वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 13
From जैनकोष
नैवाऽस्ति हेतु: क्षणिकात्मवादे
न सन्नसन्वा विभवादकस्मात् ।
नाशोदयैकक्षणता च दृष्टा संतान-
भिन्न-क्षणयोरभावात् ।।13।।
(47) पूर्व चित्तक्षण को सत्᳭रूप हेतु मानने पर अनिष्ट दोषप्रसंग―जो दार्शनिक आत्मा को क्षणिक मानते हैं, क्षणक्षण में नया-नया उत्पन्न होता रहता है, ऐसा समझते हैं उनके यहाँ कोई कारण बन ही नहीं सकता, क्योंकि भिन्न-भिन्न जीव हैं । तो कैसे कहा जाये कि इस जीव का उस जीव के साथ कुछ संबंध है या इसका वह उपादान है, और पूर्व जीव को हेतु भी कैसे कहा जा सकता, क्योंकि वह भी क्षणिक है । जिस क्षण में पहला जीव है उस क्षण में नया जीव है नहीं । जिस क्षण में नया जीव हो गया उस क्षण में पूर्व जीव है नहीं । तो क्षणिकवादियों के यहाँ पूर्व चित्त हेतु नहीं बन सकता । यदि ऐसा माना जाये कि पूर्व चित्त सत् है और वह चित्त का हेतु है तो जिस काल में उत्तर चित्त भी बन गया, और इतना ही क्यों, जितने उत्तरोत्तर जीव उपादान हुए हैं वे सब भी बन गए । तो एक ही समय में सब जीवों की उत्पत्ति हो गई । जब सब जीवों की उत्पत्ति हो गई तो सब जीवों की व्यापकता एक साथ सिद्ध हो जायेगी । तो कहने तो चले थे क्षणिक और बन गए सर्वव्यापक, यह एक बड़ा दोष है, इसके अतिरिक्त यह भी दोष आया कि एक ही समय में जब सब जीवों की
उत्पत्ति हो गई तो दूसरे समय में तो अब कोई जीव रहे ही नहीं । तो इसके मायने है कि सबका मोक्ष हो गया और यदि ऐसा होता तो आज ये जीव कैसे नजर आते याने जीव बिना उपाय के सिद्ध हो गए, पर दिख तो रहा है कि संसार में इतने जीव हैं । तो जैसे उत्तर चित्त को सत् मानकर उपादानउपादेय भाव नहीं बनता था, ऐसे ही पूर्व चित्त को सत् मानकर उपादानउपादेय भाव नहीं बन सकता । इसलिए पूर्वचित्त सत् होकर हेतु तो बन नहीं पाता ।
(48) पूर्व चित्तक्षण को असत् रूप हेतु मानने पर अनिष्ट दोषप्रसंग―यदि शंकाकार यह कहे कि पूर्व चित् हेतु है और असत् है तो जब असत् हेतु हो गया तो इसके मायने यह हैं कि उत्तर चित्त को बिना ही कारण के बन जाने का प्रसंग आ गया, क्योंकि असत् हेतु है ꠰ तो जब चाहे, जो चाहे चित्तक्षण उत्पन्न हो जाये तो यहाँ भी कारणकार्य भाव न बना क्षणिकवाद में । यहाँ सबसे बड़ी आपत्ति यह बतायी जा रही है कि जब एक ही शरीर में भिन्न-भिन्न मनुष्य पैदा होते चले रहे हैं तो एक मनुष्य के किए हुए काम की याद दूसरा मनुष्य कैसे कर लेगा? क्योंकि वे भिन्न-भिन्न मनुष्य हैं । जैसे भिन्न-भिन्न देह के मनुष्यों में एक के काम का दूसरा स्मरण नहीं कर सकता तो एक के देह के भिन्न-भिन्न मनुष्य भी काम स्मरण न कर सकेंगे । तो एक जीव अगले जीव का उपादान कारण नहीं बन सका ।
(49) जाग्रत चित्तक्षण व प्रब्रुद्धचित्तक्षण में कालव्यवधान होने से कारणकार्य में नाशोदयैकक्षणता की असिद्धि―इस प्रसंग में शंकाकार यह कहता है कि कारण के नाश के बाद दूसरे समय में हम कार्य का उत्पाद नहीं मानते, किंतु नाश और उत्पाद एक ही समय में हो जाते याने कारण के नाश का ही नाम उत्पाद है । जो घड़ा फूट गया, खपरियां बन गई तो घड़ा फूटने का ही नाम खपरियों का होना होता है, इसी तरह पूर्वचित्त का नाश ही उत्तरचित्त का उत्पाद है । यहाँ क्षणिकवादी यह कह रहे हैं कि एक ही शरीर में जैसे नाना मनुष्य, जीव उत्पन्न होते चले जा रहे हैं तो वहाँ यह व्यवस्था है कि पूर्व जीव नष्ट हुआ, उसी के मायने हैं कि उत्तर जीव उत्पन्न हो गया । इस मान्यता में यह आपत्ति है कि इन क्षणिकवादियों ने यह माना है कि जैसे कोई मनुष्य रात्रि के 9 बजे तक जग रहा था, 9 बजे सो गया और फिर 12 बजे जगा, तो 12 बजने पर जो चित्तक्षण बना उसका उपादान है 9 बजे का चित्तक्षण । याने सोते समय के 3 घंटे मे तो कुछ वारदात ही नहीं हुई । तो पहले जगे का क्षण उत्तर बनने का उपादान होता है तो इस नाश और उत्पाद में याने 9 बजे के चित्तक्षण का नाश और उत्पाद में इतना अंतर आ जाता है । इस कारण से पहले जगे हुए चित्त में सोये के बाद जगे चित्त का हेतु नहीं कहा जा सकता । तो यह बात क्षणिकवाद में तो नहीं बनी कि पूर्वचित्त के नाश का ही नाम उत्तरचित्त का उत्पाद है । हाँ; जैनशासन में पर्याय के लिए यह बात बन जाती है कि पूर्वपर्याय के नाश का ही नाम उत्तर पर्याय का उत्पाद है । यहाँ इन क्षणिकवादियों को इतना अधिक परिश्रम दिमाग का न करना चाहिए, क्योंकि वह वस्तु के विरुद्ध स्वरूप है । अतएव सही बात मान लें कि जीव एक है और उसकी पर्यायें समय-समय में नाना होती चली जाती हैं । सो उत्तर पर्याय का उपादान पूर्व पर्याय है, इसमें सारी व्यवस्था सही होती है ।