GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 66 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[जीवा पोग्गल काया] जीव और पुद्गलकाय । वे कैसे हैं ? [अण्णोण्णागाढगहणपडिबद्धा] अन्योन्य अवगाढ ग्रहण प्रतिबद्ध हैं; अपने-अपने रागादि और स्निग्ध-रूक्षादि परिणाम के कारण पहले से ही अन्योन्य अवगाह द्वारा संश्लिष्ट-रूप से प्रतिबद्ध होते हुए तब तक रह रहे हैं । [काले विजुज्जमाणा] उदय के समय अपना फल देकर पृथक् होते हुए, निर्जरा को प्राप्त होते हुए (वे) क्या करते हैं? [दिंति] निर्विकार चिदानन्द एक स्वभावी जीव का मिथ्यात्व-रागादि के साथ एकत्व रुचि-रूप मिथ्यात्व, उनके ही साथ एकत्व प्रतिपत्ति-रूप मिथ्या-ज्ञान, उसमें ही एकत्व परिणति-रूप मिथ्याचारित्र-इसप्रकार मिथ्यात्वादि तीन-रूप परिणत जीवों को पुद्गल-रूप कर्ता देते हैं । क्या देते हैं ? [सुहदुक्खं] अनाकुलत्व लक्षण पारमार्थिक सुख से विपरीत, निश्चय से अंतरंग में परम आकुलता को उत्पन्न करने वाले हर्ष-विषाद-रूप तथा व्यवहार से बाह्य विषय में अनेक प्रकार के इष्ट-अनिष्ट इन्द्रिय-विषयों की प्राप्तिरूप कटुक विष-रूपी रस के आस्वाद-मय स्वभाव-वाले सांसारिक सुख-दु:ख को देते हैं । [भुंजंति] वीतराग परम आह्लाद-मय एक रूप सुखामृत रस के आस्वाद-मय भोजन से रहित जीव निश्चय से भाव-रूप और व्यवहार से द्रव्य-रूप (उन कर्मों को) भोगते हैं -- ऐसा अभिप्राय है ॥७३॥
इस प्रकार भोक्तृत्व के व्याख्यान की मुख्यता से गाथा पूर्ण हुई ।