GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 62 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[कम्मं] कर्म रूपी कर्ता, [कम्मं कुव्वदि] यदि एकान्त से जीव परिणामों से निरपेक्ष रहता हुआ द्रव्य-कर्म करता है, [जदि सो अप्पा करेदि अप्पाणं] और यदि वह आत्मा आत्मा को ही करता है, द्रव्य-कर्म को नहीं करता है, [किह तस्स फलं भुंजदि] (तो) इन बिना किए कर्मों का फल कैसे भोगता है ? वह कौन भोगता है ? [अप्पा] आत्मा रूप कर्ता, [कम्मं च देदि फलं] तथा जीव द्वारा नहीं किया गया कर्म-रूप कर्ता, आत्मा को फल कैसे देता है ? ॥६९॥
इस प्रकार चतुर्थ स्थल में पूर्वपक्ष की अपेक्षा गाथा पूर्ण हुई । अब, परिहार की मुख्यता से सात गाथायें कहते हैं । उन सात गाथाओं में से पुद्गल के स्वयं उपादान कर्तृत्व की मुख्यता से [ओगाढगाढ] इत्यादि पाठ-क्रम से तीन गाथायें हैं, उसके बाद कर्तृत्व और भोक्तृत्व व्याख्यान के उपसंहार की मुख्यता से [जीवा पोग्गलकाया] इत्यादि दो गाथायें हैं; तत्पश्चात् बंध में प्रभुता और मोक्ष में प्रभुता रूप से एवं [कत्ता भोक्ता] इत्यादि दो गाथायें हैं । -- इसप्रकार समूह-रूप से सात परिहार गाथा-सूत्र हैं ।