(महापुराण/56/श्लोक) पूर्वभव सं.2 में सुसीमा नगर का राजा पद्मगुल्म था (2-3) पूर्वभव में आरणेंद्र था (17-18) वर्तमान भव में 10वें तीर्थंकर हुए (20-27) इस भव संबंधी विशेष परिचय - देखें
तीर्थंकर - 5।
अवसर्पिणी काल के दु:षमा-सुषमा चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं दसवें तीर्थंकर । जंबूद्वीप― भरतक्षेत्र के मलय देश में भद्रपुर नगर के इक्ष्वाकुवंशी राजा दृढ़रथ इनके पिता तथा रानी सुनंदा माता थी । मां के गर्भ में इनके आने के छ: मास पहले से ही राजा दृढ़रथ के घर रत्नवृष्टि होने लगी थी । ये सोलह स्वप्नपूर्वक चैत्र कृष्ण अष्टमी की रात्रि के अंतिम पहर में मां के गर्भ में आये थे । उस समय पूर्वाषाढ़ नक्षत्र था । गर्भवास के नौ मास व्यतीत होने पर माघ कृष्ण द्वादशी के दिन विश्वयोग में इनका जन्म हुआ था । देवों ने इन्हें सुमेरु पर्वत पर ले जाकर इनका अभिषेक किया और इनका यह नाम रखा । इनका जन्म तीर्थंकर पुष्पदंत से मुक्त होने के बाद नौ करोड़ सागर का समय व्यतीत हो जाने पर हुआ था । जन्म के पूर्व पल्य के चौथाई भाग तक धर्म-कर्म का विच्छेद रहा । इनके शरीर की कांति स्वर्ण के समान थी । आयु एक लाख पूर्व और शरीर नब्बे धनुष ऊँचा थी । आयु का चतुर्थ भाग प्रमाण कुमारकाल व्यतीत होने पर इन्हें पिता का पद प्राप्त हुआ था । भोग-भोगते हुए आयु का चतुर्थ भाग शेष रह जाने पर आच्छादित हिमपटल को क्षण में विलीन होते देखकर ये विरक्त हुए । राज्य पुत्र को देकर इनके दीक्षित होने के भाव हुए । लौकांतिक देवों ने उनके दीक्षा लेने के भावों की संस्तुति की । इसके पश्चात् ये शुक्रप्रभाशिविका में बैठकर सहेतुक वन गये । वहाँ माघ कृष्ण द्वादशी के दिन सायं वेला और पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में दो उपवास का नियम लेकर ये एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । अरिष्टपुर के पुनर्वसु राजा ने नवधाभक्ति पूर्वक इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । तीन वर्ष तक ये छद्मस्थ अवस्था में रहे । इन्हें पौष कृष्ण चतुर्दशी क दिन पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में केवलज्ञान हुआ । इनकी समवसरण सभा में इक्यासी गणधर, चौदह सौ पूर्वधारी, उनसठ हजार दो सौ शिक्षक, सात हजार दो सौ अवधिज्ञानी, सात हजार केवलज्ञानी, बारह हजार विक्रिया धारी, सात हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी कुल एक लाख मुनि, धारण आदि तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ, दो खास श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव देवियां और संख्यात तिर्यंच थे । विहार करते हुए सम्मेद-शिखर आकर इन्होंने एक मास का योग निरोध कर के प्रतिमायोग धारण किया । इन्होंने एक हजार मूर्तियों के साथ आश्विन शुक्ल अष्टमी के दिन सायं वेला और पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में मुक्ति प्राप्त की । दूसरे पूर्वभव में ये विदेहक्षेत्र में वत्स देश की सुसीमा नगरी के पद्मगुल्म नाम के पुत्र और पहले पूर्वभव में आरणेंद्र थे । (महापुराण 2.130-134, 56.2-3, 18.23-59), (पद्मपुराण 5.214, 20.31-35, 46, 61.68, 84, 113, 119), (हरिवंशपुराण 1. 12, 13.32, 60.156-191, 341-349), (वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 101-106)