अभिलाषा
From जैनकोष
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 705-707 न्यायादक्षार्थकांक्षाया ईहा नान्यत्र जातुचित् ॥705॥ नैवं हेतुरतिव्याप्तेरारादाक्षीणमोहिषु। बंधस्यनित्यतापत्तेर्भवेंमुक्तेरसंभवः ॥707॥
= न्यायानुसार इंद्रियों के विषयों की अभिलाषा के सिवाय कभी भी (अन्य कोई इच्छा) अभिलाषा नहीं कहलाती ॥705॥ इच्छा के बिना क्रिया के न मान ने से क्षीणकषाय और उसके समीप के(11.12.13) गुणस्थानों में अनिच्छापूर्वक क्रिया के पाये जाने के कारण उक्त लक्षण (क्रिया करना मात्र अभिलाषा है) में अतिव्याप्ति नाम का दोष आता है। क्योंकि यदि उक्त गुणस्थानों में क्रिया के सद्भाव से इच्छा का सद्भाव माना जायेगा तो बंध के नित्यत्व का प्रसंग आने से मुक्ति का होना ही असंभव हो जायेगा ॥707॥ तात्पर्य है इंद्रिय भोगों की इच्छा ही अभिलाषा है। मन, वचन, काय की क्रिया पर से उस इच्छा का सद्भाव या असद्भाव सिद्ध नहीं होता।
• अभिलाषा या इच्छाका निषेध-देखें राग ।