नैगमनय
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/2 अनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगम:।=अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगम है। ( राजवार्तिक/1/33/2/95/13 ); ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.17/230); ( हरिवंशपुराण/58/43 ); ( तत्त्वसार/1/44 )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/271 जो साहेदि अदीदं वियप्परूवं भविस्समट्ठं च। संपडि कालाविट्ठं सो हु णओ णेगमो णेओ।271।=जो नय अतीत, अनागत और वर्तमान को विकल्परूप से साधता है वह नैगमनय है।
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.21/232 यद्वा नैकं गमो योऽत्र सतां नैगमो मत:। धर्मयोर्धर्मिणोर्वापि विवक्षा धर्मधर्मिणो:।=जो एक को विषय नहीं करता उसे नैगमनय कहते हैं। अर्थात् जो मुख्य गौणरूप से दो धर्मों को, दो धर्मियों को अथवा धर्म व धर्मी दोनों को विषय करता है वह नैगम नय है। ( धवला 9/4,1,45/181/2 ); ( धवला 13/5,5,7/199/1 ); ( स्याद्वादमंजरी/28/-311/3,317/2 )।
अन्य लक्षण एवं नैगम नय से संबंधित विषय जानने के लिए देखें नय - III.2, III.3।
पुराणकोष से
सात नयों में यह प्रथम नय है । यह अनिष्पन्न पदार्थ के संकल्प मात्र को विषय करता है । यह तीन प्रकार का होता है, भूत नैगम भावी नैगम और वर्तमान नैगम । हरिवंशपुराण 58.41-43