वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 368
From जैनकोष
दंसणणाणचरित्तं किंचि णत्थि हु अचेयणे काये।तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु कायेसु।।368।।
शरीर में आत्मगुणों का अत्यंत अभाव―हे आत्मन् ! अचेतन काय में तेरा दर्शन ज्ञान और चारित्र नहीं है फिर क्यों उन अचेतन कार्यों में घात कर रहा है। यह सभी को विदित है कि इन प्राणियों की दृष्टि इस शरीर पर बहुत अधिक है। जैसा भी शरीर हो, सभी अपने शरीर में आसक्ति बुद्धि किए हैं। यह दूसरे के शरीर में कैसे प्रेम करले ? वहां तो इस आत्मा का किसी प्रकार का औपचारिक भी संबंध नहीं है। कल्पनाएँ करके कोई ऊधम मचावे तो यह तो एक उद्दंडता की बात है। पर जैसे खुद के अधिष्ठित शरीर के साथ इसका संबंध है इस प्रकार पर शरीर के साथ जीव का संबंध नहीं है। सो करता है यह शरीर से प्रेम। किंतु ये शरीर प्रीति के लायक नहीं है। इस शरीर में क्या सार दिखता है ? जिस पर यह आत्मा अपनी प्रभुता का घात करके अपना अमूल्य समय खो रहा है।
शरीर में सारत्व का रंच भी सद्भाव का अभाव―शरीर में अंदर से लेकर बाहर तक कोई भी धातु पवित्र नहीं है। अचेतन हैं, गंध बहाने वाली हैं, नष्ट हो जाने वाली हैं और इसके सेवा करते-करते भी यह रोगी होता है। इस शरीर में कौनसी चीज ऐसी है जिसके पीछे पागलपन छाया रहता है। यह स्वभाव से अपवित्र है, पाप का बीज है, दुखों का कारण है। भ्रम अंधकार में भटकाने के लिए एक बलाधान निमित्त है, ऐसे इस शरीर से रात दिन प्रीति रहना, रूचि होना ये सब संसार में कुयोनियों में भ्रमाते रहने के उपाय हैं। इस शरीर से दृष्टि हटाकर आंखें बंद करो, इंद्रियों को संयत करो, कुछ अपने आपको तो देखो, यह विशुद्ध ज्ञानज्योतिस्वरूप एक परमात्मतत्त्व है। उस अपनी प्रभुता को भूलकर व्यर्थ भिन्न असार वस्तुवों में क्यों अपना उपयोग लगाए फिरता है। यह तेरा कर्तव्य नहीं है। क्यों उन शरीरों में उपयोग लगाकर यह प्रभु अपना घात कर रहा है अथवा उन शरीरों को ही सुख और दुःख का कारण मानकर वहां ही संग्रह और विग्रह कर रहा है अथवा उन शरीरों का लक्ष्य रखकर उन शरीरों के प्रयोजन के लिए अपने दर्शन, ज्ञान, चारित्र का घात कर रहा है। शरीर की शरारत―इस शरीर को उर्दू का शरीर शब्द लें तो उसका अर्थ निकलता है धूर्त, बदमाश। शरीर का विरूद्ध शब्द है शरीफ। शरीफ मायने सज्जन और शरीर मायने दुष्ट। शरीर शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ लगायें तो शीर्यते इति शरीरं। जो जीर्णशीर्ण हो उसे शरीर कहते हैं। इस शरीर की कुछ इज्जत है तो तब तक है, जब तक जीव का संबंध है। जीव के निकलने के बाद इस शरीर से कोई मोह भी करता है क्या ? जल्दी पड़ती है जलाने की। इसे देर मत करो, नहीं तो मुहल्ले में हैजा फैल जाएगी। इस शरीर में कौनसी सारभूत वस्तु है, जिस पर दीवाना बनकर अपने आपको भूलकर अंधकार में दौड़ें चले जा रहे हैं। शरीर की क्या संभाल―भैया ! दूसरी बात यह है कि शरीर की संभाल के ध्यान से भी शरीर संभलता नहीं है। रईस लोगों के बच्चे गोद ही गोद में फिरा करते हैं, कभी जमीन पर पैर नहीं रखते, तब भी उनके बच्चों के शरीर की संभाल नहीं होती है और गरीब लोगों के बच्चे जो जमीन पर ही लोटा करते हैं, जिनकी कभी कोई परवाह ही नहीं करता है, वे बड़े तंदुरुस्त और प्रसन्न दिखते हैं। शरीर की संभाल करने से शरीर को स्वयमेव ही ऐसा वातावरण मिलता है कि यह पुष्ट और कांत होता है। शरीर प्रकृतियों की विषमता―एक बार राजा कहीं घूमने चला जा रहा था। उसने रास्ते में देखा कि एक औरत सिर पर डलिया रखे चली जा रही थी। चलते चलते ही रास्ते में उसके बच्चा हो गया और बच्चे को डलिये में रख करके फिर चलने लगी। राजा सोचता है कि हमारे यहां की रानियां बड़े नखरे किया करती हैं। बच्चा होने के 6 महीने पहिले से ही तमाम सेवाखर्च चौगुना करना पड़ता है और 6 महीने तक मारे उनके नखरों के सारा घर परेशान हो जाता है। सोचा कि जैसी यह स्त्री हैं, वैसी ही वे हैं। जैसे इसके हाथ पैर हैं, वैसे ही उनके हाथ पैर हैं-ऐसा जानकर उनका सेवाखर्च राजा ने बंद कर दिया। बिल्कुल साधारण सा सेवा खर्च रखा। किसी रानी को जब उन चर्चावों से ऐसा भान हुआ कि राजा के मन में यह बात समायी हैं कि जब गरीब महिलायें चलते-फिरते आसानी से बच्चे पैदा करती हैं, कोई नखरे नहीं करती है और ये रानियां बड़े नखरे किया करती है, तब रानी ने क्या किया कि राजा के बाग के मालियों को हुक्म दे दिया कि कल के दिन इन पौधों में पानी नहीं सींचा जायेगा, कल के लिए तुम छुट्टी रखो। दूसरे दिन मालियों ने उन पौधों को न सींचा तो सारे बेला, गुलाब, चमेली आदि के फूल कुम्हला गए। जब राजा ने आकर देखा कि सारे फूल कुम्हला गए हैं तो मालियों से पूछा कि इन पौधों को क्यों नहीं सींचा ? मालियों ने उत्तर दिया कि रानी का आदेश था कि कल इन पौधों को न सींचा जाए। राजा ने रानी से कहा कि बाग़ सिंचना आज क्यों बंद रखा। देखो सारे पेड़, पत्ते, फूल मुरझा गए। रानी राजा से बोली कि क्या हर्ज है इसमें ? पहाड़ पर इतने पेड़ खड़े है, वे क्या रोज-रोज पानी पीते हैं, फिर भी सदा हरे भरे बने रहते हैं। जब वे पहाड़ के पेड़ बिना पानी के हरे-भरे रह सकते हैं तो यह तो मामूली छोटे-छोटे पौधे है, एक बार पानी न मिला तो क्या है ? राजा बोला कि अरे ! वे जंगल के पेड़ हैं, ये बाग़ के फूल है, उनकी इनसे तुलना क्यों करती हो ? रानी बोली कि वे तो गरीबों की औरतें हैं और हम राजा की रानियां हैं, तुम उनसे हमारी तुलना क्यों करते हो ?
शरीर की असारता―देखो भैया ! पोसते-पोसते भी यह शरीर पुष्ट नहीं होता। यह शरीर असार है, अहित है, असक्ति का ही कारण है, ऐसे इस शरीर से क्या प्रीति करनी। देखो यह शरीर आहारवर्गणावों का पिंड है। आहारवर्गणा से मतलब भोजन से नहीं है, बल्कि इस लोक में ठसाठस जो ऐसे परमाणु भरे पड़े हैं, जिनका परिणमन शरीररूप हो जाता है, उन्हें वर्गणाएँ कहते हैं। यह शरीर अनंताहारवर्गणावों का पुंज है, इसमें अनेक आहारवर्गणाएँ आती है और जाती रहती हैं प्रतिसमय। अनंताहारवर्गणाएँ ऐसी जीव के साथ लगी हुई हैं कि जो वर्तमान में शरीर रूप तो नहीं हैं, पर शरीररूप होने के उम्मीदवार हैं, इसे कहते हैं विस्रसोपचय। जैसे कर्मों के विस्रसोपचय होता है, इसी तरह शरीर के भी विस्रसोपचय होता है।
शरीर के स्थायित्व का भ्रम―उन आहारवर्गणावों के पिंडरूप में जो कि प्रवेश कर रहे हैं, गल रहे हैं, थोड़ा सा भ्रम यह लग गया है कि यह शरीर तो स्थिर हैं। इस भ्रम का कारण यह है कि अनेक वर्गणाएँ इस शरीर से निकलती हैं, आती हैं, फिर भी शरीर की समानता में अंतर नहीं आता। इस कारण यह भ्रम हो गया कि यह शरीर स्थायी है। कभी ऐसा नहीं देखा गया यहां कि आज यह मनुष्य जैसा और कल यह गाय जैसा कहो बन जाए, क्योंकि शरीरवर्गणायें अटपट ढंग से कहीं कम कहीं ज्यादा आ जाए, ऐसा नहीं हो रहा है, इसलिए समान आकार बना है। जो कल था, वैसा ही आज है। सो अज्ञानी जीवों को इस शरीर में स्थायित्व का भ्रम हो गया है। कभी मरण की चर्चा आए तो यही ध्यान होता है कि दूसरे मरा करते हैं, अपने आपमें यह विश्वास नहीं जगता कि मैं भी मरूंगा, किसी किसी को तो अपने मरण का ख्याल भी कभी नहीं बनता है। जैसे कि विवाह की चिट्ठियां बँटती हैं कि अमुक तिथि को विवाह होगा, इसी तरह किसी के मरण के आमंत्रण पत्र नहीं जाया करते हैं कि अमुक दिन अमुक समय में होगा, सो सब लोग आए, पर अचानक ही सब ढेर हो जाता है। ऐसे असार विनाशीक भिन्न काय में हे आत्मन् ! तू क्यों अपना घात करता है। मनुष्य का व्यामोह―इस शरीर से और अन्य संतान शरीर से इतना मोह बढ़ाया है कि खुश होते हैं कि लड़का हो गया। कैसे खुश होते हैं कि अब पोता हो गया, ये नाती-पोते हैं। लड़के के लड़के का नाम पोता, लड़की के लड़के का नाम नाती-यों बोला करते हैं कहीं-कहीं, किंतु फर्क तो कुछ होना चाहिए तो लड़की के लड़के का नाम नाती है। पुत्र के लड़के का नाम पौत्र और पौत्र के अगर लड़का हो जाये तो उसका नाम प्रपौत्र मायने पंती। कदाचित् पंती के भी लड़का हो जाए तो उसे बोलते हैं संती। लोग बड़े खुश होते हैं कि यह बड़ा भाग्यवान हैं बुड्ढा, इसने संती का मुख देख लिया है। जब मर जाएगा बुड्ढा तो एक आठ आने भर की सोने की नसेनी उसकी चिता के साथ रखी जाती है। काहे के लिए? जिससे यह बुड्ढा इस नसेनी से चढ़कर स्वर्ग में पहुंच जाएगा। मगर यह तो बतावो कि नसेनी चढ़ने के ही काम में आती है कि उतरने के भी काम में आती है ? इसमें तो मेरे ख्याल से उतरना ज्यादा संभव है। उतरना इसलिए संभव है कि पहिले लड़के से बहुत मोह किया, फिर पोते से बहुत मोह किया, फिर पड़पोते से बहुत मोह किया और फिर संती से बहुत मोह करके मर गया। जिसने चार-चार पीढ़ियों में खूब मोह किया है, उसका तो स्वर्ग में चढ़ने की अपेक्षा नरक में उतरना ही अधिक संभव है। जिन अचेतन शरीरों में इतना व्यामोह पड़ा है कि ये कुछ भी साथ नहीं होते, ये केवल क्लेश के ही हो जाने के कारण हैं। उन कर्मों में हे आत्मन् ! तू क्यों अपना घात करता है। उक्त तीनों कथनों का शिक्षारूप कथन करने के लिए अब कुछ तीन गाथावों में वर्णन कर रहे हैं।णाणस्स दसंणस्स य भणिओ घाओ ताह चरित्तस्स।