वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 42
From जैनकोष
णाणगुणेहिं विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं ल हं ।
इय णाऊं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाणेहि ।।42।।
(117) ज्ञानगुणविहीन पुरुषों को स्वेष्टलाभ की असिद्धि―जो पुरुष ज्ञान गुण से रहित है वह अपने इष्ट लाभ को नहीं प्राप्त कर सकता । इष्ट लाभ क्या है ? सर्व संकटों से सदा के लिए छुटकारा पाना, इसी को कहते हैं मोक्ष याने केवल अकेला रह जाये, यह सबसे बड़ा अभीष्ट लाभ है, क्योंकि अकेले में विकार नहीं होता । अकेले स्वरूप में आकुलता नहीं, तो ऐसा जो संकटमुक्तिलाभ है वह ज्ञानगुण से रहित होकर नहीं पाया जा सकता और ज्ञानगुण क्या? अपना जो अपने हो सत्त्व के कारण अपने में सहज ज्ञानभाव हैं―ज्ञानशक्ति, ज्ञानस्वरूप वह ज्ञान में आये, इसे कहते हैं ज्ञानगुण । इस ज्ञानगुण से रहित पुरुष अपना इष्ट लाभ नहीं पा सकता । चाहे मुक्तिलाभ के लिए कोई कितना ही तप करे, व्रत करे, वह सब केवल व्यर्थ का परिश्रम मात्र है । जिस कार्य की जो विधि होती है वह कार्य उसी विधि से बनता है । जैसे―कर्मबंधन, संसारबंधन, जन्ममरण, उसकी विधि है कि संसार में ममता रखे, जन्ममरण मिलते ही जायेंगे । जन्ममरण से छुटकारा पाने की इच्छा हो तो उसकी विधि है कि देह को अत्यंत भिन्न जानकर और अपने ज्ञानस्वरूप को निराला जानकर अपने ज्ञानस्वरूप में ही दृष्टि दे । यह है मुक्तिलाभ का उपाय । सबसे बड़ी कठिन कोई विपदा है तो वह है अज्ञान । मगर यह अज्ञानी जीव अज्ञान में ही राजी है । अज्ञान और मोह एक ही बात है । अपने से भिन्न सत्ता वाले किसी भी पदार्थ को यह मेरा है, मेरा था, मेरा होगा, इस तरह की जो कषाय जगती है वह अज्ञान है, क्योंकि वस्तुस्वरूप के विरुद्ध बात सोची जा रही है । अपना आत्मा ही अपना है । देह तक भी अपना नहीं और अपने उपयोग में झलकने वाले विकल्प रागद्वेष, विकार विभाव भी अपने नहीं हैं, फिर अपना है कौन दुनिया में? यदि यह प्रकाश बना रहे चित्त में तो उसका कल्याण है और एक यह ज्ञानप्रकाश न रहे तो अब भी भटकना है और आगे भी भटकना रहेगी । तो ज्ञानगुण से रहित पुरुष अपने इष्ट का लाभ नहीं पा सकता ।
(118) ज्ञान के गुण दोष जानकर गुण में अनुरक्त होकर सम्यग्ज्ञान की प्रगति की संभवता―आत्महित के लिये ज्ञानगुण की प्राप्ति करना चाहिए, और प्राप्ति तब ही हो सकेगी जब कि ज्ञान गुण के गुण और दोष समझ में आये । हमारे ज्ञान में यह तो दोष है, ऐसा जो जानेगा तब ही वह दोषों को छोड़ सकेगा उसके ज्ञान में दोष क्यों है कि अत्यंत भिन्न चीज को अपनी समझना यह ज्ञान का दोष है । इस आत्मा का तो एक परमाणुमात्र भी नहीं है और अज्ञानी लपेट रहा है । सारी जायदाद को, सारे कुटुंब रिश्तेदार को कि यह मेरा है जो अज्ञान रखेगा वह दुःखी होगा । उसकी जगह दुःखी होने कोई दूसरा न आयेगा । इस जीव को सुखी शांत करने वाला कोई भी दूसरा नहीं हो सकता । खुद ही अपने ज्ञान गुण को सम्हालें तो खुद सुखी शांत हो सकते । ज्ञान का दोष जानें कि जो ममता के भाव जगते हैं, बाह्य पदार्थों की तृष्णा के भाव जगते हैं, भिन्न पदार्थों में अपना लगाव रखने का भाव जगता है वह सब ज्ञान का दोष है इस दोष को त्यागे बिना हम गुण में नहीं आ सकते । तो ज्ञान का दोष जानकर ज्ञान के दोष का छोड़ना और ज्ञान के गुण को जानकर ज्ञान का गुण ग्रहण करना, ज्ञान का यह ज्ञान अपने ही स्वभाव को निरंतर जानने का काम करता है और ज्ञान का जो शुद्ध जानन है उस जानन में विकार नहीं, जानन के कोई कलंक नहीं । वह जानन तो आनंद को ही साथ लिए हुए है । जहाँ सही जानन है, शुद्ध जानन है, रागद्वेषरहित जानन है वहाँ अपने आप ही आनंद बरत रहा है । तो ज्ञानगुण का स्वरूप ही है कि विशुद्ध जानन के अतिरिक्त कुछ चाह न ही होता, जो कुछ ज्ञान में आया बस जान लिया, अब इसके आगे हमारा कुछ प्रयोजन है ही नहीं, क्योंकि मैं पर पदार्थ में कुछ भी कर सकने में समर्थ ही नहीं । पुण्य के उदय हैं, मन चाहे कुछ काम हो जाते हैं तो यह अज्ञानी जीव समझता है कि मैं बडा महान हूँ । जो चाहता हूँ सो हो जायेगा । अरे महानता काहे की ? प्रथम तो जो चाहे सो गरीब, किसी परवस्तु की चाह हो रही है । चाह की और काम बना तो कहीं यह नहीं है कि आपकी चाह होने से काम बना? पूर्व पुण्य का ऐसा योग है कि योग बन गया, पर अपने चाहने से काम बना यह बात गलत है । चाह से तो आकुलता का काम बनता है, पर बाहरी पदार्थ का काम नहीं बनता । तो ज्ञान का गुण यह है कि अपने में सहज वृत्ति का देखन जानन हो रहा है । उस जाननमात्र तत्त्व को निरखें यह है ज्ञान का गुण । तो ज्ञान के दोष और ज्ञान के गुण को जानकर इस सम्यग्ज्ञान का पालन करें तो ज्ञानगुण से सहित हो जायेगा तो हम को संकट मुक्ति का लाभ मिलेगा ।