वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 4
From जैनकोष
श्रद्धानं परमार्थाना-माप्तागमतपोमृताम् ।
त्रिमूढ़ापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।।4।।
परमार्थ आप्त आगम तपस्वियों के श्रद्धान की सम्यक्त्वरूपता―सम्यग्दर्शन का लक्षण इस गाथा में किया गया है―परमार्थ भूत सच्चा जो आप्त,आगम और तपस्वी अर्थात् देव,शास्त्र और गुरु इनका श्रद्धान करना,जिस श्रद्धान में तीन मूढ़ता न हो,8 अंग हों ऐसे तत्त्वश्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते है । वास्तविक देव,शास्त्र,गुरु कौन है? तो किस बात का देव,शास्त्र,गुरु आप पूछ रहे? मोक्षमार्ग का । तो जो मोक्षमार्ग से चलकर मुक्त हुए हैं ऐसे पवित्र आत्मा देव कहलाते है । और शास्त्र कौन है? उन देवों के द्वारा बताया गया जो शासन है वह आगम है,और गुरु कौन है? तपस्वी कौन है? जो उस आगम के अनुसार,प्रभु के आदेश के अनुसार मोक्ष मार्ग में चल रहे है और बढ़ रहे है वे कहलाते है गुरु । धर्म के देव,धर्म के आदर्श,धर्म का कथन करने वाले आगम,धर्म के गुरु―जो उस धर्म में चल रहे हों ऐसे देवशास्त्रगुरु का श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है । इसमें मूढ़ता न होगी और अष्ट अंग होगा । जैसे मानो कोई संगीत सीखना चाहता तो अब केवल संगीत-संगीत का निर्णय किया जा रहा । आप सोचिये उस संगीत का देव कौन है? जो संगीत में बहुत ऊंचा पहुंचा हुआ हो सो वह पुरुष संगीत का देव है । यद्यपि वह रोज-रोज मिलेगा नहीं क्योंकि पता नहीं कहां रहता है सुना ही है कि वह बड़ा गवैया है,लेकिन सीखने वाला पुरुष उस पुरुष को आदर्श मानकर और उस मार्ग से चलकर यही मुझे बनना है ऐसा विश्वास करके वह संगीत सीखता है । और संगीत का शास्त्र कौन हुआ? जिसमें संगीत के चिह्न लिखे हों,संगीत सिखाने के शब्द हों वे संगीत शास्त्र कहलाते । और संगीत के गुरु कौन कहलाते? जो अपने को संगीत सिखाने वाले मास्टर मिल सकें । ऐसे ही धर्म की बात सुनो । धर्म का देव कौन है? जो धर्म में पूरा पहुंच चुके है ऐसे अरहंत और सिद्ध धर्म के देव हैं । धर्म की बातें जहाँ लिखी हों,रागद्वेष मोह से हटना यह वृत्ति जिन उपदेशों में पायी जाय वे धर्म के शास्त्र है,और धर्म के गुरु कौन? जो अपने को बढ़ें मिल सकें । जो धर्मभाव में बढ़ रहा है वह है धर्म का गुरु । तो ऐसे देव,शास्त्र,गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ।
तत्त्वश्रद्धान का प्रारंभिक आधार आप्त आगम गुरु का श्रद्धान―यहां कोई ऐसा सोच सकता है कि वास्तव में सम्यग्दर्शन तो आत्मा के अविकार स्वभाव का परिचय है । अनुभव है पर यहाँ बतला रहे कि देव शास्त्र गुरु का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । तो उत्तर यह है कि जो कुछ भी तत्त्वज्ञान किया जाता है उसका मूल है देव,शास्त्र,गुरु । जो उस मार्ग को तय कर चुके उनका श्रद्धान इसलिए करना कि मुझे खुद उस मार्ग पर चलना है । जैसे नदी के इस पार रहने वाले जो हैं,जिनको कभी उस पार जाना नहीं है उनके लिए तो नदी पार करके किनारे पहुंचे हुए का कोई महत्व नहीं,क्योंकि उनको नदी पार करने का ख्याल हीं नहीं,पर जिन पुरुषों को नदी पार करना है उनके लिए नदी पार होने का बड़ा महत्व है । ऐसे ! ही कैसे संसार के दु:खों से छुटकारा मिले,कैसे कष्ट से बचे,यह सब ध्यान में रहता है सो इन भव्यों को संसार महानदी पार करने की उत्सुकता है तो आत्मानुभव हुआ या स्व पर का भेदविज्ञान किया तो उसका आधार है आगम,देव,शास्त्र,गुरु । सो देव,शास्त्र,गुरु का यथार्थ श्रद्धान हो तो यथार्थ तत्त्वश्रद्धान हो जाता है । भगवान का आत्मा अमूर्त है,शरीर में रहकर भी शरीर से न्यारा ऐसा भगवान के स्वरूप का किसीने स्मरण किया तो अपने आपके स्वरूप में उसका प्रवेश हुआ इस कारण धर्म है । तो सबका आधार है देव,शास्त्र,गुरु और सबके लिये वह उपयोगी है । जो सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहता है उसके लिये भी यही उपाय है कि वह देव,शास्त्र,गुरु की उपासना भक्ति में लगे,ऐसे परिणाम के अभिमुख होने को श्रद्धान कहते हैं । श्रद्धान में तीन मूढ़तायें नहीं रहतीं । जैसे संगीत सीखने वाले को अपने संगीत कार्य के लिये मूढ़ता नहीं रहती । उसको यह सम्यक् श्रद्धान है कि ये पड़ोस के उस्ताद हमारे गुरु हैं,ये हम को संगीत सिखा देंगे,तो ऐसे ही इस ज्ञानी को धर्म के देव,शास्त्र,गुरु के बारे में मूढ़ता नहीं है कि कैसे ये जीव देव,शास्त्र,गुरु बन गये पक्का श्रद्धान है । और जैसे व्यवहार में कोई संगीत सीखने वाले को अपने संगीत के विषय में शंका नहीं है और संगीत को छोड़कर अन्य कुछ इच्छा नहीं है,संगीत सिखाने वाले के प्रति ग्लानि नहीं करता,संगीत सिखाने वालों के दोषों पर वह दृष्टि नहीं देता । संगीत सिखाने वाला कदाचित् च्युत हो जाय तो प्रेमी लोग उसको बड़ा महत्व देते है । कोई संगीत का प्रेमी कभी अपने धर्म से चिग जाय तो उसको उसमें स्थिर करते है । उससे प्रेम भी रखते है और उस संगीत विषय की या उस्ताद की प्रशंसा भी गाते है । वह बड़ा अच्छा गाता है,बड़ी लगन से सिखाता है तो वहां भी 8 अंग पाये जाते है । वे संगीत के अंग हुए । तो धर्म में जो चलने वाला है उसको धर्मविषयक 8 अंग बनते है ।
देह के अष्ट अंगों में अंगविधित्व का प्रेक्षण―जैसे शरीर में 8 अंग है वे भी इन अंगों जैसा काम करते हैं । चलना है तो जैसे मानली आगे दाहिना पैर बढ़ाया तो कैसा निःशंक बढ़ाते हैं लोग,कोई ऐसी शंका तो नहीं करता कि मैं इस पृथ्वी पर पैर धर रहा हूँ,कहीं इस जगह यह पृथ्वी पोली न हो और मैं गड्ढे में समा जाऊं? अरे वह तो निःशंक रहता और पिछले पैर को भी वह बड़ी उपेक्षा से उठा लेता है । जैसे मानो वह जगह उसके लिये बेकार हो । पीछे पैर वाली भूमि से उसे कोई लगाव नहीं रहता । यह दाहिना पैर जैसे आगे रखा तो वह नि:शंकित हुआ और पीछे का पैर उठाया तो वह नि:कांक्षित हुआ । यह शरीर के अंगों की बात देखो―जिन अंगों से हम सर्वकार्य करते हैं । निर्विचिकित्सा―सुबह उठकर हर एक कोई शौच जाता है तो वह मानो बायें हाथ से शुद्ध करता है । पर किसी को उस हाथ को गाली देते हुए देखा कि यह हाथ बड़ा बुरा है? नहीं देखा । तो ऐसे ही सभी अंगों की बात है । किसी को बायें हाथ से ग्लानि नहीं होती । यह निर्विचिकित्सा हुई । और इस दाहिने हाथ में कैसा निर्णय पड़ा है कि यह दृढ़ता पूर्वक दूसरे को कहता है कि ऐसा काम करो । यह करना ही होगा । यह दाहिना हाथ उठता है । यह अमूढ़ दृष्टि है । उपगूहन―उपगूहन कहते हैं ढाकने को जैसे धोती या लंगोट से शरीर के कुछ अंगों का ढाकना,यह उपगूहन हो गया । कुछ स्थितिकरण―पीठ पर कितना ही बोझ रख लेना यह है स्थितिकरण । वात्सल्य का काम किया । और ये दिमाग मस्तक आदि प्रभावना का कार्य करते है । धर्ममार्ग में धर्म भाव के 8 अंग सहित देव शास्त्र गुरु का श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन कहलाता है ।