वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 32
From जैनकोष
वयगुत्ती मणगुत्ती इरियासमिदी सुदाणणिक्खेवो ।
अवलोयभोयणाये अहिंसए भावणा होंति ।।32।।
(78) अहिंसामहाव्रत की योगसमाधान से निर्दोषता के कथन में प्रथम भावना वचनगुप्ति―वचनगुप्ति जहाँ भले प्रकार निभती है उनके अहिंसा महाव्रत निर्दोष पलता है । वचन बोलना इसमें प्रथम तो उस वचन के प्रहार से वायु के आघात से कुछ हिंसा होती है, दूसरे जिसको वचन बोले जाते हैं उसको यदि कोई कटुक वचन समझ में आये तो उसके प्राण पीड़ित होते हैं और वचन बोलने के लिए जो चित्त में उद्यम होता है वह राग बिना नहीं होता । तो रागविकार करना ज्ञानी को असह्य है तो उस वातावरण को सहता हुआ बोलना पड़ता है तो वचन के बोलने में कितने ही अनर्थ हैं वचन यदि बोलता ही रहे, वचन बोलने की अधिक प्रकृति बने तो कोई न कोई वचन ऐसे निकल ही बैठेंगे कि जिससे दूसरे के चित्त को वेदना हो सके, इस कारण वचनगुप्ति की भावना रखना यह अहिंसा महाव्रत का पोषक है । भावना बार-बार मनन करने को कहते हैं, अभ्यास करने को कहते हैं, ऐसी प्रवृत्ति या निवृत्ति पसंद नहीं होती है महंत संतों को कि जिसमें हिंसा लगती हो तो वे हिंसा का निरंतर यत्न रखते हैं और प्रवृत्ति या निवृत्ति योग से होती है । यहाँ प्रवृत्ति से मतलब पूर्ण निवृत्ति न लेना, किंतु कहीं से हटकर कहीं लगाना इसमें निवृत्ति भी आती, प्रवृत्ति भी आती । यह है योग का काम । तो मनोयोग, वचनयोग, काययोग ये अहिंसा की प्रवृत्ति कराते हैं । यदि स्थूल योग होता है और कषायमिश्रित योग चलना है तो वह अधिक बुरा है । सूक्ष्म होता है वह कम बुरा है, तो इस कारण से मन, वचन, काय इन तीन पर नियंत्रण हो तो अहिंसा महाव्रत पालता है ।
(79) अहिंसा महाव्रत की द्वितीय भावना मनोगुप्ति―यहां वचनगुप्ति की प्रथम बात कही जा रही है क्योंकि मनुष्य का एक दूसरे से संपर्क वचनों से आरंभ होता है, इसलिए पहले वचनगुप्ति की बात कह रहे हैं । वचनों पर नियंत्रण रखना, मौन भाव रखना, कदाचित् बोलना ही पड़े तो दूसरे जीवों का आदर रखते हुए बोलना इसमें अहिंसा महाव्रत पलता है । मनुष्यों को एक ध्यान यह रखना चाहिए कि जिससे बात करे उसके प्रति यह भाव रहे कि यह भी परमात्मस्वरूप है, महान् है, इस जीव का भी आदर ही होना चाहिए । जिससे बोले उसके प्रति मन में आदरभाव रखकर बोले । तो जब बोलना पड़े तो वचन बुरे न निकल सके । तो वचनगुप्ति अहिंसाव्रत की प्रथम भावना है ।
दूसरी भावना है मनोगुप्ति―मन को वश में रखना । सारा प्रवर्तन और यह सब विडंबना की चक्की जो कुछ भी चलती है―वह इस मनरूपी यंत्र से प्रेरित होकर चलती है । यह मन न जाने क्या-क्या सोचता, न जाने कहाँ कहां नहीं जाता । इस मन से ही ये सारे ओटोपाय चला करते हैं । तो इस मन को वश में रखना, मन लुभाना नहीं, विकल्प बढ़ाना नहीं और अनेक बार यह अभ्यास रखना कि कुछ सोचा ही न जाये, कुछ ख्याल में ही न आये ऐसी मन के व्यापाररहित स्थिति बनना और इस ही निर्व्यापार स्थिति की भावना करना मनोगुप्ति है पाप का आरंभ यह मन से चलता है, कषायों से चलता है । उसकी व्यक्ति तो कुछ देर बाद होती है मगर पापवृत्ति जहाँ मन में बात आयी वहाँ ही शुरू हो जाती है । इससे मन को नियंत्रण में रखना । 5 इंद्रिय के विषय ओर मन का विषय ये 6 प्रकार के विषय बतलाये गए हैं । तो मन का विषय अलग इस कारण बताया गया है कि जो केवल मन का विषय है उसमें इंद्रिय का व्यापार नहीं चलता । जैसे नामवरी चाहना, लोगों से अपने को बड़ा समझने का भाव रखना इन बातों में कैसे इंद्रिय का काम है? यह काम किसी इंद्रिय द्वारा शक्य नहीं है, यह मन द्वारा ही होता है इसलिए मन का विषय अलग बताया है और इंद्रिय के विषय जुदा कहा है ।
(80) मन की उद्दंडता व नपुंसकता―यह मन ऐसा व्यापक बन रहा है कि मन के विषयों को मन करता है सो ठीक ही है, पर इंद्रिय के विषयों के भोगने को भी यह मन बड़ा वाला बना देता है । जिन जीवों के मन है वे जितनी तीव्रता से विषयों का साधन कर सकते हैं, मनरहित जीव इतनी तीव्रता से साधन नहीं करते । तब ही तो ये मनुष्य इंद्रिय के विषयों के भोग में तिर्यंचों की तरह, पशुओं की तरह सीधा-सीधा निपट लें सो नहीं करते, किंतु वचनों से, साहित्यिक कला से, अलंकारों से, नाना प्रकार के वचनों से, इंद्रियभोगों से साधन करते हैं । सिनेमा में गाय, भैंस वगैरह भी तो देख सकते हैं, मगर उस सिनेमा के देखने से इनमें किसी प्रकार की उत्तेजना नहीं जग सकती । यद्यपि उनके भी मन है पर उनके मनुष्यों के समान तीव्र वेग वाला मन नहीं है । और जिनके मन नहीं दै ऐसे ये मक्खी मच्छर वगैरह भी तो सिनेमा देखते, पर उनको उसके देखने से कोई वेग नहीं होता । इम मनुष्य को मन मिला है तो यह इस तीव्रता से इंद्रिय के विषयों का साधन करता है कि मनरहित कर ही नहीं सकता । तो मन इन इंद्रियों में भी जुटा हुआ है, इन इंद्रियों को यह मन प्रेरित करता रहता है सो ये इंद्रियां उछल-उछलकर भोगों में प्रवृत्त होती है, किंतु एक आचार्यदेव ने कहा है कि मन तो नपुंसक है, शब्द से भी नपुंसक है और उसके आचरण से भी नपुंसक बनाया है । मन शब्द संस्कृत में है, उसका अर्थ नपुंसक अर्थ में चलता है, मगर आचरण भी कैसे नपुंसक है कि 5 इंद्रिय के विषय को मन नहीं भोगता । मन में इंद्रिय विषयों को भोगने का काम ही नहीं है । वह तो एक कल्पना से भोगता है, पर देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, छूना यह मन नहीं करता, यह तो इंद्रियां हो करती हैं । तो भोग तो इंद्रियां भोगती हैं, पर यह मन उनको देखकर खुश होता है, उनमें प्रवृत्त होता है, कर कुछ नहीं सकता । तो यह मन नपुंसक है, फिर भी यह इसमें तीव्र दुर्वासना है कि इन इंद्रिय विषयों में निवृत्त होना तेज प्रवृत्ति यह कराता है । तो ऐसे अटपट आचरण वाले मन को वश करना, यह अहिंसा महाव्रत की दूसरी भावना है । जिनका मन वश में है उनसे अहिंसा महाव्रत भले प्रकार पलता है । तो मन को वश करना, वचन को वश करना, यह अहिंसा महाव्रत का साधक है ।
(81) अहिंसा महाव्रत की तृतीय भावना ईर्यासमिति―काय को वश करना यह भी अहिंसा महाव्रत का साधक है । तो शरीर को कैसे वश किया जाये उसे यहाँ तीन रूपों में बतला रहे हैं । ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और आलोकितपान भोजन । ईर्यासमिति का अर्थ है कि देख भालकर प्रकाश में चलना जिससे जीवों को बाधा न हो । हम थोड़ा सा प्रमाद करें और वहाँ जीवों का घात हो जाये तो वह प्रमाद बहुत बड़े पाप का बंध करता है । अपने स्वरूप के समान चींटी आदिक जीवों का भी स्वरूप समझे, और यह भावना रहना चाहिए कि मेरे प्रमाद से इन जीवों का दुर्मरण मत हो । रहेंगी तो अवश्य ही चींटी कीड़ी वगैरा, पर वे अपनी मौत से मरें । आखिर मरना ही है, उसमें अपने को खेद न होगा, वह तो संसार का स्वरूप है, पर अपने प्रमाद से किसी जीव का वध हो गया दब करके या पानी में बहा करके या नहाने के पानी में बहकर किसी तरह जीव की हिंसा हो गई तो उस चोट में वह चींटी जो मरे तो वह खोटे भव में मरी, तो यह तो प्राय: निश्चित है कि जो खोटे भाव से मरण करेगा सो वह जिस पदवी में है उससे छोटे पद में वह पहुंच गया । उसे महानता नहीं मिल सकती । मरकर वह एकेंद्रिय आदिक में गया तो उसका कितना बिगाड़ हो गया कि जिसको तीन इंद्रिय जैसा वातावरण मिला था जीव और आपके प्रमाद से वह निम्न दशाओं में पहुंच गया यह जो अनर्थ बना उसका यह प्रमाद ही कारण बना, सो इसका वह जो प्रमादभाव है वह पापकर्म का, बंध का हेतु है । तो देखकर चलना यह है ईर्या समिति ।
(82) अहिंसामहाव्रत की चतुर्थ भावना सुदाननिक्षेप समिति―सुदाननिक्षेप समिति―देखकर वस्तु को धरना उठाना जिसमें किसी जीव की हिंसा न हो । तब ही तो मुनिजन अपने पास पिछी रखते हैं कि कमंडल भी उठाया तो ऊपर से झाड़ा नीचे की पेंदी झाड़ा, तब उठाकर चलते हैं । धूप से छाया में जाना हो तो छाया के निकट पहुंचने पर धूप में ही पिछी से अपने शरीर को पोंछते हैं, इसलिए कि धूप पसंद करने वाले जीवों को कहीं छाया में पहुंचने पर बाधा न हो छाया से धूप में जाना हुआ तो धूप के किनारे पहुंचने पर छाया में हो पिछी से शरीर को पोंछ देते इसलिए कि छाया पसंद करने वाले जीवों को धूप में बाधा न हो । तो हर वस्तु को शोधकर धरना उठाना यह आदाननिक्षेपण समिति है । कोई चीज घसीटकर न ले जाना । जरा सा तो अपना प्रमाद हो और वहाँ कोई जीव का घात होता है तो उस जीव को सुगति न मिलेगी, उसके लिए तो दुर्गति ही सरल है । तो कोई वस्तु धरना उठाना तो शोधकर देख भालकर धरना उठाना, ताकि किसी भी जीव को बाधा न हो, इस तरह से प्रवृत्ति करना तथा निर्जंतु स्थानपर मलमूत्रक्षेपण करना यह है सुदाननिलेप समिति ।
(83) अहिंसामहाव्रत की पांचवीं भावना आलोकित पान भोजन―अहिंसा महाव्रत की भावना में 5वीं भावना है आलोकित पान भोजन । देखकर खाना पीना । यहाँ देखकर का मतलब यह नहीं है कि देख रहा कि यह भोजन है, ग्रास है और खा लिया । यों तो अंधा होकर कोई नहीं खाता । चाहे रात को खाये तो कौर तो दिखता ही है, अगर न देखे तो कभी मुख के बजाये नाक में कौर पहुंच जाये, ऐसा तो किसी के नहीं होना । तो इस देखने का मतलब यह नहीं है किंतु जहाँ जीवों की सूक्ष्म जाँच हो सके, इस तरह का अवलोकन करके खाना पीना, जीव की भली भांति जाँच दिन के प्रकाश में ही हो सकती है । रात्रि को तो चाहे कितनी ही तेज बिजली जलायी जाये पर जंतु रहित पदार्थ समझ में नहीं आ सकते बल्कि बहुत से जीव तो और भी उमड़ जाते हैं । तो दिन के प्रकाश में ही खाना यह है आलोकित पान भोजन अंग । दिन का बना हुआ रात्रि को खाना यह आलोकित पान भोजन नहीं रहता । रात्रि का बना दिन को खाना यह भी आलोकित पान भोजन नहीं है । दिन में ही बना हो, दिन में ही खाये तो उसका आलोकित पान भोजन बनता है । इसके अतिरिक्त मर्यादा वाला भोजन है तो वह आलोकित पान भोजन है क्योंकि मर्यादा से बाहर की वस्तु में आगम के उपदेश के अनुसार जीवों का स्थान बन जाता है । तो प्रारंभ में जो जंतु जन्मते हैं वे निगाह में नहीं आते । जब उनका शरीर बड़ा होता दिखने लायक होता तब निगाह में आते, मगर कोई पदार्थ जंतुओं की उत्पत्ति का स्थान न बन सके तब तक उस पदार्थ का भोजन पान करना हूं आलोकित पान भोजन है । आलोकित शब्द में आ तो उपसर्ग हे और लुक धातु है । देखने अर्थ में यद्यपि बहुत शब्द आते हैं―तकना, सूंघना, देखना, परखना, निरखना आदि, पर इन सबके जुदे-जुदे अर्थ हैं । सामान्यतया सबका अर्थ एक है । बड़े सूक्ष्म रूप से देखें तो उनमें फर्क मिलेगा । तकना कहलाता है कोई छोटे से द्वार से बड़ी प्रतीक्षा सहित रखने को । देखना एक साधारण बात है । परखना उसकी परीक्षा करते हुए देखना तो यहाँ आलोकित शब्द है, जिसका अर्थ है कि असमंतातलोकन आलोकं, चारों ओर से अब दृष्टियों से निरखने का नाम है आलोकित । तो दिन के प्रकाश में मर्यादा के अंदर दिन में ही निर्विघ्न आहारदान लेना आलोकित भोजन है । इसमें अहिंसा व्रत निर्दोष पलता है । प्रथम तो साक्षात् जीवघात नहीं है सो आलोकित पान भोजन है फिर उसके भावना भी विशुद्ध है । विशुद्ध भाव से खा रहे हैं तो आगे भी उस विशुद्ध भाव की धारा चलती रहती है । अत: विकार से हट जाने के कारण भी वह अहिंसा महाव्रत है । तो इस तरह अहिंसा महाव्रत को पुष्ट करने वाली ये पांच भावनायें कही गई हैं । इन भावनाओं से यह अहिंसा महाव्रत निर्दोष पलता है ।