वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 41
From जैनकोष
देवेंद्रचक्रमहिमानममेयमोनं, राजेंद्रचक्रमवनींद्रशिरोऽर्चनीयं ।
धर्मेंद्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं, लब्ध्वा शिवंच जिनभक्तिरुपैति भव्य: ।।41।।
सम्यक्त्व के प्रताप से लोक में महिमायुक्त बनकर अंत में शिवपद का लाभ―जिनकी जिनेंद्रदेव में भक्ति है ऐसे भव्य जीव सम्यग्दृष्टि ज्ञानीपुरुष कैसे-कैसे भव धारण करके ये मुक्ति को प्राप्त हुए यह वर्णन इस छंद में किया गया है । जैसे एक यह क्रम बताया गया है कि निगोद से निकलकर यह जीव पृथ्वीकाय आदिक में हुआ । वहाँ से दो इंद्रिय, फिर तीन इंद्रिय, फिर चार इंद्रिय, फिर पंचेंद्रिय आदिक बताते हैं, तो ऐसा कोई नियम नहीं है कि निगोद सभी इसी क्रम से उद्धार करते हैं, पर एक क्रम बताया है कि यदि आटोमैटिक एक के बाद जो पास वाला विकास है, उसे प्राप्त कर करके विकसित होगा, तो इस ढंग से विकसित होगा, ऐसे ही यहाँ समझिये कि इस छंद में सम्यग्दृष्टि जीव के उत्थान की बात कही जा रही है, सो कोई ऐसा नियम नहीं है कि इसी ढंग से ही उत्थान हर एक कोई करेगा । किंतु कोई भव्य प्राणी अच्छे से अच्छे ढंग से लौकिक वैभव को प्राप्त होता हुआ निर्वाण को प्राप्त करे तो उसका चित्रण यहाँ किया गया है । वह सम्यग्दृष्टि भव्य इस मनुष्यभव से चलकर स्वर्गलोक में उत्पन्न होता है । जहाँ ऊंची शक्तियां सुख वैभव है ऐसे ऊंचे देवों में उत्पन्न होता है । इंद्र होता है, देवेंद्र समूह में पूज्य होता है, यह सम्यग्दृष्टि की एक पहली बात कही है । उन स्वर्गो में नाना प्रकार के सुख भोगते हुए भी अपने आत्मा की सुध बराबर बनाये रहता है । जब उस देवेंद्र की आयु पूर्ण होती है, महर्द्धिक देव की आयु का क्षय होता है, नई आयु का उदय होगा मनुष्य का तो वह पृथ्वी पर आकर 32 हजार राजावों के मस्तिष्क से पूज्य ऐसा चक्रवर्ती बनता है और चक्रवर्ती भव में धर्मपालन कर अहिमिंद्र लोक की महिमा को प्राप्त होते है । अहिमिंद्र कहां रहते हैं? लोक के अंत में । जिसे अन्य लोग बैकुंठ कहा करते है वहाँ से अहमिंद्र प्रारंभ होता है । उनका बैकुंठ किस प्रकार का है सो उनका उन जैसा अभिमत है पर बैकुंठ कहो, वैकंठ कहो या नवग्रैवयक कहो, शब्ददृष्टि से दोनों का एक अर्थ है । कंठ कहो ग्रीवा कहो, इस कंठ का ही नाम है । और लोक की रचना में यह कंठ पड़ता है स्वर्ग से ऊपर, उनकी अहिमिंद्र लोक में उत्पत्ति होती है, तो मानों उन्होंने इस सारे लोक को नीचा कर दिया । अधोलोक, मध्यलोक और स्वर्गलोक? इनमें मध्यलोक से ऊपर यह अहिमिंद्र लोक है, वहाँ यह सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होता है । वहाँ वह आयु को पूर्ण करके मनुष्यलोक में तीर्थंकर होता है जो धर्मेंद्रचक्र का स्वामी है, तीर्थंकर तीर्थ का करने वाला है, ऐसे उस तीर्थंकर पद को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त होता है, याने सम्यग्दृष्टि जीव खास ऊंचे भव पायगा तो इस क्रम की बात कही गई है कि वह देवलोक में गया, फिर चक्रवर्ती हुआ, फिर अहमिंद्र लोक गया, फिर तीर्थंकर हुआ, इसने तीर्थंकर प्रकृति का कहां बंध किया चक्रवर्ती पद में । ऐसा ही ऊंचा धर्मध्यान दर्शन विशुद्धि हो तो तीर्थकर प्रकृति का बंध कर अहिमिंद्र लोक गया वहाँ से चलकर तीर्थकर हुआ, । जो तीर्थकर प्रकृति का बंध कर लेता है । उसके प्राय: तीन भव होते हैं ।
सम्यग्दृष्टि की अध्यात्मप्रगति―यहां यह जानना कि उस सम्यग्दृष्टि जीव ने दर्शनविशुद्धि भाव किया तत्त्वार्थ श्रद्धान किया और अनंतानुबंधी के अभाव से उसकी स्वरूपदृष्टि बनी । यह एक प्रताप जगता है सम्यक्त्व के अम्युदय में । अनंतानुबंधी कषाय स्वरूपाचरण का घात करती है । अनंतानुबंधी कषाय न रही तो स्वरूपाचरण प्रकट होता है । स्वरूपाचरण पूर्ण प्रकट नहीं हुआ यहाँ, कुछ अंश में प्रकट हुआ है । पूर्ण स्वरूपाचरण तो कहलाता है स्वरूप में मग्न हो जाना । यह स्वरूपाचरण तो उत्तम कषायरहित जीवों के हुआ करता है, पर वही स्वरूपाचरण है, जिसकी श्रद्धा होने से, स्वरूप की श्रद्धा होने से वह सम्यक्त्वाचरण रूप है । देखिये―स्वरूपाचरण को तो मान लीजिए एक विकास और कम जगह होना, अधिक जगह होना, उत्कृष्ट विकास होना, इन रीतियों से देखिये तो सम्यक्त्वाचरण रूप स्वरूपाचरण चौथे गुणस्थान में होता है । अणुव्रतरूप स्वरूपाचरण 5वें गुणस्थान में होता है । महाव्रतरूप स्वरूपाचरण छठवें सातवें गुणस्थान में होता है । फिर स्वरूपरमण रूप स्वरूपाचरण श्रेणियों में है और स्वरूप मग्नतारूप स्वरूपाचरण कषायरहित जीवों में है । तो स्वरूपाचरण एक आधार मान लीजिए और उनके विकास के इस प्रकार विभाग बना लिये जायें तो कोई विवाद नहीं रहता । अब स्वरूपाचरण चौथे गुणस्थान से होता, स्वरूपाचरण भगवान के होता, ऐसी बात लेकर जो विवाद उठ रहा है वह विवाद इस विकास के भेद से जहाँ जिस भूमिका में जितने अंश में प्रकट है उतना स्वीकार करने में कोई विवाद नहीं है । तो चौथे गुणस्थान में अभी अप्रत्याख्यानावरण का उदय है मायने देश चारित्र को घात करने वाले कषाय का उदय है इस कारण अणुव्रत नहीं हो पाता । देश चारित्र नहीं हो पाता और प्रत्याख्यानावरण का उदय होने से सकल चारित्र नहीं होता फिर भी सम्यग्दृष्टि जीव के दृढ़ भेदविज्ञान है ।
सम्यग्दृष्टि का तत्त्वचिंतन―मैं क्या हूँ, मैं अपने आप में अमूर्त ज्ञानमात्र परिपूर्ण सत् सामान्य कारण समयसार हूँ । चूंकि जो द्रव्य होते हैं वे परिणमे बिना रह नहीं सकते निरंतर परिणमते रहेंगे, तो उसके परिणमन में ये गुणस्थान हुए हैं । गुणस्थान परिणमन के निमित्त है, ऊंचे हुए तो वे विकास में निमित्त है । तो यह विकास होता है, गुणस्थान होता है पर मैं स्वयं अपने आप सहज क्या हूं? तो वह हूँ मैं एक सामान्यचैतन्यस्वरूप । वह मैं देह से निराला हूँ, देह मूर्तिक है मैं अमूर्त हूँ । कर्म से निराला हूँ, कर्म मूर्तिक पुद्गल हैं, मैं अमूर्त हूँ, कर्म का उदय होने पर जो विभाव जगते हैं उन विभावों से मैं निराला हूँ, वे विभाव औपाधिक हैं, मैं सहजस्वभाव हूँ ऐसा अपने आत्मा के स्वरूप का जिसके दृढ़ भेद विज्ञान है, परिचय है और यह जीव अपने ज्ञानस्वरूप में ही आत्मबुद्धि लिए हुए है कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानतत्त्व हूँ, ज्ञानी जीव के पर्याय में आत्मबुद्धि स्वन में भी नहीं होती, यह मुख्य बात है । यह भव, यह शरीर यह सब पर्याय है, इस पर्याय के प्रति यह मैं हूँ, ऐसी श्रद्धा ज्ञानी के नहीं जगती । उसकी यह श्रद्धा होती कि इस शरीर से निराला ज्ञानमात्र मैं आत्मा हूँ । ऐसा ज्ञानी पुरुष आत्महित के अर्थ चिंतन करता है कि हे आत्मन ! तू भगवान के परमागम का शरण ग्रहण कर । वस्तुत: आत्मा के सही सहज स्वभाव का परिचय है । परिचय ही मात्र शरण है और वह परिचय मिलता है भगवान के आगम के अध्ययन से । इस लिए हम को प्रभु का उपदेश ही शरण है । यह जिनागम परमागम ही शरण है । परमागम का ग्रहण कर उसका शरण लें और ज्ञानदृष्टि के द्वारा अपने अंदर अवलोकन करें । यह स्पर्श, रस, गंध, रूपमय शरीर तेरा कुछ भी नहीं लगता यह पौद्गलिक है । कर्म भी पौद्गलिक हैं और क्रोध, मान, माया, लोभादिक जो विकार तेरे में उछलते हैं ये भी कर्मोदय जनित हैं, विकार हैं ये भी तेरे स्वरूप नहीं हैं । हर्ष घमंड जो कषायरूप प्रवर्तन ये भी कर्मजनित विकार हैं । ये तेरे स्वरूप नहीं हैं । ‘‘सर्व गतियों में रह गति से न्यारे सर्व भावों में रह उनसे न्यारे ।’’ तू जिस गति में रह रहा है उस गति से निराला है, तू जिन भावों में रह रहा है उन भावों से निराला है । यह पर्याय तेरा स्वरूप नहीं ।
ज्ञानी के पर्यायबुद्धि का अभाव―जो अज्ञानी है वह ही ऐसा विकल्प रखता है कि मैं काला हूँ, गोरा हूँ, राजा हूँ, रंक हूँ आदिक । ज्ञानी जानता है कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, गोरा नहीं, काला नहीं, राजा नहीं, रंक नहीं, व्यापारी नहीं, गृहस्थ नहीं, मुनि नहीं, परिवार वाला नहीं, मैं तो स्वतंत्र सत् चैतन्यमात्र हूँ । ये सब बातें हो तो रही है पर मैं नहीं हूँ, कर्मोदय से सब बातें हो रही है, अज्ञानीजनों के ही विकल्प चलते हैं । मैं स्वामी हूँ, सेवक हूँ, बलवान हूँ, कुरूप हूँ, पुण्यवान हूँ, पापी हूँ आदिक अनेक तरह के विकल्प चलते है क्योंकि उसके पर्यायबुद्धि लगी है । पर ज्ञानी जीव के पर्यायबुद्धि नहीं है, इसलिए वह देहादिक संबंघी किसी भी पदार्थरूप अपने को मानता नहीं है । परपदार्थों के संबंध से भी मैं धनी हूँ । न रहे संबंधसंयोग निकट तो मैं निर्धन हूँ आदिक विकल्प करता है । पर अत्यंत प्रकट परवस्तु से मेरा क्या संबंध है ? मेरा तो औपाधिक भावों से भी मेरे स्वरूप का संबंध नहीं । तो ज्ञानी जीव के यथार्थ भान रहता है । मैं पुरुष नहीं, मैं स्त्री नहीं, मैं ब्राह्मण नहीं, मैं क्षत्रिय नहीं, मैं वैश्य नहीं, मैं शूद्र नहीं, ये सब विकल्प शरीर के आधार में जगते हैं । मेरे आधार में तो मेरा सहज ज्ञानस्वरूप है । मैं इस रूप नहीं, धार्मिक प्रसंगों में अज्ञानी जानता कि मैं धर्मात्मा हूँ, गुरु हूँ, शिष्य हूँ आदिक पर ज्ञानी जीव के यथार्थ प्रतीति है कि मैं केवल चैतन्यमात्र हूँ । ये सारे कर्मोदय से उत्पन्न हुए ठाठ हैं । मेरा स्वरूप है ज्ञानमात्र, मेरा काम है ज्ञाता दृष्टा रहना । ज्ञानी जीव साधु भी हो जाय तो भी उसकी यह दृढ़ प्रतीति है कि मैं साधु नहीं मैं चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व हूँ, क्योंकि साधुपना पर्याय की चीज है । पर्यायरूप यह आत्मा अपने को मानता नहीं है । यह लोक मेरा नहीं है, देश मेरा नहीं, ग्राम मेरा नहीं, सब कर्मोदय की बात है । कौन-कौन क्षेत्र में कैसे कर्म उत्पन्न करता है । कर्म नहीं उत्पन्न करता, निमित्त नैमित्तिक योग है ऐसा कि जो जैसा कार्य होना होता है उस निमित्त को पाकर इस कर्मविपाक से मैं किन-किन अवस्थावों को प्राप्त होता हूँ? मिथ्यादृष्टि जीव परकृत पर्याय में ममत्व मानता है, मिथ्यादृष्टि जीव अपने को किस-किस प्रसंग की, परसंसर्ग की स्थितियों में मानता है कि यह मैं हूँ, इसी से मेरा बड़प्पन है । इसी से मेरा यश है । इसके साथ मेरी घटी है, वृद्धि है, इस प्रकार नीच ऊंच सब प्रकार के विकल्प करता है ।
ज्ञानी की संचेतना―ज्ञानी पुरुष अपने आप में केवल ज्ञानमात्र तत्त्व को निरखता है । ज्ञानवृत्ति, इस कार्य को देखता है और ज्ञान के साथ आनंद जुटा है सो उसका अनुभवन यह कर्मफल देखता है । ज्ञानचेतना, कर्मचेतना, कर्मफल चेतना, निश्चय से तो ज्ञान चेतना है ज्ञान में ज्ञान का चेतना । पर उसके दो प्रतिफल बनते हैं―कर्म और कर्मफल चेतना जो ज्ञान द्वारा किया जा रहा है वह ज्ञान का कर्म है । और ज्ञान से किये गये को जो भोगा जा रहा है वह ज्ञान के कर्म का फल है । पौद्गलिककर्म, पौद्गलिक कर्मफल ये सब व्यवहार से चेते गए हैं पर निश्चय: परमार्थत: क्या देखना―यह है वह परिणमता है और अपने को भोगता है, ऐसा अद्वैत अभेदरूप अपने आपको अंत: स्वरूप निरखता है ज्ञानी । अज्ञानीजन परवस्तुवों में अपना संकल्प करके आर्तध्यान रौद्रध्यान इनमें ही व्याकुल रहते है, इष्ट का वियोग हो तो उसके संयोग के लिए चिंतन चलता है, अनिष्ट का संयोग हो तो उसके वियोग के लिए चिंतन चलता है । वेदना से दुर्ध्यान बना, आगे का निदान करके दुर्ध्यान बना । क्यों बना दुर्ध्यान कि उसने परवस्तु में आत्मत्व का अनुभव किया । यहाँ एक बात और भी समझें कि मूल में यह जीव विकार में आत्मतत्त्व अनुभवता है । तो जहाँ जड़ ही खोटी है, भीतर विकार को ही आत्मस्वरूप मानता है तो उस आधार पर इन बाह्य पदार्थो को भी आत्मा मानने लगा । तो जब यह पर तत्त्वों में आत्मत्व मान रहा तो कदाचित यह धर्ममार्ग में लगे, धर्ममार्ग तो नहीं पा सकता, पर व्यवहार में जैसे लोग समझा करते है कि अब यह धर्ममार्ग में लगा, तो वहाँ समझता है कि मैं धर्म का अधिकारी हूँ और कुछ जिनधर्म की बात सीख ली जो अज्ञानी होने के कारण उसमें नवीन-नवीन अपने परिणाम बनाता है, अपनी नई-नई युक्तियां खोजता है लोगों को भ्रम उपजाता है और अपने ज्ञानीपने का अभिमान रखता है और फिर सूत्र विरुद्ध, आगम विरुद्ध अनेक कथनी करता है । जिनागम के प्रसाद से थोड़ा ज्ञान करता है, यह जानकर मिथ्यात्व के उदय में जिनागम का कृतघ्न बन जाता है । उसका उपकार नहीं मानता और अपनी युक्तियां नवीन-नवीन बनाकर नई-नई बातें करता है किंतु ज्ञानी जीव अपने आप में अपने ही तत्त्व को अनुभवता है । कितने ही अज्ञानी जीव जिनके पर्याय बुद्धि नहीं छूटी जो इस देह में ही आपा मानते चले आ रहे है वे एक भावुकता के कारण सर्व बाह्य परिग्रहों का त्याग कर दें, निर्ग्रंथ दिगंबर भेष धारण कर ले और वे कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु का सेवन त्याग दें, तिस पर भी यह मैं हूँ, मैं मुनि हो गया हूँ । मुझ को इस तरह चलना चाहिए, ऐसा पर्याय में आपा मानकर वे अपने को कृतकृत्य मान लेते हैं और जगत के अन्य जीवों की निंदा करते हैं । मैं अच्छा आचरण करता हूँ, अन्य लोग मुझ जैसा आचरण नहीं कर सकते, इस तरह निंदा की दृष्टि रखते हुए अपने आप में अपनी प्रशंसा का भाव रखते हुए मिथ्याभाव में वह जाते हैं, किंतु जिन्होंने अंदर में स्वभाव और विभाव का भेद पहिचाना वे विभावों से हटकर स्वभाव में रमते हैं । अज्ञानीजन दूसरों के दोष देख देखकर उन दोषों को दूसरों से बता बताकर अपने में मौज मानते है । जबकि सम्यग्दृष्टि जीव प्रत्येक जीव में मूल में उस स्वभाव को निरखते है और ऐसा ध्यान रखते हैं कि मेरे इस आत्मा का कोई विरोधी नहीं है । आत्मा तो स्वभाव से स्वरूप से ज्ञानानंदमय है । यह जो कुछ हुआ है यह सब उपाधिकृत हुआ है ।
ज्ञानी और अज्ञानी के आशय में महान् अंतर―ज्ञानी की दृष्टि सहज स्वभाव पर रहा करती है और उसे ही वह आत्मतत्त्व मानता है । कितना अंतर आ जाता है स्वरूप के निरखने में और स्वरूप से बेसुध रहने में ही सारी पलट हो जाती है । सम्यग्दृष्टि जीव का व्यवहार मोक्षमार्ग के अनुकूल बनता है तो अज्ञानी जीव का व्यवहार संसार में रुलने के अनुकूल बनता है । कदाचित् थोड़ासा कुछ अच्छा पा लिया तो वह धर्म की बड़ी बातें भी करने लगाता और वहाँ अनंतानुबंधी मान का उदय भी आ जाता जिससे वह अपने आपको तो धर्मात्मा मानता है और अन्य जीवों की निंदा करता हुआ उनको अधर्मी बताता है । बाहर में अगर कुदेव आदिक को नमस्कार नहीं किया तो कुदेव आदिक को तो तिर्यंच भी नहीं नमस्कार करते । इतने मात्र से बड़पन नहीं बनता किंतु अपने में सहज स्वरूप का अनुभव करने से महत्त्व बनेगा । मैं क्या हूं? सहज अपने आप सत्त्व के कारण, उसका उत्तर आना चाहिए । उसकी अनुभूति बने तो सम्यग्दृष्टि जीव को बनती है । वह प्रकट करता है । सर्व ओर से पौरुष यही करने योग्य है कि मैं जगत के अन्य सब पदार्थों से, परभावों से निराला इस सहज ज्ञानमात्र को ही अनुभवूँ कि यह मैं हूँ । धर्मपालन करके यह ही तो परीक्षा करें कि मैं अपने चैतन्यस्वरूप को यह मैं हूँ ऐसा मान पाया या नहीं, इसमें दृढ़ हो पाया अथवा नहीं । यदि नहीं हो पाये दृढ़, अपने स्वरूप को हम आप नहीं मान पाये तो अपनी त्रुटि समझना, आगे इसके लिए पौरुष करना, पर किसी थोड़ी सी धर्मक्रिया में संतुष्ट होकर जो अपने को कृतकृत्य मान लेगा उसका तो आगे उद्धार ही नहीं है । तो भाई मिथ्यात्वभाव इस जीव के अनादि से लगा हुआ है और वही ढंग अब भी चलाया तो इस भव के पाने का क्या फल मिला? तो अपने आप पर ही अब कुछ करुणा करके सोचना चाहिए । अपना संसार में रुलना छुटाना ही चाहिए । भैया, अब संसार में रुलना पसंद नहीं तो संसार है पर्याय में आत्मबुद्धि । इसको तज दीजिए । मैं वह हूँ जिसका पहचानने वाला यहाँ कोई नहीं है । ऐसे अपने अन्य लोगों से अपरिचित निज तत्त्व की ओर आना हैं । यह जिसके बुद्धि आयी वही पुरुष धन्य है, महा भाग्यवान है, पूज्य है, पवित्र है और जगत के संकटों से छुटकारा हो सकता है तो इस ही स्वरूप की आराधना से हो सकता है ।
प्रथम अध्याय में सम्यक्त्व के स्वरूप और माहात्म्य का वर्णन―यह रत्नकरंड का प्रथम अधिकार चल रहा है, जिसमें पूर्व संकल्प के अनुसार सम्यग्दर्शन का वर्णन किया जा रहा है । सम्यग्दर्शन, सच्चे आप्त, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु का श्रद्धान करना, यदि यह बात आ गई तो उसको अपने आत्मा का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण भी आ गया, क्योंकि देव क्या है? जैसा सहज स्वरूप है वैसा ही प्रकट हो जाना, बस यह ही देव है । शास्त्र क्या है? जैसा आत्मा का सहज स्वरूप है उसके समझने के लिए वैसा करना यह हीं आगम है । गुरु क्या है कि जैसा आत्मा का सहज स्वभाव है उसके विकास के लिए जो पौरुष करता है वह गुरु कहलाता है । तो जिन्होंने देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान किया उनको आत्मतत्त्व का सत्य श्रद्धान है ही । तब फलित बात यह है कि जो अपने आत्मा के सहज चैतन्यस्वरूप में यह मैं हूँ, ऐसा विश्वास रखता है, प्रतीति करता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है । तो सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व की क्या महिमा है, उस महिमा का यहाँ अंत में सब वर्णन चल रहा है कि सम्यग्दृष्टि जीव जितने भव संसार में रहेगा उनमें अच्छे ढंग से रहेगा और अंत में समस्त भवों को त्यागकर उनसे मुक्त होकर, अष्ट कर्मों से रहित होकर, विभाव और शरीर से रहित होकर केवल ज्ञानपुंज रहकर लोक के अग्रभाग में ठहरेगा और वहाँ अनंतकाल तक के लिए सहज अनंत आनंद पायगा । यह सब सम्यक्त्व का प्रताप जानकर जीवन में एक सम्यक्त्व का ही उद्यम हो, ऐसा अपना पौरुष होना चाहिए ।