वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 17
From जैनकोष
न शास्तृशिष्यादिविधिव्यवस्था,
विकल्पबुद्धिर्वितथाऽखिला चेत् ।
अतत्त्वतत्त्वादिविकल्पमोहे,
निमज्जतां वीतविकल्पधी: का ? ।।17।।
(62) क्षणिकवाद में शास्तृशिष्यत्वव्यवस्था की असंभवता―क्षणिकवाद में चित्त को प्रति समय विनाशीक माना गया है और ऐसा विनश्वर माना गया है कि वहाँ लगार किसी भी प्रकार न पहले था, न आगे रहेगा अर्थात् निरन्वय विनाश । तो जब एक ही देह में उत्पन्न होने वाले चित्तों का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं और एक-एक समय के लिए यह चित्त उत्पन्न होता है, तो कौन उपदेश देने वाला और कौन शिष्य बने? यह व्यवस्था संभव नहीं, क्योंकि जिसको सासता माना गया है, उपदेश देने वाला माना गया है, तो वह उपदेश तो तब ही दे सकता है जब उसने पहले तत्त्वदर्शन किया हो याने वस्तु के स्वरूप का भली प्रकार निर्णय किया हो और फिर दूसरे का उपकार हो, ऐसी इच्छा रखकर यह चाह कर रहा हो कि मैं तत्त्व का स्वरूप बताऊँ और फिर तत्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन करें तो इनमें तो बहुत समय लग गया और इन सब कालो में कोई एक चित्त रहा नहीं, चित्त मायने जीव, चित्त अनेक उत्पन्न होते रहते हैं तो फिर कोई उपदेश का अस्तित्त्व ही नहीं बन सकता, क्योंकि एक चित्त काम करेगा एक समय में और काम जब इतने हों तब कोई एक चित्त उपदेष्टा कहला सकता । वह खुद वस्तुस्वरूप का निर्णय करे सो इसमें ही कितना समय चाहिए । फिर दूसरे के उपकार की भावना बनाये, फिर वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन करने की अभिलाषा करे और फिर तत्त्व का प्रतिपादन करे, इसमें तो बहुत समय लग जाता है, पर चित्त एक समय में एक रहता है । तो कोई एक उपदेश संभव नहीं हो सकता । जैसे क्षणिकवाद में कोई शासक संभव नहीं है इसी तरह कोई एक शिष्य भी नहीं रह सकता, क्योंकि शिष्य होने के लिए इतनी बातें होनी चाहियें कि वह उपदेश सुनने की इच्छा रख रहा हो, फिर उपदेश सुनने में लग रहा हो, फिर सुने हुए उपदेश का अर्थ ग्रहण कर रहा हो, फिर ग्रहण किए गए उपदेश को धारण करे तो उसकी स्मृति बनाये, उस ही में तत्त्व का अभ्यास बनाये इतने में कितना समय गुजर गया? ओर चित्त को माना है एकसमय में रहने वाला, तो फिर कौनसा एक चित्त शिष्य बन सकता है? तो जब न कोई उपदेष्टा बना और न कोई शिष्य बना तो यह उपदेष्टा है और मैं शिष्य हूँ ऐसा ज्ञान भी किसी के नहीं बन सकता । फिर क्षणिकवादियों ने जो उपदेष्टा और शिष्य की व्यवस्था बनाई कि कोई सुगत ऋषि उपदेष्टा है और उनके अनेक शिष्य हुए हैं, यह व्यवस्था सही हो ही नहीं सकती । तो क्षणिकवाद में उपदेश और शिष्य की व्यवस्था नहीं बनती ।
(63) क्षणिकवाद में पितृपुत्रत्व स्वामिसेवकत्व आदि व्यवस्थावों की असंभवता―क्षणिकवाद में जैसे उपदेष्टा और शिष्य व्यवस्था नहीं है, इसी प्रकार स्वामी और, सेवक में भी कोई व्यवस्था न बन सकेगी, क्योंकि जो एक चित्त-स्वामी हो उसको अनेक समयों में कोई भाव बनाना पड़ेगा तब वह स्वामी कहा जा सकता । इसी तरह जिसको सेवक कहा जाये उसको कितने विकल्प कार्य करने पड़ेंगे जिससे कि वह सेवक कहाया जा सकता है? उन समयों में कोई एक चित्त तो रह नहीं सकता, क्योंकि क्षणिकवाद में, चित्त तो एक समय का रहने वाला बताया गया है । तो स्वामी-सेवक व्यवस्था क्षणिकवाद में नहीं हैं, इसी तरह पिता-पुत्र की भी व्यवस्था क्षणिकवाद में नहीं है, क्योंकि जिस समय पुत्र उत्पन्न हुआ है वह चित्त तो नष्ट ही हो गया । जिस समय वह पिता कहलाया उस समय वह चित्त तो नष्ट ही हो गया, अब आगे समयों में जो चित्त उत्पन्न हो रहे वे न पिता हैं, न पुत्र हैं और न उन चित्तो में पिता पुत्र का व्यवहार किया जा रहा है । तो ऐसी कोई भी संबंध विधिव्यवस्था क्षणिकवाद में नहीं संभव हो सकती और इस तरह तो सारा लोकव्यवहार समाप्त हो जाता है याने -व्यवहार मिथ्या है, फिर न मोक्षमार्ग की व्यवस्था है, न आत्महित का कोई साधन रहेगा ।
(64) विकल्पबुद्धि से व्यवहार व निर्णय मानने पर अतत्त्व तत्त्वादि विकल्पव्यामोह में डूबे हुए प्राणियों को अविकल्पधी के परिचय का सर्वथा अनवसर―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि परमार्थ से तो विधि व्यवस्था व्यवहार संभव है ही नहीं, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वलक्षणरूप है । परमाणु भी तो कोई परमार्थ चीज नहीं है, वहाँ भी रूपक्षण, रसक्षण आदिक अनेक पाये जाते हैं और वे भी प्रतिक्षण विनश्वर हैं, ऐसे ही चित्तक्षण भी प्रतिक्षण विनाशीक है, इसलिए परमार्थ से तो उपदेश शिष्यादिक की व्यवस्था नहीं हो सकती, किंतु ये सब विकल्पबुद्धि हैं और विकल्पबुद्धि से ही सारा व्यवहार बना हुआ है और यह विकल्पबुद्धि अनादिकाल से वासना से उत्पन्न हो रही है जो कि लोगों को प्रकट सिद्ध है कि हाँ; इस प्रकार की वासना चल रही है और उसी विकल्पबुद्धि से यह जान रहा है कि यह उपदेष्टा है और यह शिष्य है; यह हिंसा करने वाला है और इसकी हिंसा की गई है आदिक सारे निर्णय विकल्पबुद्धि से होते हैं, और विकल्पबुद्धि भी मिथ्या मानी गई है, इस कारण क्षणिकपना ही वस्तु का स्वरूप है ꠰ ऐसी शंका करने वाले को यह विचारना चाहिए कि अगर यह सारी व्यवस्था विकल्प बुद्धि से है और मिथ्या है तो फिर निर्विकल्प बुद्धि नाम किसका है ? यह तत्त्व है, यह अतत्त्व है ऐसा भी जो सोचता है वह भी विकल्प से मोह में डूबा हुआ समझिये ꠰ तो ऐसे विकल्पमोह में, विकल्पबुद्धि में पड़े हुए लोगों को निर्विकल्प बुद्धि क्या चीज है इसका भी तो निर्णय बतायें, क्योंकि जितने निर्णय हैं वे सब विकल्पबुद्धि हैं ꠰ जैसे यह हिंसा करने वाला है, यह विकल्प अंततत्त्वरूप है अथवा जो सदाचार के विकल्प हैं उनके तत्त्वरूप कहेंगे तो यह खोटा है, यह अच्छा है यह व्यवस्था तो विकल्पबुद्धि बनने पर ही उत्पन्न हो रही है और विकल्पबुद्धि को मिथ्या कहा जा रहा है ꠰ तो यह अतत्त्व है और यह तत्त्व है, यह रचना तो विकल्प करने वाले ने ही की है, परमार्थ से तो नहीं हुई, तब फिर यह सिद्ध ही नहीं हो सकता ꠰ वास्तव में यह निश्चय से तो अहित की चीज है और यह हित की चीज है ꠰ तब फिर जितना भी क्षणिकवाद में उपदेश हुआ है वह भी सब अनर्गल समझना चाहिए, उसका आधार कुछ नहीं है ꠰ मान लो सच, मान लो या न मानो, सारी विकल्प-बुद्धि है और विकल्पबुद्धि सब मिथ्या है । तो यह विकल्प व्यामोह है जिसमें कि भले-बुरे का निर्णय चल रहा है । यह तो महान दुस्तर समुद्र बन गया अब उसमें डूब रहे हैं सब याने जितना भी तत्त्व का निर्णय बन रहा क्षणिकवाद में वह निर्णय क्या है? विकल्प व्यामोह में इतना है । अब उनको कैसे पता पड़े कि निर्विकल्प-बुद्धि इसे कहते हैं?
(65) क्षणिकवाद में परमार्थसत्य व व्यवहारसत्य की द्विविधता की व सबकी असिद्धि―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि सुगत गुरु की देशना दो सत्यों को लेकर हुई है याने सत्य दो प्रकार के हैं―(1) लोकसंव्यवहार सत्य और (2) परमार्थसत्य । तो कहीं लोकव्यवहार सत्य भी माना जाता है और परमार्थसत्य तो वस्तु का स्वरूप बतलाता है, ऐसे दो प्रकार के सत्य मानने से सब विभाग बन जायेगा । इसका समाधान यह है कि ऐसे जो दो विभाग बनाये हैं सो यह भी विकल्पबुद्धि है, परमार्थसत्य तो है नहीं, क्योंकि विकल्प-मात्र ही तो इस कथन में झलका । चित्त तो क्षण-क्षण में नष्ट हो गए । कोई चित्त किसी तरह का निर्णय कर ही नहीं सकता, उसका तो एक हो क्षण है । उस क्षण में यह उत्पन्न होवे या निर्णय करे, उत्पन्न हो ही पाता है कि तुरंत नष्ट होता है । निर्णय की बात तो जरा भी संभव नहीं है । अब सत्य दो प्रकार के हैं, यह कथन भी विकल्पमात्र है, वास्तविक नहीं बनता ।
(66) क्षणिकवाद में कल्पित परमार्थ की तात्त्विकी बुद्धि से सिद्ध की असंभवता―और भी देखिये―क्षणिकवाद में समस्त विकल्पों से रहित स्वलक्षण मात्र को विषय करने वाली जो बुद्धि है उसको तात्त्विकी बुद्धि कहा गया है याने परमार्थसत्य बताया गया है, यह बात भी संभव नहीं होती, क्योंकि तात्त्विकी बुद्धि के चार प्रकार बताये गए हैं, उन चारों प्रकारों की परमार्थ की कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकती । वे चार प्रकार क्या हैं―एक तो इंद्रियप्रत्यक्ष, दूसरा मानसिक प्रत्यक्ष, तीसरा स्वसंवेदनप्रत्यक्ष और चौथा योगिप्रत्यक्ष । तो इंद्रिय द्वारा स्वलक्षण की कहां व्यवस्था है? मन के द्वारा जो समझ में आये सो मानसिक प्रत्यक्ष है । उससे भी उस क्षणिक स्वरूप की कहाँ व्यवस्था बनती? यह चित्त स्वयं अपने द्वारा अपना अनुभव कर ले इसे स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कहते हैं । इससे भी समस्त जगत् एक क्षण रहित है, इसकी व्यवस्था कहां बनी है और योगिप्रत्यक्ष में जो जैसा है सो ही तो दिखना चाहिए । जिसकी व्यवस्था ही नहीं है उसका प्रत्यक्ष कैसे होगा? इसके अतिरिक्त इन चारों प्रत्यक्षों का स्वरूप भी सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि प्रथम तो कौन प्रत्यक्ष सामान्य है, कौन प्रत्यक्ष विशेष है, इसका लक्षण वास्तविक है, अवास्तविक है, ये सारे विकल्प मात्र ही हैं, लक्षण ही विकल्प है । ऐसा यह चारों प्रत्यक्षों का स्वरूप ही सिद्ध नहीं हो सकता ꠰ वास्तविक लक्षण नहीं कहलाया, क्योंकि विकल्प व्यवहार ने ही उन प्रत्यक्षों का लक्षण बताया और विकल्प-व्यवहार से वास्तविक लक्षण जाना नहीं जा सकता, तब फिर वस्तु का स्वलक्षण स्वरूप है, न यह सिद्ध होता और न इसका साधक कोई प्रत्यक्ष हो सकता । तात्पर्य यह है कि क्षणिकवाद में वस्तु की व्यवस्था ही नहीं है और न क्षणिक होना वस्तु का स्वरूप है । जो अनेकांत-शासन से बहिर्भूत हैं उनके यहाँ वस्तु की व्यवस्था ही संभव नहीं । हे प्रभो ! आपके स्याद्वाद-शासन से वस्तु का निर्णय होता है, और उसके अनुसार सन्मार्ग पर चलने से मोक्ष की व्यवस्था बनती है ।