नय
From जैनकोष
अनन्त धर्मात्मक होने के कारण वस्तु बड़ी जटिल है (देखें - अनेकान्त )। उसको जाना जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। उसे कहने के लिए वस्तु का विश्लेषण करके एक-एक धर्म द्वारा क्रमपूर्वक उसका निरूपण करने के अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है। कौन धर्म को पहले और कौन को पीछे कहा जाये यह भी कोई नियम नहीं है। यथा अवसर ज्ञानी वक्ता स्वयं किसी एक धर्म को मुख्य करके उसका कथन करता है। उस समय उसकी दृष्टि में अन्य धर्म गौण होते हैं पर निषिद्ध नहीं। कोई एक निष्पक्ष श्रोता उस प्ररूपणा को क्रम-पूर्वक सुनता हुआ अन्त में वस्तु के यथार्थ अखण्ड व्यापकरूप को ग्रहण कर लेता है। अत: गुरु-शिष्य के मध्य यह न्याय अत्यन्त उपकारी है। अत: इस न्याय को सिद्धान्तरूप से अपनाया जाना न्याय संगत है। यह न्याय श्रोता को वस्तु के निकट ले जाने के कारण ‘नयतीति नय:’ के अनुसार नय कहलाता है। अथवा वक्ता के अभिप्राय को या वस्तु के एकांश ग्राही ज्ञान को नय कहते हैं। सम्पूर्ण वस्तु के ज्ञान को प्रमाण तथा उसके अंश को नय कहते हैं।
अनेक धर्मों को युगपत् ग्रहण करने के कारण प्रमाण अनेकान्तरूप व सकलादेशी है, तथा एक धर्म के ग्रहण करने के कारण नय एकान्तरूप व विकलादेशी है। प्रमाण ज्ञान की अर्थात् अन्य धर्मों की अपेक्षा को बुद्धि में सुरक्षित रखते हुए प्रयोग किया जाने वाला नय ज्ञान या नय वाक्य सम्यक् है और उनकी अपेक्षा को छोड़कर उतनी मात्र ही वस्तु को जानने वाला नय ज्ञान या नय वाक्य मिथ्या है। वक्ता या श्रोता को इस प्रकार की एकान्त हठ या पक्षपात करना योग्य नहीं, क्योंकि वस्तु उतनी मात्र है ही नहीं‒देखें - एकान्त।
यद्यपि वस्तु का व्यापक यथार्थ रूप नयज्ञान का विषय न होने के कारण नयज्ञान का ग्रहण ठीक नहीं, परन्तु प्रारम्भिक अवस्था में उसका आश्रय परमोपकारी होने कारण वह उपादेय है। फिर भी नय का पक्ष करके विवाद करना योग्य नहीं है। समन्वय की दृष्टि से काम लेना ही नयज्ञान की उपयोगिता है‒देखें - स्याद्वाद।
पदार्थ तीन कोटियों में विभाजित हैं‒या तो वे अर्थात्मक अर्थात् वस्तुरूप हैं, या शब्दात्मक अर्थात् वाचकरूप हैं और या ज्ञानात्मक अर्थात् प्रतिभास रूप हैं। अत: उन-उनको विषय करने के कारण नय ज्ञान व नय वाक्य भी तीन प्रकार के हैं‒अर्थनय, शब्दनय व ज्ञाननय। मुख्य गौण विवक्षा के कारण वक्ता के अभिप्राय भी अनेक प्रकार के होते हैं, जिससे नय भी अनेक प्रकार के हैं। वस्तु के सामान्यांश अर्थात् द्रव्य को विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिक और उसके विशेषांश अर्थात् पर्याय को विषय करने वाला नय पर्यायार्थिक होता है। इन दो मूल भेदों के भी आगे अनेकों उत्तरभेद हो जाते हैं। इसी प्रकार वस्तु के अन्तरंगरूप या स्वभाव को विषय करने वाला निश्चय और उसके बाह्य या संयोगी रूप को विषय करने वाला नय व्यवहार कहलाता है अथवा गुण-गुणी में अभेद को विषय करने वाला निश्चय और उनमें कथंचित् भेद को विषय करने वाला व्यवहार कहलाता है। तथा इसी प्रकार अन्य भेद-प्रभेदों का यह नयचक्र उतना ही जटिल है जितनी कि उसकी विषयभूत वस्तु। उस सबका परिचय इस अधिकार में दिया जायेगा।
- नय सामान्य
- नय सामान्य निर्देश
- नय व निक्षेप में अन्तर।‒ देखें - निक्षेप / १ ।]]
- नयों व निक्षेपों का परस्पर अन्तर्भाव।‒ देखें - निक्षेप / २ ,३।]]
- नयाभास निर्देश।‒ देखें - नय / II ।
- नय व निक्षेप में अन्तर।‒ देखें - निक्षेप / १ ।]]
- आगम व अध्यात्म पद्धति।‒देखें - पद्धति।
- नय-प्रमाण सम्बन्ध
- नय व प्रमाण में कथंचित् अभेद।
- नय व प्रमाण में कथंचित् भेद।
- श्रुतज्ञान में ही नय होती है, अन्य ज्ञानों में नहीं।
- प्रमाण व नय में कथंचित् प्रधान व अप्रधानपना।
- प्रमाण का विषय सामान्य विशेष दोनों है।
- प्रमाण अनेकान्तग्राही है और नय एकान्तग्राही।
- प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी।
- नय भी कथंचित् सकलादेशी है।‒ देखें - सप्तभंगी / २ ।
- प्रमाण सकलवस्तुग्राहक है और नय तदंशग्राहक।
- प्रमाण सब धर्मों को युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रम से एक एक को।
- सकल नयों का युगपत् ग्रहण ही सकलवस्तु ग्रहण है।‒ देखें - अनेकान्त / २ ।
- प्रमाण सापेक्ष ही नय सम्यक् है।‒ देखें - नय / II / १० ।
- प्रमाण व नय सप्तभंगी‒ देखें - सप्तभंगी / २ ।
- नय की कथंचित् हेयोपादेयता
- तत्त्व नयपक्षों से अतीत है।
- नयपक्ष कथंचित् हेय है।
- नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं।
- नयपक्ष को हेय कहने का कारण प्रयोजन।
- परमार्थत: निश्चय व व्यवहार दोनों का पक्ष विकल्परूप होने से हेय है।
- प्रत्यक्षानुभूति के समय निश्चय व्यवहार के विकल्प नहीं रहते।
- परन्तु तत्त्वनिर्णयार्थ नय कार्यकारी है।
- आगम का अर्थ करने में नय का स्थान।‒ देखें - आगम / ३ / ३ ।
- तत्त्व नयपक्षों से अतीत है।
- शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश
- शब्द अर्थ ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं।
- शब्दादि नयनिर्देश व लक्षण।
- वास्तव में नय ज्ञानात्मक ही है शब्दादिक को नय कहना उपचार है।
- शब्द में प्रमाण व नयपना।‒ देखें - आगम / ४ / ६ ।
- शब्द में अर्थ प्रतिपादन की योग्यता।‒ देखें - आगम / ४ / १ ।
- शब्दनय का विषय।‒देखें - नय III/१/९।
- शब्दनय की विशेषताए‒देखें - नय III/६-८।
- नय प्रयोग शब्द में नहीं भाव में होता है‒ देखें - स्याद्वाद / ४ ।
- शब्द अर्थ ज्ञानरूप तीन प्रकार के पदार्थ हैं।
- अन्य अनेकों नयों का निर्देश
- भूत भावि आदि प्रज्ञापन नय निर्देश।
- अस्तित्वादि सप्तभंगी नयों का निर्देश।
- नामादि निक्षेपरूप नयों का निर्देश।
- सामान्य-विशेष आदि धर्मोंरूप ४७ नयों का निर्देश।
- अनन्त नय होने सम्भव हैं।
- उपचरित नय‒देखें - उपचार।
- उपनय‒देखें - नय /V/४/८।
- काल अकाल नय का समन्वय‒ देखें - नियति / २ ।
- ज्ञान व क्रियानय का समन्वय‒ देखें - चेतना / ३ / ८ ।
- भूत भावि आदि प्रज्ञापन नय निर्देश।
- नय सामान्य निर्देश
- सम्यक् व मिथ्यानय
- नय सम्यक् भी होती है और मिथ्या भी।
- सम्यक् व मिथ्या नयों के लक्षण।
- अन्य पक्ष का निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होती।
- अन्य पक्ष का निषेध करने से ही मिथ्या है।
- अन्य पक्ष का संग्रह करने पर वह नय सम्यक् है।
- सर्व एकान्त मत किसी न किसी नय में गर्भित हैं। और सर्व नय अनेकान्त के गर्भ में समाविष्ट है।‒ देखें - अनेकान्त / २ ।
- जो नय सर्वथा के कारण मिथ्या है वही कथंचित् के कारण सम्यक् है।
- सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या है।
- नयों के विरोध में अविरोध।‒ देखें - अनेकान्त / ५ ।
- नयों में परस्पर विधि निषेध।‒ देखें - सप्तभंगी / ५ ।
- सापेक्षता व मुख्यगौण व्यवस्था।‒ देखें - स्याद्वाद / ३ ।
- नय सम्यक् भी होती है और मिथ्या भी।
- नैगम आदि सात नय निर्देश
- सातों नयों का समुदित सामान्य निर्देश
- नय के सात भेदों का नाम निर्देश।‒ देखें - नय / I / १ / ३ ।
- सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग।
- इनमें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक विभाग का कारण।
- सातों में अर्थ, शब्द व ज्ञान नय विभाग।
- इनमें अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण।
- नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं है।
- पूर्व पूर्व का नय अगले अगले नय का कारण है।
- सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता।
- सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण।
- शब्दादि तीन नयों में परस्पर अन्तर।
- नय के सात भेदों का नाम निर्देश।‒ देखें - नय / I / १ / ३ ।
- नैगमनय के भेद व लक्षण
- नैगम सामान्य का लक्षण‒(१. संकल्पग्राही तथा द्वैतग्राही)
- संकल्पग्राही लक्षण विषयक उदाहरण।
- द्वैतग्राही लक्षण विषयक उदाहरण।
- नैगमनय के भेद।
- भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण।
- भूत भावी वर्तमान नैगमनय के उदाहरण।
- पर्याय द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्य का लक्षण।
- द्रव्य पर्याय आदि नैगमनय के भेदों के लक्षण व उदाहरण‒
- नैगमाभास सामान्य का लक्षण व उदाहरण।
- न्याय वैशेषिक नैगमाभासी हैं।‒ देखें - अनेकान्त / २ / ९ ।]]
- नैगम सामान्य का लक्षण‒(१. संकल्पग्राही तथा द्वैतग्राही)
- नैगमनय निर्देश
- नैगमनय अर्थनय व ज्ञाननय है।‒देखें - नय III/१।
- नैगमनय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
- शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नैगमनय के पेट में समा जाती है।
- नैगम तथा संग्रह व व्यवहारनय में अन्तर।
- नैगमनय व प्रमाण में अन्तर।
- इसमें यथा सम्भव निक्षेपों का अन्तर्भाव‒ देखें - निक्षेप / ३ ।
- संग्रहनय निर्देश
- संग्रहनय अर्थनय है।‒ देखें - / III / १ ।
- इसमें यथासम्भव निक्षेपों का अन्तर्भाव।‒ देखें - निक्षेप / ३ ।
- इस नय के विषय की अद्वैतता।‒ देखें - नय / I V/२/३।
- दर्शनोपयोग व संग्रहनय में अन्तर।‒ देखें - दर्शन / २ / १० ।
- वेदान्ती व सांख्यमती संग्रहनयाभासी हैं।‒ देखें - अनेकान्त / २ / ९ ।
- संग्रहनय अर्थनय है।‒ देखें - / III / १ ।
- व्यवहारनय निर्देश‒देखें - नय /V/४।
- ऋजुसूत्रनय निर्देश
- इस नय के विषय की एकत्वता।‒ देखें - नय / I V/३।
- बौद्धमत ऋजुसूत्राभासी है।‒ देखें - अनेकान्त / २ / ९ ।
- ऋजुसूत्रनय अर्थनय है।‒ देखें - नय / III / १ ।
- ऋजुसूत्रनय शुद्धपर्यायार्थिक है।
- इसे कथंचित् द्रव्यार्थिक कहने का विधि निषेध।
- सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वर्तमानकाल का प्रमाण।
- व्यवहारनय व ऋजुसूत्र में अन्तर।‒देखें - नय /V/४/३।
- इसमें यथासम्भव निक्षपों का अन्तर्भाव।‒ देखें - निक्षेप / ३ ।
- शब्दनय निर्देश
- शब्दनय के विषय की एकत्वता।‒ देखें - नय / I V/३।
- शब्द प्रयोग की भेद व अभेदरूप दो अपेक्षाए।‒ देखें - नय / III / १ / ९ ।
- अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है।
- पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में अभेद मानता है।
- पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंगादि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता।
- ऋजुसूत्र व शब्दनय में अन्तर।
- यह पर्यायार्थिक तथा व्यंजननय है।‒ देखें - नय / III / १ ।
- इसमें यथासम्भव निक्षेपों का अन्तर्भाव।‒ देखें - निक्षेप / ३ ।
- वैयाकरणी शब्द नयाभासी है।‒ देखें - अनेकान्त / २ / ९ ।
- शब्द में अर्थ प्रतिपादन की योग्यता।‒ देखें - आगम / ४ / १ ।
- शब्दनय के विषय की एकत्वता।‒ देखें - नय / I V/३।
- समभिरूढनय निर्देश
- समभिरूढनय के लक्षण‒
- इस नय के विषय की एकत्वता।‒ देखें - नय / I V/३।
- शब्दप्रयोग की भेद-अभेद रूप दो अपेक्षाए।‒ देखें - / III / १ / ९ । २
- यद्यपि रूढ़िगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं।
- परन्तु यहा पर्यायवाची शब्द नहीं होते।
- शब्द वस्तु का धर्म नहीं है, तब उसके भेद से अर्थभेद कैसे हो सकता है? ‒ देखें - आगम / ४ / ४ ।
- यह पर्यायार्थिक शब्दनय है।‒ देखें - नय / III / १ ।
- इसमें यथासम्भव निक्षेपों का अन्तर्भाव।‒ देखें - निक्षेप / ३ ।
- समभिरूढनय के लक्षण‒
- वैयाकरणी समभिरूढ़ नयाभासी हैं।‒ देखें - अनेकान्त / २ / ९ ।
- एवंभूत नय निर्देश
- सभी शब्द क्रियावाची हैं।‒देखें - नाम।
- शब्द प्रयोग की भेद-अभेद रूप दो अपेक्षाए।‒ देखें - नय / III / १ / ९ । २.
- तज्ज्ञान परिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है।
- अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद।
- इस नय की दृष्टि में वाक्य सम्भव नहीं।
- इस नय में पदसमास सम्भव नहीं।
- इस नय में वर्णसमास तक भी सम्भव नहीं।
- वाच्यवाचक भाव का समन्वय।‒ देखें - आगम / ४ / ४ ।
- यह पर्यायार्थिक शब्दनय है।‒ देखें - नय / III / १ ।
- इसमें यथासम्भव निक्षेपों का अन्तर्भाव।‒ देखें - निक्षेप / ३ ।
- वैयाकरणी एवंभूत नयाभासी हैं।‒ देखें - अनेकान्त / २ / ९ ।
- सातों नयों का समुदित सामान्य निर्देश
- द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय
- द्रव्यार्थिक नय सामान्य निर्देश
- द्रव्यार्थिकनय का लक्षण।
- यह वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है।
- 3-6 द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता।
- द्रव्यार्थिक व प्रमाण में अन्तर।‒ देखें - नय / III / ३ / ४ ।
- द्रव्यार्थिक के तीन भेद नैगमादि।‒ देखें - नय / II I।
- द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक में अन्तर।‒देखें - नय /V/४/३।
- इसमें यथासम्भव निक्षेपों का अन्तर्भाव।‒ देखें - निक्षेप / २ ।
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय निर्देश
- द्रव्यार्थिकनय के दो भेद‒शुद्ध व अशुद्ध।
- शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का लक्षण।
- द्रव्य क्षेत्रादि की अपेक्षा इस नय के विषय की अद्वैतता।
- शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता।‒देखें - नय /V/३/४।
- पर्यायार्थिकनय सामान्य निर्देश
- पर्यायार्थिकनय का लक्षण।
- यह वस्तु के विशेषांश को एकत्वरूप से ग्रहण करता है।
- द्रव्य की अपेक्षा विषय की एकत्वता‒
- क्षेत्र की अपेक्षा विषय की एकत्वता‒
- काल की अपेक्षा विषय की एकत्वता‒
- वर्तमान काल का स्पष्टीकरण।‒ देखें - नय / III / ५ / ७ ।
- वर्तमान काल का स्पष्टीकरण।‒ देखें - नय / III / ५ / ७ ।
- काल की अपेक्षा एकत्व विषयक उदाहरण
- भाव की अपेक्षा विषय की एकत्वता।
- किसी भी प्रकार का सम्बन्ध सम्भव नहीं।
- कारण कार्य भाव सम्भव नहीं‒
- यह नय सकल व्यवहार का उच्छेद करता है।
- पर्यायार्थिक का कथंचित् द्रव्यार्थिकपना।‒ देखें - नय / III / ५ ।
- पर्यायार्थिक के चार भेद ऋजुसूत्रादि।‒ देखें - नय / II I।
- इसमें यथासम्भव निक्षेपों का अन्तर्भाव।‒ देखें - निक्षेप / २ ।
- पर्यायार्थिकनय का लक्षण।
- शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिक निर्देश
- अशुद्ध पर्यायार्थिकनय व्यवहारनय है।‒देखें - नय /V/४।
- अशुद्ध पर्यायार्थिकनय व्यवहारनय है।‒देखें - नय /V/४।
- द्रव्यार्थिक नय सामान्य निर्देश
- निश्चय व्यवहारनय
- निश्चयनय निर्देश
- निश्चयनय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण।
- निश्चयनय का लक्षण अभेद व अनुपचार ग्रहण।
- निश्चयनय का लक्षण स्वाश्रय कथन
- निश्चयनय के भेद‒शुद्ध व अशुद्ध
- शुद्ध निश्चय के लक्षण व उदाहरण‒
- एकदेश शुद्ध निश्चयनय का लक्षण।
- शुद्ध, एकदेश शुद्ध व निश्चयसामान्य में अन्तर व इनकी प्रयोग विधि।
- अशुद्ध निश्चयनय का लक्षण व उदाहरण।
- निश्चयनय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण।
- निश्चयनय की निर्विकल्पता
- शुद्ध व अशुद्ध निश्चयनय द्रव्यार्थिक के भेद हैं।
- निश्चयनय एक निर्विकल्प व वचनातीत है।
- निश्चयनय के भेद नहीं हो सकते।
- शुद्धनिश्चय ही वास्तव में निश्चयनय है; अशुद्ध निश्चयनय तो व्यवहार है।
- उदाहरण सहित तथा सविकल्प सभी नये व्यवहार हैं।
- व्यवहार का निषेध ही निश्चय का वाच्य है।‒देखें - नय /V/९/२।
- निश्चयनय की प्रधानता
- व्यवहारनय सामान्य निर्देश
- व्यवहारनय सामान्य के कारण प्रयोजन।‒देखें - नय /V/७।
- चार्वाक मत व्यवहारनयाभासी है।‒ देखें - अनेकान्त / २ / ९ ।
- यह द्रव्यार्थिक व अर्थनय है।‒ देखें - नय / III / १ ।
- इसमें यथासम्भव निक्षेपों का अन्तर्भाव।‒ देखें - निक्षेप / २ ।
- सद्भूत असद्भूत व्यवहार निर्देश
- सद्भूत व्यवहारनय सामान्य निर्देश‒
- अनुपचरित या अशुद्ध सद्भूत व्यवहार निर्देश‒
- उपचरित या अशुद्ध सद्भूत निर्देश‒
- असद्भूत व्यवहार सामान्य निर्देश‒
- अनुपचरित असद्भूत व्यवहार निर्देश‒
- उपचरित असद्भूत व्यवहारनय निर्देश‒
- भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।
- विभाव भावों की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण।
- इस नय के कारण व प्रयोजन।
- उपचार नय सम्बन्धी।‒देखें - उपचार।
- व्यवहारनय की कथंचित् गौणता
- व्यवहारनय असत्यार्थ है, तथा उसका हेतु।
- व्यवहारनय उपचारमात्र है।
- व्यवहारनय व्यभिचारी है।
- व्यवहारनय लौकिक रूढि है।
- व्यवहारनय अध्यवसान है।
- व्यवहारनय कथनमात्र है।
- व्यवहारनय साधकतम नहीं है।
- व्यवहारनय निश्चय द्वारा निषिद्ध है।‒देखें - नय /V/९/२।
- व्यवहारनय सिद्धान्तविरुद्ध तथा नयाभास है।
- व्यवहारनय का विषय सदा गौण होता है।
- शुद्ध दृष्टि में व्यवहार को स्थान नहीं।
- व्यवहारनय का विषय निष्फल है।
- व्यवहारनय का आश्रय मिथ्यात्व है।
- तत्त्व निर्णय करने में लोकव्यवहार को विच्छेद होने का भय नहीं किया जाता।‒ देखें - निक्षेप / ३ / ३ तथा ‒ देखें - नय / III / ६ / १० ;IV/३/१०।
- व्यवहारनय की कथंचित् प्रधानता
- व्यवहारनय सर्वथा निषिद्ध नहीं है (व्यवहार दृष्टि से यह सत्यार्थ है)।
- निचली भूमिका में व्यवहार प्रयोजनीय है।
- मन्दबुद्धियों के लिए व्यवहार उपकारी है।
- व्यवहारनय निश्चयनय का साधक है।‒देखें - नय /V/९/२।
- व्यवहारपूर्वक ही निश्चय तत्त्व का ज्ञान होना सम्भव है।
- व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन शक्य नहीं।
- तीर्थप्रवृत्ति की रक्षार्थ व्यवहारनय प्रयोजनीय है।‒देखें - नय /V/८/४।
- व्यवहार व निश्चय की हेयोपादेयता का समन्वय
- परमार्थ से निश्चय व व्यवहार दोनों हेय हैं।‒ देखें - नय / I / ३ ।
- निश्चय व्यवहार के विषयों का समन्वय
- निश्चय व्यवहार निषेध्यनिषेधक भाव का समन्वय।‒देखें - नय /V/९/२।
- नयों में परस्पर मुख्य गौण व्यवस्था।‒ देखें - स्याद्वाद / ३ ।
- दोनों में साध्य साधनभाव का प्रयोजन दोनों की परस्पर सापेक्षता।
- दोनों की सापेक्षता का कारण व प्रयोजन।
- दोनों की सापेक्षता के उदाहरण।
- इसलिए दोनों ही नय उपादेय हैं।
- ज्ञान व क्रियानय का समन्वय।‒ देखें - चेतना / ३ / ८ ।
- निश्चयनय निर्देश
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