मौन
From जैनकोष
- मौन
समाधितंत्र/17 एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदंतरशेषतः। एष योगः समासेन प्रदीपः परमात्मनः।17। = इस प्रकार (देखें अगला शीर्षक ) बाह्य की वचन प्रवृत्ति को छोड़कर, अंतरंग वचन प्रवृत्ति को भी पूर्णतया छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार का योग ही संक्षेप से परमात्मा का प्रकाशक है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/155 प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनां परित्यज्य.......मौनव्रतेन सार्धं....। = प्रशस्त व अप्रशस्त समस्त वचन रचना को छोड़कर मौनव्रत सहित (निजकार्य को साधना चाहिए)।
- मौन व्रत का कारण व प्रयोजन
मोक्षपाहुड़/29 जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा। जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हा जंपेमि केण हे।29। = जो कुछ मेरे द्वारा यह बाह्य जगत् में देखा जा रहा है, वह तो जड़ है, कुछ जानता नहीं। और मैं यह ज्ञायक हूँ वह किसी के भी द्वारा देखा नहीं जाता। तब मैं किसके साथ बोलूँ। ( समाधिशतक/18 )।
सागार धर्मामृत/4/34-36 गृद्ध्यै हुंकारादिसंज्ञां संक्लेशं च पुरोनुगं। मुंचन्मौनमदन् कुर्यात्तपःसंयमबृहणम्।34। अभिमानागृद्धिरोधाद्वर्धयते तपः। मौनं तनोति श्रेयश्च श्रुतप्रश्रयतायनात्।35। शुद्धमौनात्मनः सिद्धया शुक्लध्यानाय कल्पते। वाक्सिद्धया युगपत्साधुस्त्रैलोक्यानुग्रहाय च।36। = श्रावक को भोजन में गृद्धि के कारण हुंकार करना, खकारना, इशारे करना तथा भोजन के पहले व पीछे क्रोध आदि संक्लेशरूप परिणाम करना, इन सब बातों को छोड़कर तप व संयम को बढ़ाने वाला मौनव्रत धारण करना चाहिए।34। मौन धारण करना भोजन की गृद्धि तथा याचनावृत्ति को रोकने वाला है तथा तप व पुण्य को बढ़ाने वाला है।35। इससे मन वश होता है, शुक्ल-ध्यान व वचन की सिद्धि होती है और वह श्रावक या साधु त्रिलोक का अनुग्रह करने योग्य हो जाता है।36।
- मौनव्रत के उद्यापन का निर्देश
सागार धर्मामृत/4/37 उद्योतनमहेनैकघंटादानं जिलालये। असर्वकालिके मौने निर्वाहः सार्वकालिके।37। = सीमित समय के लिए धारण किये गये मौनव्रत का उद्यापन करने के लिए उसका माहात्म्य प्रगट करना व जिन मंदिर में एक घंटा समर्पण करना चाहिए। जन्म पर्यंत धारण किये गये मौनव्रत का उद्यापना उसका निराकुल रीति से निर्वाह करना ही है।37। ( टीका में उद्धृत 2 श्लोक )।
- मौन धारणे योग्य अवसर
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/16/62/6 भाषासमितिक्रमानभिज्ञो मौनं गृह्णीयात् इत्यर्थः। = भाषा समिति का क्रम जो नहीं जानता वह मौन धारण करे, ऐसा अभिप्राय है।
सागार धर्मामृत/4/38 आवश्यके मलक्षेपे पापकार्ये च वांतिवत्। मौनं कुर्वीत शश्वद्वा भूयोवाग्दोषविच्छिदे।38। = वांति में कुरला करनेवत्, सामायिक आदि छह कर्मों में, मलमूत्र निक्षेपण करने में, दूसरे के द्वारा पापकार्य की संभावना होने में, स्नान, मैथुन, आचमन आदि करने में श्रावक को मौन धारण करना चाहिए और साधु को कृतिकर्म करते अथवा भोजनचर्या करते समय मौन धारण करना चाहिए। अथवा भाषा के दोषों का विच्छेद करने के लिए सदा मौन से रहना चाहिए।38।
सागार धर्मामृत/ टीका/4/35 में उद्धृत− सर्वदा शस्तं जोषं भोजने तु विशेषतः। रसायनं सदा श्रेष्ठं सरोगत्वे पुनर्न किं। = मौन व्रत सदा प्रशंसा करने योग्य है और फिर भोजन करने के समय तो और भी अधिक प्रशंसनीय है। रसायन (औषध) सदा हित करने वाला होता है और फिर रोग होने पर तो पूछना ही क्या है।
व्रतविधान संग्रह/पृ. 112। मौनव्रतकथा से उद्धृत−यहाँ मौनव्रत का कथन है। भोजन, वमन, स्नान, मैथुन, मलक्षेपण और जिन पूजन इन सात कर्मों में जीवन पर्यंत मौन रखना नित्य मौनव्रत कहलाता है।
- मौनावलंबी साधु के बोलने योग्य विशेष अवसर
देखें अपवाद - 3 (दूसरे के हितार्थ साधुजन कदाचित् रात्रि को भी बोल लेते हैं।)
देखें वाद − (धर्म की क्षति होती देखे तो बिना बुलाये भी बोले।)
देखें अथालंद −(मौन का नियम होते हुए भी अथालंद चारित्रधारी साधु रास्ता पूछना, शंका के निराकरणार्थ प्रश्न करना तथा वसतिका के स्वामी से घर का पता पूछना−इन तीन विषयों में बोलते हैं।)
देखें परिहार विशुद्धि −(धर्म कार्य में आचार्य से अनुज्ञा लेना, योग्य व अयोग्य उपकरणों के लिए निर्णय करना तथा किसी का संदेह दूर करने के लिए उत्तर देना इन तीन कार्यों के अतिरिक्त वे मौन से रहते हैं।)
- मौनव्रत के अतिचार−देखें गुप्ति - 2.1।