औदारिक शरीर\घनलोक प्रमाण असं. द्रव्य है। तत्पश्चात् द्वितीयादिमें सर्वत्र पूर्व पूर्व द्रव्य + (पूर्व द्रव्य+मनोवर्गणा/अनंत) घनांगुल\अ. आवली\असं. प्रथम कांडकमें स्व विषय गत द्रव्यकी आव/असं. मात्र वर्तमान पर्यायें। तत्पश्चात् द्वितीयादिमें सर्वत्र पूर्व पूर्व x असं.
2 305 घनांगुल\सं. आवली\सं.
3 305 घनांगुल किंचिदून आवली
4 305 घनांगुल पृथकत्व आवली
5 306 1 घन हाथ आवली पृथक्त्व
6 306 1 घन कोस अंतर्मुहूर्त
7 306 1 घन योजन 1 भिन्न मुहूर्त (मुहूर्त-1 समय)
8 306 25 घन योजन किंचिदून 1 दिवस
9 307 भरत क्षेत्र प्रमाण (529 9/19 घ. योजन) अर्द्ध मास
10 307 जंबूद्वीप प्रमाण 100,000 घन योजन साधिक 1 मास
11 307 मनुष्यलोक प्रमाण 4500,000 घन योजन 1 वर्ष
12 307 रुचकवर द्वीप तक वर्ष पृथक्त्व
13 308 असंख्य द्वीप सागर संख्यात वर्ष
14 310 तैजस शरीर पिंड पूर्व-पूर्व से असंख्यात गुणा असंख्यात वर्ष
15 310 कार्माण शरीर पिंड पूर्व-पूर्व से असंख्यात गुणा पूर्व पूर्वसे असंख्यात गुणा
16 311 विस्रसोपचय रहित एक तैजसवर्गणा पूर्व पूर्वसे असंख्यात गुणा पूर्व पूर्वसे असंख्यात गुणा
17 312 एक भाषा वर्गणा पूर्व पूर्वसे असंख्यात गुणा पूर्व पूर्वसे असंख्यात गुणा
18 313 एक मनोवर्गणा पूर्व पूर्वसे असंख्यात गुणा पूर्व पूर्वसे असंख्यात गुणा
19 313 एक कार्मण वर्गणा पूर्व पूर्वसे असंख्यात गुणा पूर्व पूर्वसे असंख्यात गुणा
ध.9/4,1,2,29-30 का सारार्थ-इसी प्रकार द्रव्य व भाव में करते जायें। क्षेत्र व काल अवस्थित रखें। द्रव्य व भावकी वृद्धिमें अंगुल। असं. प्रमाण विकल्प हो चुकनेपर क्षेत्रमें एक प्रदेशकी वृद्धि करें। काल अवस्थित रखें. उपरोक्त क्रमसे पुनः पुनः द्रव्य व भाव में वृद्धि करें। इस प्रकार कालको अवस्थित रखते हैं और क्षेत्रमें एक-एक प्रदेश की वृद्धि करते हुए अंगुल/असं. प्रमाण प्रदेश वृद्धि हो जानेपर एक समय बढ़ावें। इसी प्रकार पुनः पुनः कालकी वृद्धि करते कालमें भी आवली/असं. विकल्प उत्पन्न करें।
आगे जाकर क्षेत्रकी वृद्धि प्रतिकाल वृद्धिस्थानमें यथायोग्य घनांगुलके असंख्यात भाग, संख्यात भाग, 1 भाग तथा वर्गादिरूप होने लगती है। यहाँ तक कि देशावधिका उत्कृष्टकाल तो एक समय कम पल्य और क्षेत्र समस्त लोक हो जाता है।
पुराणकोष से
ज्ञान के पांच भेदों में तीसरा भेद । इसके तीन भेद होते है― देशावधि, सर्वावधि और परमावधि । ये तीनों अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोमशम से उत्पन्न होते हैं । महापुराण 2.66, हरिवंशपुराण 8.197, 10.152 अनुगामी, अननुगामी वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित ये छ: भेद भी इसके होते हैं । इस ज्ञान से दूसरों की अंतःप्रवृत्तियों का सहज ही बोध हो जाता है । इंद्र इसी ज्ञान से तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म आदि को जानते हैं । महापुराण 6.147-149, 17.46, हरिवंशपुराण 2.26, 8.127 देखें ज्ञान