वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 345
From जैनकोष
केहिंचि दु पज्जयेहिं विणस्सए णेव केहिंचि हु जीवो।जम्हा तम्हा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो ।।345।।
केहिंचि दु पज्जयेहिं विणस्सए णेव केहिंचि हु जीवो।जम्हा तम्हा वेददि सो वा अण्णो व णेयंतो।।346।।सो चेव कुणइ सो चिय ण वेदए जस्स एस सिद्धंतो।सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।।347।।अण्णो करेदि अण्णो परिभुंजदि जस्स एस सिद्धंतो।सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।।348।।
आत्मद्रव्य की द्विस्वभावता―बात ऐसी है कि यह जीव प्रतिसमय संभव होने वाले अगुरूलघुत्व गुण के परिणमन द्वार से क्षणिक होने के कारण अपने चैतन्य की सीमा का उल्लंघन न करके किन्हीं रूपों से तो यह नष्ट होता है और किन्हीं रूपों से यह नष्ट नहीं होता है। ऐसा दो प्रकार का स्वभाव जीव के पड़ा हुआ है, अर्थात् द्रव्यदृष्टि से वह नष्ट नहीं होता है और पर्यायदृष्टि से उसका विनाश होता है। एक जीव में ही क्या, प्रत्येक पदार्थ में यह द्विस्वभाव पायी जाती है। परमार्थरूप और माया रूप ये प्रत्येक पदार्थ में पाये जाते है। इसी कारण यह एकांत नहीं करना कि जो करता है वह नहीं भोगता, कोई अन्य भोगता है, या यह भी एकांत न करना कि जो करता है ऐसा वही भोगता है। यदि ऐसा मानोगे कि जो करता है वही भोगता है, किया तो मनुष्य ने और भोगा देव ने, और यदि यह कहेंगे कि करता और है, भोगता और है तो भले ही देव बनकर भोगे मगर भोगा तो उस ही जीव ने न, इसलिए यहां कोई भी एकांत नहीं करना, कथंचित् कर्ता भोक्ता न्यारे-न्यारे हैं व कथंचित् कर्ता भोक्ता वे ही के वे ही हैं।
कूटस्थता व क्षणक्षयिता में अर्थक्रिया की असंभवता―केवल क्षणिकवाद में और केवल अपरिणामीवाद में दोनों में ही काम नहीं चल सकता। सुबह आपकी दुकान से कोई उधार सौदा ले आए और आप दोपहर को पैसा मांगेंगे तो गुंजाइश है उसे यह कहने की कि सुबह और कोई आत्मा था, अब हम दूसरे आत्मा बैठे हैं।
क्षणक्षयिता के छल में एक विडंबना का उदाहरण―एक पंडित जी के तीन चार गायें थीं। एक ग्वाला उन्हें चराया करता था। प्रति गाय 1) रूपया महीना उसका बंधा हुआ था। तो जब महीना भर हो गया, दूसरा महीना लगा तो उस ग्वाले ने कहा कि पंडित जी अब गायों की चराई हमें दो। तो पंडित जी बोले कि जिसकी तुम गायें ले गए थे, वह आत्मा तो दूसरा था, अब हम पंडित जी और बैठे हैं। सो कौन चराई दे ? जिस आत्मा ने तुम्हें गायें देने का निर्णय किया था वह आत्मा तो उसी समय नष्ट हो गया, अब तो और आत्मा है। यह उत्तर सुनकर वह ग्वाला चला गया। दूसरे दिन उसने सब गायें अपने घर में बाँध लीं। रोज गायें पहुंचा देता था पंडित जी के यहां, पर उस दिन न पहुंचायी। पंडित जी ग्वाला के यहां गये, बोले आज हमारी गायें क्यों नहीं बांधने आये ? तो ग्वाला कहता है कि पंडित जी जो सुबह गैया ले गया था वह आत्मा दूसरा था, अब मैं दूसरा हूँ। सो तो सुबह ले गया होगा वही आत्मा बांधने जायेगा। पंडित जी बोले कि तुम्हीं तो लेकर गये थे तो ग्वाला कहता है कि पंडित जी तुम्हीं ने तो हमें गैया चराने को दी थी। हमें गैयों की चराई दे दो।
स्याद्वाद बिना व्यवस्था की अनुत्पत्ति―सो भैया ! व्यवस्था कहां बन सकती है? क्षणिकवाद में भी वस्तुस्वरूप का यथार्थ दिग्दर्शन कराने वाले स्याद्वाद सिद्धांत की सामर्थ्य तो देखो-इसके बिना व्यवहार भी नहीं चल सकता, तत्त्वज्ञान भी नहीं हो सकता, शांति का उपाय भी नहीं पाया जा सकता। सो वस्तु में ऐसा अनेकांत है कि यह जीव जो करता है, भोगता दूसरा जीव है, यह भी सही है और यही करने वाला है, यही भोगने वाला भी है, यह भी सही है। जीव में द्रव्यपर्यायात्मकता का स्वभाव पड़ा हुआ है। द्रव्यदृष्टि में जो कर्ता है वही भोक्ता है, पर्यायदृष्टि में करने वाला और है व भोगने वाला कोई दूसरा है―ऐसा अनेकांत होने पर भी जो पुरूष उस क्षण में वर्तमान ही परिणमन को, वृत्ति को परमार्थ सत् के रूप से वस्तु मान लेते हैं,, सो उन्होंने अपने ज्ञान में तो चतुराई की कि भाई शुद्धनय का परिज्ञान करो, ऐसा शुद्ध देखो कि जिसका फिर खंड न हो सके। ऐसा शुद्ध वर्तमान एक समय का परिणमन मिला, उसका खंड नहीं हो सकता। तो शुद्ध ऋजुसूत्रनय के लोभ से वे इस एकांत में आ गए कि जो करता हैं वह नहीं भोगता। दूसरा कर्ता है दूसरा भोक्ता है, सो ऐसा जो देखता है वह मिथ्यादृष्टि ही जानना चाहिए।
स्याद्वादसिंधु से सिद्धांत सरिताओं का शरण―स्याद्वाद की कुंजी बिना सिद्धांतों का जाल इतना गहरा है कि सीधी सीधी सामने की बात तो न मानी जाय और टेढ़ी मेढ़ी जिसको सिद्ध करने में जोर भी पड़ता हैं, बातें भी ढूंढ़नी पड़ती हैं, ऐसी बात मानने में अपनी बुद्धिमानी समझी जाती है। ठीक है। कीमत तो तब बढ़ेगी कि जैसा सीधा जानते हैं वैसा न कहकर कोई विचित्र बात बतायी जाय तभी तो बुद्धिमान् बन पावोगे। तो ऐसा वाग्जाल एकांत सिद्धांत का हुआ। अथवा कुछ वाग्जाल नहीं है। ये सर्वसिद्धांत स्याद्वाद सिंधु से निकले हैं। कौनसा सिद्धांत ऐसा है जो वस्तु में सिद्ध न होता हो ? किंतु दृष्टि और अपेक्षा लगाने की सावधानी होनी चाहिए।
क्षणिक वृत्तियों में वृत्तिमान की ध्रुवता―बात यहां ऐसी है कि यद्यपि जीव की वृत्ति क्षणिक है अर्थात् जो परिणमन जिस समय में हुआ है वह परिणमन अगले समय में नहीं रहता, फिर भी जिस आधार में जिस वस्तु का यह परिणमन चल रहा है, ऐसी वृत्तिवाला पदार्थ चैतन्य चमत्कार मात्र यह जीव टंकोत्कीर्णवत् निश्चल अंतरंग में प्रतिभासमान् शाश्वत रहता है। यह कुछ दार्शनिक चर्चा थोड़ी सी आध्यात्मिक शैली में की गयी। अध्यात्मग्रंथों में दर्शनशास्त्र की चर्चा अधिक नहीं होती है, कुछ प्रकरण वश यह कह दिया गया है। इसके लिए तो जो न्याय ग्रंथ हैं प्रमेयकमलमार्तंड, अष्टसहस्री, न्यायकुमुद चंद्रोदय आदि ग्रंथों को देखना चाहिए। उनसे यह बात और स्पष्ट ज्ञात होती है।
क्षणिकवाद अपरिणामवाद की प्रतिक्रिया―भैया ! प्रयोजन यहां इतना था कि जैसे परिणति से स्वयं सुख दु:ख करने वाला मानने वालों को यह खतरा था कि वे स्वच्छंद हो जाते, हम तो शुद्ध ही हैं, कौन खाता, कौन पीता, कौन राग करता, यह सब प्रकृति करती है। सो इसमें अपने आप मोक्षमार्ग का उसे उत्साह ही न जगता। तो उसका यहां खतरा बचाया अर्थात् अपरिणामी मानता था सो उसे परिणामी बता दिया कि नहीं यह जीव परिणामी है, परिणमनशील है। अब इतनी बात सुनकर इस क्षणिकवाद ने बहुत तेज परिणाम मान लिया और इतना कि उन परिणामों को परिणमन ही न कहकर पूरी वस्तु कह डाला। तब यह दूसरी शंका खड़ी हुई कि करने वाला और है, भोगने वाला और है। इस तरह दोनों एकांतवाद में मोक्ष का हल न निकल सका।
एक पदार्थ में द्रव्यदृष्टि व पर्यायदृष्टि के निर्णय―देखो भाई कितना अंधेर मच गया कि करता तो और है, भोगता और है। अपराधी तो अपराध करे और निरपराधी दंड भोगे। इसका क्या उत्तर है ? तो क्षणिकवाद का उत्तर बतलाते हैं कि अपराध वहां इतना है कि यह भ्रम लग गया कि यह मैं आत्मा वही हूँ जो पहिले था। ऐसा मानने का अपराध न करता तो भोगता नहीं कुछ दंड। अहो ! ये सब बातें पदार्थ की द्विस्वभावता जाने बिना घर करती है। जीव में द्रव्यपर्यायात्मकता पड़ी हुई है, सो द्रव्यदृष्टि से यह जीव वही का वही है और पर्यायदृष्टि से वह पर्याय नहीं है जो पर्याय पहिले थी, अब वह पर्याय दूसरी हो गयी। मगर बात क्या है और किस तरह से उसका समर्थन किया जा रहा है ?
विद्या के साथ प्रतिभा की आवश्यकता―दो भाई थे। तो छोटा भाई बनारस पढ़ करके बड़ा विद्वान् होकर लौटने लगा। सो जब घर लौटने लगा तो घोड़े पर बड़ी-बड़ी किताबें लादकर और भी अपना सामान लादे हुए एक गांव से निकला। उस गांव में वह बोला कि हम विद्वान् हैं, काशीजी से पढ़कर आए हैं, कोई शास्त्रार्थ करना चाहे तो आ जाये मैदान में। सो उस गांव में एक पुराना चौधरी था वह शास्त्रार्थ करने को आया। वह पहिले ही ठहरा लेता था कि अगर हम हार गए तो अपना सारा धन तुम्हें दे देंगे और अगर जीत गए तो हारने वाले का सारा सामान हम ले लेंगे। सो उससे भी ठहरा लिया कि अगर हार गए तो सब कुछ छीन लेंगे। विद्वान् ने कहा कि अच्छा करो प्रश्न। उसने कहा सरपटसों। दो उत्तर। उसने कही भी सरपटसों न पढ़ा था, सो क्या उत्तर दे ? शास्त्रों को इधर-उधर उल्टा-पुल्टा पर कही सरपटसों न मिला। सो वह हार गया। चौधरी ने उसका सब सामान छीन लिया। जब वह अपने घर गया तो भाई से सारा किस्सा कह सुनाया। भाई बोला कि तुम पढ़े लिखे हो पर गुने नहीं हो। बोला कि हम जाते हैं शास्त्रार्थ करेंगे।
अब बड़ा भाई घोड़े पर अखबार वगैरह लाद लूदकर शास्त्रार्थ करने उस गांव पहुंचा। बोला कि हम विद्वान् हैं, शास्त्रार्थ जिसको करना हो कर सकता है। आ गये वही चौधरी साहब। तो चौधरी साहब ने कहा कि यदि तुम शास्त्रार्थ में हार जावोगे तो सब तुम्हारा सामान छीन लेंगे और यदि जीत जावोगे तो अपना सारा सामान दे देंगे। कहा अच्छा करो प्रश्न। चौधरी साहब ने वही प्रश्न किया सरपटसों। दो उत्तर। वह बोला कि तू तो कुछ समझता ही नहीं है, अधूरा श्लोक बोल रहा है। उसने चौधरी को उठा लिया, फिर जमीन पर पटका और कहा कि पहिले धम्मक धइयां, फिर सूषा की तरह पटका तो कहा कि पट्टक फों। फिर जमीन पर खूब पटका, ,खिचड़ी सी पकाया कहा खदर बदर, फिर कहा सरपट सों। याने खिचड़ी की सरपट सों करना हो तो सारी विधि इस छंद में बताई गई है कि पहिले करो धम्मकधों याने उखरी में चावल कूटो फिर करो, फट्टक फों याने सूप से फटक लो, चावल शुद्ध कर लो फिर हंडी में खदर बदर करो याने पकावो जब खिचड़ी पक गयी तब तो होगी सरपटसों कि पहिले हो जावेंगी याने खिचड़ी पक जाने पर ही तो सरपटसों करके खायी जायेगी। तो कहा कि तुम हारे कि नहीं ? हारे। सो चौधरी साहब का जितना धन था सब छीन छानकर और भाई का जो सामान था वह भी छीन छानकर उसी घोड़े पर लादकर घर आया। सो भैया, किसी भी बात में कुछ प्रतिभा का भी तो कार्य करना चाहिये।
पदार्थ में द्रव्यपर्यायात्मकता की दृष्टि―इस प्रकरण में सर्व प्रथम यह बात बता रहे है कि द्रव्ययायार्थिकनय की दृष्टि से जो कर्म को करते हैं वे ही कर्म को भोगते हैं क्योंकि द्रव्यायार्थिकनय से जब तत्त्व को देखते हैं तो वही जीव है अब मनुष्यपर्याय में है जो जीव पहिले किसी अन्य पर्याय में था तो जिसने पहिले किया था वही अब भोग रहा है, पर पर्यायार्थिकनय से देखा जाय तो करने वाला और होता है, भोगने वाला अन्य होता है, ऐसा जो मानता है वह है सम्यग्दृष्टि। पर्यायार्थिकनय का मतलब है कि पर्याय ही देखने का जिसका प्रयोजन हो। जब पर्याय के रूप से वस्तु को निरखते हैं तो किन्ही पर्यायों से तो यह नष्ट होता हैं और किन्ही पर्यायों से यह उत्पन्न होता है।
उत्पाद व्यय की युग पत्ता―भैया ! नष्ट होना और उत्पन्न होना एक ही समय में होता है, भिन्न-भिन्न दो समय नहीं हैं। जैसे घड़ा फूट गया, खपरियां हो गयी तो घड़े का फूटना और खपरियों का बनना दोनों एकसाथ होते हैं, याने खपरियों के ही बनने का नाम फूटना है। तो केवल चाहे संभव संभव से देखते जावो और विलय विलय से देखते जाओ, प्रत्येक समय नया-नया परिणमन होता रहता है। भोगने वाला भी द्रव्य नहीं है, पर्याय है, करने वाला भी द्रव्य नहीं है, पर्याय है। यह पर्याय द्रव्य से अलग नहीं है कि द्रव्य तो कर्ता भोक्ता से रहित है और पर्याय कर्ता भोक्ता है ऐसे दो भाई नहीं हैं कि बराबरी के किंतु द्रव्य परिणमनशील है, सो उस वस्तु में जो परिणमन अंश तका जा रहा है वह तो करने वाला और भोगने वाला है और उस ही पदार्थ में जो अपरिणामी अंश तका जा रहा है वह न करने वाला है और न भोगने वाला है। कोई दो भाईयों की तरह बराबरी के दोनों नहीं है कि द्रव्य भी है और पर्याय भी है। वस्तु एक है पर वह शाश्वत है और परिणमनशील है। शाश्वत अंश को देखते हैं तो वहां कर्ता भोक्ता नहीं बनता और परिणमन अंश को देखते हैं तो वहां कर्ता भोक्ता बनता है।
दृष्टियों से सिद्धांत का निर्णय―जब यह जीव द्विस्वभाव वाला है सो द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से वह ही पुरूष कर्म को करने वाला है जो भोक्ता है किंतु पर्यायार्थिक दृष्टि से करने वाला दूसरा हो गया, भोगने वाला दूसरा हो गया, एकांत नहीं है, इसी तरह भोगने में भी लगावो वह ही भोक्ता है जो कर्ता है, यही है द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि की बात। सो भी अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। जो जीव कर्ता है वह ही जीव भोक्ता है। यह द्रव्यार्थिकनय से तो है परंतु अशुद्धद्रव्यार्थिकनय से हैं, अर्थात् जिसमें कर्ता भोक्ता की कल्पनाएँ बनायी गयी है ऐसा द्रव्य करने वाला और भोगने वाला है। पर्यायार्थिकनय से करने वाला और है, भोगने वाला और है। पढ़ा तो विद्यार्थी ने है और नौकरी करी पंडितजी ने, पढ़ा तो स्टूडेन्ट ने और सर्विस करी बाबूजी ने। तो इसमें द्रव्यार्थिकनय दृष्टि से देखो तो जीव यही है जिसने पढ़ा था और उसी ने सर्विस की। पर पर्यायार्थिक दृष्टि से देखो तो पढ़ने के समय की इच्छा आदतें सब भिन्न थी और अब सर्विस के समय इच्छा आदतें सब भिन्न हैं। सो करने वाला और है, और भोगने वाला और है।
पर्याय के अनुरूप व्यावहारिकता-जैसे किसी की पहिले घनिष्ठ मित्रता हो तो मित्रता के समय में बहुत से वायदे कर लिए जाते हैं और बहुत से सहयोग की बातें की जाती हैं। तो बड़े वायदे किये मित्रता में और बड़ा सहयोग दिया, फिर बीच में उस दूसरे मित्र ने कुछ कपट खेला जिससे उसका दिल फट गया। अगर वह कपटी मित्र से कहे कि क्यों भाई कल तो तुम यों कह रहे थे, आज क्या बन गये, तो वह क्या कहता है कि कल यह दूसरा था आज दूसरा बन गया। अर्थात् कल तक जो आत्मा था वह अब नहीं रहा। तो पर्याय की मुख्यता ही तो रही।
पर्याय के अनुकूल गति―एक मित्र था, सो वह बीमार मित्र को देखने गया, बड़ा तेज बुखार था। खबर पूछी कहो भाई कैसी तबीयत है ? वह कहता है कि क्या बताऊँ भाई तबीयत बड़ी खराब है, बिस्तर से उठा नहीं जाता, बोला नहीं जाता। खबर दबर लेकर वह चला गया। दूसरे दिन फिर वह मित्र गया। वह मर चुका था। लोगों से पूछता है दरवाजे पर कि कहो भाई मित्र की तबीयत कैसी है ? कहा कि वह तो दुनिया से चला गया। उसे बड़ा गुस्सा आया। बोला कि कल तो यूं कहे थे कि बिस्तर से उठा जाता नहीं और आज दुनिया से भी चलने की ताकत आ गई। अरे भाई जो बिस्तर से उठा नहीं जाता था वह परिणमन दूसरा था, अब जो दुनिया से चला गया वह परिणमन दूसरा है। तो वही कर्ता है और वही भोक्ता है यह द्रव्यार्थिकनय से है। करने वाला और है भोगने वाला और है, यह पर्यायार्थिकनय से है।
परिणति की विविधता व ज्ञान का सामन्जस्य―मनुष्य भव में जो शुभ कर्म किया उसको देवलोक में जाकर भोगेंगे, ठीक है, पर उसने ही तो भोगा ना और जब पर्यायार्थिक की मुख्यता से देखा तो जो करने वाला है वह भोगने वाला नहीं है, अन्य भोगने वाला है। मनुष्य ने किया और देव ने फल भोगा ऐसा हो ही जाता है। जो आपके आचार्य कुंदकुंदाचार्य समंतभद्र, अकलंकदेव आदि बड़े ज्ञानी तपस्वी आचार्य हुए हैं तो जब वे आचार्य थे तब तो ऐसी बातों को कहा करते थे कि विषभोग असार है, देवगति हेय है, इन सब बातों का वर्णन करते थे और अब्रह्म की तो बहुत अधिक निंदा करते थे, तो वे मोक्ष तो गए नहीं, अंदाज ऐसा है कि देव हुए होंगे, तो सैकड़ों हज़ारों देवियों के बीच गानतान होते रहते होंगे, मस्त होते रहते होंगे, यह हाल हो रहा होगा, जो शुभ कर्म किया उसका फल भोगा, पर सब ज्ञान की महिमा है, ऐसा तो उन्हें होना ही पड़ा होगा, पर भेदविज्ञान वहां भी जागृत होगा तो सब महफिल के बीच रहकर भी वे अपने ज्ञान और वैराग्य की दृष्टि बनाये होंगे।
ज्ञान से ही संभाल―भैया ! संसार की परिस्थितियों से बचकर कहां जायें ? यहां जो अपने ज्ञान को और वैराग्य को संभाल सकता है उसकी ही विजय है। जैसे यहां गृहस्थी में रहकर कोई यह सोचे कि इतना उद्यम कर लें इतने धन का अर्जन कर लें, बच्चों को इतना पढ़ा लिखा दें, इनकी शादी कर दें तब निश्चिंत हो जायें, फिर खूब धर्मसाधना करेंगे, तो वह कभी निश्चिंत हो ही नहीं सकता। क्या करें, धन कमा लिया, फिर इच्छा होगी कि इतना और कमा लें, धन कमा लेने के बाद उसकी रक्षा करना है। लड़के की शादी कर दी, लड़की की शादी कर दी, फिर किसी लड़का था लड़की की शादी करना है। अभी एक नाती की शादी कर ली, फिर दो साल बाद एक नाती हो गया। फिर उसकी शादी करने की बारी आयी। एक साल में ही लड़के पैदा होने का हिसाब एक घर में ही लगा लो किसी के 5-6 लड़के हों तो एक का एक लड़का हुआ, फिर एक साल बाद दूसरे के लड़का होने का नंबर आयेगा। अब बतलावो कब निवृत्त होंगे ? तो बाहर में हम परिस्थितियों को इस प्रकार बना लें तब आराम से निर्विघ्न निश्चिंत होकर धर्मसाधना करेंगे यह सोचना बिल्कुल व्यर्थ है।
धर्मसाधनार्थी का कर्तव्य―जिसके धर्मसाधना की मंशा हो, कैसी ही विकट आज की परिस्थिति हो उस परिस्थिति में भी अपना समय अपना उपयोग धर्मसाधना में लगाएँ। वह बात तो है सच्ची और इतना संचय कर लें, यह कर लें ऐसा सोचना है बिल्कुल झूठ। रात्रि के समय अष्टाह्निका में अरहद्दास सेठ की 7 सेठानी बातें कर रही थी। सम्यग्दर्शन की कथा हो रही थी। सम्यग्दर्शन मुझे इस तरह हुआ। तब सबने कहा बिल्कुल सच। छोटी सेठानी कहे बिल्कुल झूठ। दूसरी सभी सेठानी कहें बिल्कुल सच। वे सभी बातें पीछे खड़ा-खड़ा राजा सुन रहा था। राजा सोचता है कि यह कथन तो हमारे सामने का है, फिर यह छोटी सेठानी झूठ क्यों कहती है ? सोचा कि कल न्याय करेंगे। सेठानी के घर भर को राजा ने बड़े आदर से बुलाया। राजा ने छोटी रानी से पूछा कि बतावो बेटी, रात्रि को जो सम्यग्दर्शन की कथा हो रही थी उसमें सभी सेठानियों ने तो कहा कि बिल्कुल सच और तुम कह रही थी बिल्कुल झूठ। तो बतावो क्या बात थी ? छोटी सेठानी ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। सारे गहने अपने उतार दिये, सारे कपड़े उतारकर केवल धोती पहनकर चल दी, और कहा कि महाराज सच तो यह है। जंगल को चल दी।
अंत:पुरूषार्थ की आवश्यकता―सो भाई ! गप्पों से पेट नहीं भरता, यह बात तो जल्दी समझ में आ जाती है क्योंकि पेट में तो ऐसी खलबली सी मचती है। तो यह बात समझ में जल्दी आ जाती है। ज्ञानवृत्ति द्वारा ज्ञान को लक्ष्य में लें, महान् पुरूषार्थ जगे तो शांति मिलती है, बातों से शांति नहीं मिलती है। इसका नाम बात रखा है। बड़ा अच्छा नाम है। बात हवा को भी कहते हैं। बातें करना मायने हवा के घोड़े उड़ाना अथवा बात करना मायने हवा जैसी बातें छूटना तो बातों से काम नहीं बनता। जो मार्ग बताया है उस मार्ग से चलें तो शांति प्राप्त होती है अन्यथा नहीं।
गप्पों से सिद्धि का अभाव―अभी यहां से कोई ग्वालियर जा रहा हो तो कोई सेठानी उससे कहे कि देखो हमारे मुन्ना को एक खेलने को पेंच का जहाज ले आना, फिर कोई दूसरी सेठानी कहे कि हमारे मुन्ने को खेलने को रेलगाड़ी का इंजन ले आना, कोई सेठानी कहे कि हमारे नन्हे मुन्ना को खेलने की मोटर ले आना। इसी तरह दसों सेठानी आकर उससे कुछ न कुछ लाने को कहें, और एक कोई बुढ़िया उसे तीन नये पैसे नकद देकर कहे कि हमारे मुन्ना को एक मिट्टी का खिलौना ले आना। तो वह कहेगा कि बुढ़िया मां मुन्ना तो तेरा ही खिलौना खेलेगा और सभी सेठानियों ने तो गप्प मार दी है। उनके मुन्ना खिलौना नहीं खेल सकते। सो उपयोग वही आनंदमग्न होगा जिस उपयोग ने अपने आत्मस्वरूप को लक्ष्य में लिया है, ज्ञानस्वरूप को जिसने ज्ञान में लिया है वही उपयोग आनंदमयी हो सकेगा, बाकी तो सब बातें हैं।
परिणमनों की योग्यतायें―जिसने किया उसने ही भोगा, यह भी सत्य है। किया दूसरे ने, भोगा दूसरे ने यह भी सत्य है। जैसे कोई बालक छोटी उमर में ही बी0 ए0 पास हो गया तो भी उसका खेलना दौड़ना कूदना फांदना बंदर की तरह ही होगा। अब कोर्इ कहे कि अरे तुम बी0 ए0 हो गए, अब तो बड़े बाबूजी की तरह रहा करो, तो वह क्या करे, बचपन ही तो है। और वही पुरूष जवान हो जाय तो कहो कि उसी तरह बच्चों जैसा खेलों, कूदो, दौड़ों तो वह वैसा नहीं कर सकता है। ये जो वृद्ध बैठे हैं ये भी कभी बच्चे थे, आज के बच्चों से बढ़िया बच्चे थे। अब बच्चों का उतना लाड़ प्यार नहीं रहा जितना कि पहिले था। अब इन बूढ़ों से कहो कि वैसी ही क्रियाएँ करो जो बचपन में करते थे―खेलते कूदते थे, निर्विकार रहते थे, वैसी ही क्रियाएँ अब भी करो, तो वे अब कहां से वैसी क्रियाएँ करें ?
द्रव्यपर्यायमय पदार्थ में एकांत के आशय का मिथ्यापन―इस एक भव में ही बाल्यावस्था में लगाए हुए पेड़ का फल जवानी में भोगने को मिलता है। किसी ने बचपन में कोर्इ पेड़ लगा दिया तो वह पेड़ 10 वर्ष के बाद में तैयार होगा, फिर उसमें फल आयेंगे। तो भवांतर की अपेक्षा भी यह बात है कि मनुष्य ने किया और देव पर्याय ने भोगा, तो करने वाला और है, भोगने वाला और है। तो ऐसा एकांत मान ले कोई कि नहीं भाई जो करता है सो भोगता है, अथवा ऐसा एकांत मान लिया कि करने वाला और है, भोगने वाला और है तो उसे मिथ्यादृष्टि ही समझना, क्योंकि जब एकांत से नित्य कूटस्थ अपरिणामी टंकोत्कीर्णवत् निश्चल यह पुरूष है तो उसका परिणमन तो हो ही नहीं सकता। मनुष्य से देव बनना तो उसके होता ही नहीं है। वह तो वही का वही है तो फिर कर्ता भोक्ता बने कैसे ? अथवा मोक्ष का भी साधन वह क्या करेगा ? वह तो कूटस्थ अपरिणामी है।
कूटस्थता का तात्पर्य―भैया ! कूटस्थ मायने क्या हैं कि जो लुहार की दुकान में धौंकनी लगी रहती है, उसके आगे एक लोहे का बड़ा चौड़ा मजबूत डंडा गड़ा रहता है जिस पर गरम लोहा धरकर कूटा जाता है उसका नाम है निहाई। तो आप देखो कि गर्म लोहे को उस पर रख लिया और संमसी से पकड़ लिया। कूटने वाले तीन लोग खड़े हो गए। बारी बारी से घमाघम कूटते हैं, उस समय कूटने वालों के हथौड़े भी बड़ी तेजी से चल रहे हैं, जो लोहा कुट रहा है वह भी खूब परिणमन कर रहा है, समसी भी अपनी क्रियाएँ कर रही है, पर निहाई महारानी एक जगह जहां की तहां धरी है। जरा भी नहीं हिलती। तो जैसे वह निहाई कूटस्थ है कहीं परिणमन नहीं करता, इसी तरह जिसका आत्मा कूटस्थ है, रंच भी परिणमन नहीं करता। कहते हैं कि जब परिणमन ही नहीं है तो वहां करने और भोगने का सवाल ही नहीं उत्पन्न होता। मोक्ष का साधन काहे करना ?
एकांत के हट में आपत्ति―अच्छा तो इस अपरिणामीपन का एकांत मानने में यह दोष आया और जो सिद्धांत ऐसा मानते कि करने वाला और है, भोगने वाला और है, सर्वथा भिन्न है, तो जैसे मनुष्य भव में पुण्यकर्म किया, उस पुण्यकर्म का देवलोक में अन्य कोई भोक्ता हुआ तो बिना ही करे दूसरा भोक्ता हुआ तो ऐसी हमें क्या गरज पड़ी कि तपस्या में तो हम मरे और देव बनकर दूसरा आत्मा मौज लूटे। मुनि तो साधु बने और कर्म कट जाने पर दूसरा मौज लूटे। कहते हैं कि करने वाला और भोगने वाला बिल्कुल भिन्न है तो समझलो कि वहां कुछ व्यवस्था नहीं रह सकती। इस तरह सामने दो पुरूषों का जवाब दिया जा रहा है। जो नित्य अपरिणामी मानता है उसके यहां क्या आपत्ति आती है और जो सर्वथा क्षणिक न्यारा-न्यारा मानता है उसके क्या आपत्ति आती हैं ?
असत् की उत्पत्ति में आपत्ति―भैया ! सीधा हम यह भी कह सकते कि जब न्यारा-न्यारा आत्मा पैदा होता है तो यह क्या वजह है कि उस ही शरीर में जो नया आत्मा पैदा हो वह पहिले के किए हुए का भोगने वाला बने ? कभी नहीं हो सकता कि आप करने वाले हो जाएँ और हम भोगने वाले बन जाएँ, क्योंकि हम आपसे भिन्न हैं, और एक शरीर में भी जो नये-नये आत्मा बनते हैं वे भी भिन्न हैं। इस कारण यह बात नहीं बनती है कि करने वाला और है और भोगने वाला और है। एक समाधान इसमें यह कहते हैं वे क्षणिकवादी हैं, भाई एक शरीर में जो नये-नये आत्मा बनते हैं उनमें तो यह बात बन जाती है कि एककी की हुई बात को दूसरा भोग ले। जैसे एक दीपक की नई-नई बूंदें जलती है तो वहां संतान बन जाते हैं पर भिन्न-भिन्न दीपकों में उन बूँदों में संतान नहीं बन सकते। किंतु यह बात भी ठीक नहीं बैठती। कारण यह है कि इस जगत् में कोई भी वस्तु ऐसी नई पैदा नहीं होती, जिसका उपादान कुछ न हो और हो जाय। असत् चीज पैदा नहीं होती। असत् चीज पैदा होने लगे तो कहो यहां 10, 20 सिंह अभी पैदा हो जायें। और हम आप सभी को यहां से भागना पड़ेगा, पर कैसा विश्वास है कि यहां सिंह पैदा ही नहीं हो सकते। क्योंकि न यहां सिंह है और न सिंहनी है। कुछ भी हो, असत् चीज कभी पैदा नहीं होती। तो यह वस्तु की व्यवस्था है कि जो सत् हैं वही अपनी नई नई अवस्था बनाता है।
शुद्धता के आशय में गमन का चिंतन―तो यहां यह प्रकरण बताया है कि तुम अपने आत्मा का यह निश्चय करो कि मेरा आत्मा वही है जो पहिले था, किंतु अवस्था पर्यायें नई-नई बनती रहती हैं, ऐसा नित्यानित्य स्वभावरूप यह मेरा आत्मा है। अब इस आत्मा की शुद्धता का लोभ लग गया सबको। क्या जैनों को इसका लोभ नहीं है ? पर अपरिणामवादियों ने इस आत्मा को इस ढंग से शुद्ध माना है कि वह परिणमता ही नहीं है तो अशुद्ध क्या बनेगा और क्षणिकवादियों ने आत्मा को इस तरह शुद्ध माना है कि वह एक समय रहता है दूसरे समय रहता ही नहीं, तो खोटा क्या बनेगा ? तो शुद्ध मानने के लिए दोनों के अभिप्राय में बेईमानी किसी के नहीं है पर स्याद्वाद का मार्ग मिले बिना अपने लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकते। अरे वस्तु वह एक ही है। द्रव्य दृष्टि से देखो तो यह शाश्वत शुद्ध है, पर्यायदृष्टि से देखो तो यह अभी अशुद्ध है और अशुद्ध मिटकर कभी शुद्ध भी बन सकता है, यह यहां इस प्रकरण का निष्कर्ष है।
शुद्धता के लोभ में सत्त्व का भी विनाश―पहिले यह प्रकरण चल रहा था कि जीव अपरिणामी है। जीव में किसी भी प्रकार की कोई तरंग नहीं होती। तब क्षणिकवाद में जहां जीव अपरिणामी बताया गया है, न मानने पर क्षणिक वादियों को यह दिखता है कि यह जीव नित्य बन जायेगा, कई समयों में रहने वाला बन जायेगा तो इसमें काल की उपाधि लग जायेगी। शुद्ध देखने का ध्येय अपरिणामवादियों का भी है, शुद्ध देखने का ध्येय वृत्त्यंशवादियों का भी है, अपरिणामवादी जीव को निस्तरंग देखने में शुद्ध का संतोष करते हैं, और क्षणिकवादी एक ही समय रहते हैं पदार्थ, जब दूसरे समय नहीं रहते हैं तो उसमें अशुद्धता की बात ही क्या करें, इस तरह से अधिक शुद्ध मानने का यत्न करते हैं। सो इस चैतन्य को क्षणिक मानकर शुद्ध ऋजुसूत्रनय से प्रेरित होकर इन क्षणिकवादियों ने आत्मा का ही त्याग कर दिया।
निरंशवाद का सिद्धांत―यहां एक बात खास जानने की यह है कि जब तक उनका पूरा सिद्धांत जानने में नहीं आये तब तक ऐसा लगता है कि इसने कुछ कहा ही नहीं है। क्षणिकवादी केवल पदार्थ को एक समयवर्ती मानते हैं। इतना ही नहीं, किंतु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में से यहां काल का निरंशपना है। उनका सिद्धांत है कि पदार्थ द्रव्य से निरंश है, क्षेत्र से निरंश है, काल से निरंश है, भाव से निरंश है। काल से निरंश होने का अर्थ है क्षणिक होना, एक समय ही रहना और द्रव्य से निरंश का अर्थ है अविभाज्य एकात्मक होना। शक्ति का पुंज नहीं है, पर्याय का पिंड नहीं है, गुण पर्याय का पिंड मानने पर द्रव्य का निरंश नहीं रह सकता। तो द्रव्य भी निरंश है, अर्थात् एकात्मक है, अनंतगुणों का पिंड नहीं है। क्षेत्र से निरंश होने का मतलब है कि प्रत्येक द्रव्य एकप्रदेशी है, क्षेत्र से उसका अंश नहीं है, बहुप्रदेशी नहीं है। यदि बहुप्रदेशी बन गया तो उसमें निरंशपना नहीं रहता। निरंशपना ही परमार्थ तत्त्व है, यही तो निरंशवादियों का मूल सिद्धांत है।
निरंशता के एकांत में आत्मविनाश―भैया ! निरंशता का तो आप भी आदर करते हैं। जब प्रभु की पूजा करते हो तो कहते हो कि हे प्रभु ! तुम निरंश हो । यहां निरंश का भाव है अवाणु शुद्ध। काल का निरंशपना है एक समयमात्र ही पदार्थ का रहना, और भाव का निरंशपना है वस्तु का स्व लक्षण मात्र होना। पदार्थ का कोई भी लक्षण, चिन्ह, परिचय, मुख से नहीं कह सकते। जो मुख से कहते हैं वह सब व्यवहार है। परमार्थत: जो सत्य है वह स्वलक्षणमात्रपना है। इस प्रकार चारों दृष्टियों से पदार्थ को निरंश मानने वाले निरंशवादी पदार्थ को क्षणिक मानकर कर्तृत्व भोर्क्तृत्व की एकता का निराकरण कर रहे हैं। सो और इसी स्थिति में उन्होंने आत्मा ही छोड़ दिया। जैसे माला से सूत टूट जाय तो उसकी सभी गुरियां ग्रहण में नहीं आ सकतीं, इधर उधर बिखर जाती हैं। माला ही छूट गयी। माला क्या रही ? इसी प्रकार द्रव्य अंश अपरिणामित्व भाव का त्याग कर देने पर आत्मा ही छोड़ दिया गया।
वस्तुस्वरूप का चिंतन―खैर ! इन गहरी चर्चाओं में नहीं जाना है। कर्ता और भोक्ता में भेद है या नहीं ? कुछ भी हो भेद हुआ तो कर्ता अन्य है, भोक्ता अन्य है। अभेद हुआ तो जो कर्ता है वही भोक्ता है। सो चाहे जो हो, वस्तु के स्वरूप का पहिले विचार करिये। यह चेतन पदार्थ वास्तव में किमात्मक हैं और एक वैज्ञानिक के ढंग से आत्मा का विचार करो, उत्पाद व्यय ध्रौव्यता निरखो और उनमें भी अपने आप का सत्त्व एक ध्रौव्यरूप में निरखो कि यह मैं शाश्वत रहने वाला हूँ। समस्तगुण और समस्त पर्यायों में अन्वयरूप् हूँ। यह मैं किसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से भेदा नहीं जा सकता हूँ। ऐसा अभेदस्वरूप अपने आपको देखो। जहां भेद में एकांत किया वहां अभेद रूप में देखो तो किसी एकांत का भ्रम उपयोग में न फैलेगा।
अब इस कथन के बाद एक निर्णयात्मक बात कही जा रही है कि व्यवहार दृष्टि से जब देखते हैं तो कर्ता और कर्म भिन्न-भिन्न नजर आते हैं। किया और ने, भोगा और ने, अर्थात् करने वाला और पर्याय था, भोगने वाला और पर्याय था। पर निश्चय से वस्तु का जब चिंतन करते है तो करने वाला और भोगने वाला एक ही ठहरता हैं, अथवा कर्ता और कर्म एक ही ठहरता है। जो किया जिसने वे सब एकरूप हैं। इस द्रव्य के परिणमन को कर्म कहते हैं और परिणमन के आधाररूप द्रव्य को कर्ता कहते हैं। अब इस ही प्रकरण को एक दृष्टांत के द्वारा समझाते हैं।