ग्रन्थ:सूत्रपाहुड़ गाथा 15
From जैनकोष
अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माइं करेइ णिरवसेसाइं ।
तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ॥१५॥
अथ पुन: आत्मानं नेच्छति धर्मान् करोति निरवशेषान् ।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थ: पुन: भणित: ॥१५॥
आगे कहते हैं कि जो इच्छाकार के प्रधान अर्थ को नहीं जानता है और अन्य धर्म का आचरण करता है, वह सिद्धि को नहीं पाता है -
अर्थ - ‘अथ पुन:’ शब्द का ऐसा अर्थ है कि पहिली गाथा में कहा था कि जो इच्छाकार के प्रधान अर्थ को जानता है, वह आचरण करके स्वर्गसुख पाता है, वही अब फिर कहते हैं कि इच्छाकार का प्रधान अर्थ आत्मा को चाहना है, अपने स्वरूप में रुचि करना है वह इसको इष्ट नहीं करता है और अन्य धर्म के समस्त आचरण करता है तो भी सिद्धि अर्थात् मोक्ष को नहीं पाता है और उसको संसार में ही रहनेवाला कहा है ।
भावार्थ - - इच्छाकार का प्रधान अर्थ आपको चाहना है सो जिसके अपने स्वरूप की रुचिरूप सम्यक्त्व नहीं है, उसके सब मुनि श्रावक की आचरणरूप प्रवृत्ति मोक्ष का कारण नहीं है ॥१५॥