कोष्ठ बुद्धि ऋद्धि
From जैनकोष
कोष्ठबुद्धि का लक्षण व शक्ति निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/अधिकार संख्या४/९७८-९७९ "उक्कस्सिधारणाए जुत्तो पुरिसो गुरुवएसे। णाणाविहगंथेसु वित्थारे लिंगसद्दबीजाणि ।९७८। गहिऊण णियमदीए मिस्सेण विणा धरेदि मदिकोट्ठे। जो कोई तस्स बुद्धी णिद्दिट्ठा कोट्ठबुद्धी त्ति ।९७९।
= उत्कृष्ट धारणा से युक्त जो कोई पुरुष गुरु के उपदेश से नाना प्रकार के ग्रन्थों में से विस्तार पूर्वक लिंग सहित शब्दरूप बीजों को अपनी बुद्धि में ग्रहण करके उन्हें मिश्रण के बिना बुद्धिरूपी कोठे में धारण करता है, उसकी बुद्धि कोष्ठबुद्धि कही गयी है।
( राजवार्तिक/ अध्याय संख्या ३/३६/३/२०१/२८); (चारित्रसार/ पृष्ठ संख्या २९२/४)।
धवला/ पुस्तक संख्या ९/४,१,६/५३/७कोष्ठ्यः शालि-व्रीहि-यव-गोधूमादिनामाधारभूतः कुस्थली पल्यादिः। सा चासेसदव्वपज्जायधारणगुणेण कोट्ठसमाणा बुद्धी कोट्ठो, कोट्ठा च सा बुद्धी च कोट्ठबुद्धी। एदिस्से अल्पधारणकालो जहण्णेण संखेज्जाणि उक्कस्सेण असंखेज्जाणि वसाणि कुदो। `कालमसंखं संखं च धारणा' त्ति सुत्तुवलंभादो। कुदो एदं होदि। धारणावरणीयस्स तिव्वखओवसमेण।
= शालि, व्रीहि, जौ और गेहूँ आदि के आधारभूत कोथली, पल्ली आदि का नाम कोष्ठ है। समस्त द्रव्य व पर्यायों को धारण करने रूप गुण से कोष्ठ के समान होने से उस बुद्धि को भी कोष्ठ कहा जाता है। कोष्ठ रूप जो बुद्धि वह कोष्ठ बुद्धि है। (धवला/पुस्तक संख्या १३/५,५,४०/२४३/११) इसका अर्थ धारणकाल जघन्य से संख्यात वर्ष और उत्कर्ष से असंख्यात वर्ष है, क्योंकि `असंख्यात और संख्यात काल तक धारणा रहती है' ऐसा सूत्र पाया जाता है। प्रश्न-यह कहाँ से होती है? उत्तर-धारणावरणीय कर्म के तीव्र क्षयोपशम से होता है।
देखें ऋद्धि - 2।