GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 47 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब ज्ञान और ज्ञानी के अत्यन्त भेद में दोष दिखाते हैं --
णाणी ज्ञानी जीव, णाणं च तहा उसीप्रकार ज्ञान गुण भी अत्थंतरि दो दु यदि अर्थांतरित, भिन्न हैं । वे कैसे भिन्न हैं ? अण्णमण्णस्स परस्पर सम्बन्ध से पूर्णतया भिन्न हैं । तब क्या दोष है ? दोण्हं अचेदणत्तं तो ज्ञान और ज्ञानी दोनों के अचेतनता / जड़ता का प्रसंग प्राप्त होता है । और वह जड़त्व कैसा है ? सम्मं जिणावमदं सम्यक् प्रकार से जिनों को सम्मत नहीं है ।
वह इसप्रकार -- जैसे अग्निरूप गुणी से अत्यन्त भिन्न होता हुआ उष्णता लक्षण-रूप गुण दहन क्रिया के प्रति (जलाने में) असमर्थ होता हुआ निश्चय से शीतल होता है; उसीप्रकार ज्ञानगुण से अत्यन्त भिन्न होता हुआ जीवरूपी गुणी पदार्थों को जानने के प्रति असमर्थ होता हुआ जड़ होता है । यहाँ कोई कहता है कि जैसे भिन्न दात्र (हसिया) रूप उपकरण से देवदत्त लावक (काटने वाला) हो जाता है; उसीप्रकार भिन्न ज्ञान से जीव ज्ञानी हो जाता है ? (आचार्य कहते हैं कि) ऐसा नहीं कहना चाहिए। छेदन-क्रिया के प्रति दात्र बाह्य उपकरण है; वहाँ वीर्यान्तराय-कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न पुरुष की शक्ति विशेष अभ्यंतर उपकरण है, उस शक्ति के अभाव में दात्र-उपकरण और हस्त-व्यापार होने पर भी छेदन क्रिया नहीं होती है; उसीप्रकार प्रकाश, उपाध्याय आदि बहिरंग सहकारी कारणों का सद्भाव होने पर भी, अभ्यन्तर ज्ञानरूप उपकरण के अभाव में पुरुष के पदार्थों की जानकारी रूप क्रिया नहीं होती है । यहाँ जिस ज्ञान का अभाव होने से जीव जड़ होता हुआ, वीतराग सहज सुन्दर आनन्द के प्रवाहमय पारमार्थिक-सुख को उपादेय नहीं जानता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है; वही रागादि-विकल्प-रहित निज शुद्धत्मानुभूति-सम्पन्न ज्ञान उपादेय है -- ऐसा भावार्थ है ॥५४॥