छेदोपस्थापना
From जैनकोष
यद्यपि दीक्षा धारण करते समय साधु पूर्णतया साम्य रहते की प्रतिज्ञा करता है, परन्तु पूर्ण निर्विकल्पता में अधिक देर टिकने में समर्थ न होने पर व्रत समिति गुप्ति आदि रूप व्यवहार चारित्र तथा क्रियानुष्ठानों में अपने को स्थापित करता है। पुन: कुछ समय पश्चात् अवकाश पाकर साम्यता में पहुंच जाता है और पुन: परिणामों के गिरने पर विकल्पों में स्थित होता है। जब तक चारित्रमोह का उपशम या क्षय नहीं करता तब तक इसी प्रकार झूले में झूलता रहता है। तहा निर्विकल्प व साम्य चारित्र का नाम सामायिक या निश्चय चारित्र है, और विकल्पात्मक चारित्र का नाम छेदोपस्थापना या व्यवहार चारित्र है।
- छेदोपस्थापना चारित्र का लक्षण
प्र.सा./मू./२०९ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि।२०९। =ये (व्रत समिति आदि) वास्तव में श्रमणों के मूलगुण हैं, उनमें प्राप्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक है। (यो.सा./अ./८/८)
पं.सं./प्रा./१/१३० छेत्तूण य परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं। पंचजमे धम्मे सो छेदोवट्ठावगो जीवो।१३०। =सावद्य पर्यायरूप पुरानी पर्याय को छेदकर अहिंसादि पाच प्रकार के यमरूप धर्म में अपनी आत्मा को स्थापित करना छेदोपस्थापना संयम है। (ध.१/१/१/१२३/गा.१८८/३७२); (पं.सं.सं.१/२४०); (गो.जी./मू./४७१/८८०)।
स.सि./९/१८/४३६/७ प्रमादकृतानर्थप्रबन्धविलोपे सम्यक्त्वप्रतिक्रिया छेदोपस्थापना विकल्पनिवृत्तिर्वा। =प्रमादकृत अनर्थप्रबन्धका अर्थात् हिंसादि अव्रतों के अनुष्ठान का विलोप अर्थात् सर्वथा त्याग करने पर जो भले प्रकार प्रतिक्रिया अर्थात् पुन: व्रतों का ग्रहण होता है वह छेदोपस्थापना चारित्र है, अथवा विकल्पों की निवृत्ति का नाम छेदोपस्थापना चारित्र है। (रा.वा./९/१८/६-७/६१७/११) (चा.सा./८३/४) (गो.क./जी.प्र./५४७/७१४/६)।
यो.सा./यो./१०१ हिंसादि उपरिहारु करि जो अप्पा हु ठवेइ। सो बिमयऊ चारित्तु मुणि जो पंचमगइ णेइ।१०१। =हिंसादिक का त्याग कर जो आत्मा को स्थिर करता है, उसे दूसरा (छेदोपस्थापना) समझो। यह पंचम गति को ले जाने वाला है।
ध.१/१,१,१२३/३७०/१ तस्यैकस्य व्रतस्य छेदेन द्विव्यादिभेदेनोपस्थापनं व्रतसमारोपणं छेदोपस्थापनशुद्धिसंयम:। =उस एक (सामायिक) व्रत का छेद करने को अर्थात् दो तीन आदि के भेद से उपस्थापन करने को अर्थात् व्रतों के आरोपण करने को छेदोपस्थापना-शुद्धि-संयम कहते हैं।
त.सा./५/४६ यत्र हिंसादिभेदेन त्याग: सावद्यकर्मण:। व्रतलोपेविशुद्धिर्वा छेदोपस्थापनं हि तत् ।४६। =जहा पर हिंसा चोरी इत्यादि विशेष रूप से भेदपूर्वक पाप क्रिया का त्याग किया जाता है और व्रत भंग हो जाने पर उसकी (प्रायश्चित्तादि से) शुद्धि की जाती है उसको छेदोपस्थापना कहते हैं।
प्र.सा./त./प्र./२०९ तेषु यदा निर्विकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्तविकल्पत्वात्प्रमाद्यति तदा केवलकल्याणमात्रार्थिन: कुण्डलवलयाङ्गुलीयादिपरिग्रह: किल श्रेयान्, न पुन: सर्वथा कल्याणलाभ एवेति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थाप को भवति। =जब (श्रमण) निर्विकल्प सामायिक संयम में आरूढ़ता के कारण जिसमें विकल्पों का अभ्यास (सेवन) नहीं है ऐसी दशा में से च्युत होता है, तब ‘केवल सुवर्णमात्र के अर्थी को कुण्डल कंकण अंगूठी आदि को ग्रहण करना (भी) श्रेय है, किन्तु ऐसा नहीं है कि (कुण्डल इत्यादि का ग्रहण कभी न करके) सर्वथा सुवर्ण की ही प्राप्ति करना श्रेय है, ऐसा विचारे। इसी प्रकार वह श्रमण मूलगुणों में विकल्परूप से (भेदरूप से) अपने को स्थापित करता हुआ छेदोपस्थापक होता है। (अन.ध./४/१७६/५०९)
द्र.सं./टी./३५/१४७/८ अथ छेदोपस्थापनं कथयति–यदा युगपत्समस्तविकल्पत्यागरूपे परमसामायिके स्थातुमशक्तोऽयं जीवस्तदा—पञ्चप्रकारविकल्पभेदेन व्रतच्छेदेन रागादिविकल्परूपसावद्येभ्यो विवर्त्य निजशुद्धात्मन्यात्मानमुपस्थापयतीति छेदोपस्थापनम् । अथवा छेदे व्रतखण्डे सति निर्विकारसंवित्तिरूपनिश्चयप्रायश्चित्तेन तत्साधकबहिरङ्गव्यवहारप्रायश्चित्तेन वा स्वात्मन्युपस्थापनं छेदोपस्थानमिति। =अब छेदोपस्थापना का कथन करते हैं–जब एक समय समस्त विकल्पों के त्यागरूप परम सामायिक में, स्थित होने में यह जीव असमर्थ होता है, तब विकल्प भेद से पाच व्रतों का छेदन होने से (अर्थात् एक सामायिक व्रत का पाच व्रतरूप से भेद हो जाने के कारण) रागादि विकल्परूप सावद्यों से अपने आपको छुड़ाकर निज शुद्धात्मा में उपस्थान करना;–अथवा छेद यानी व्रत का भंग होने पर निर्विकार निज आत्मानुभवरूप निश्चय प्रायश्चित्त के बल से अथवा व्यवहार प्रायश्चित्त से जो निज आत्मा में स्थित होना सो छेदोपस्थापना है।
- <a name="2" id="2">सामायिक व छेदोपस्थापना में कथंचित् भेद व अभेद
ध.१/१,१,१२३/३७०/२ सकलव्रतानामेकत्वमापाद्य एकयमोपादानाद् द्रव्यार्थिकनय: सामायिकशुद्धिसंयम:। तदेवैकंव्रतं पञ्चधा ब्रहुधा वा विपाटय धारणात् पर्यायार्थिकनय: छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम:। निशितबुद्धिजनानुग्रहार्थं द्रव्यार्थिकनयादेशना, मन्दधियामनुग्रहार्थं पर्यायार्थिकनयादेशना। ततो नानयो: संयमयोरनुष्ठानकृतो विशेषोऽस्तीति द्वितयदेशेनानुगृहीत एक एव संयम इति चेन्नैष दोष:, इष्टत्वात् ।=सम्पूर्ण व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एक यम को ग्रहण करने वाला होने से सामायिक-शुद्धिसंयम द्रव्यार्थिकनयरूप है, और उसी व्रत के पाच अथवा अनेक प्रकार के भेद करके धारण करने वाला होने से छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम पर्यायार्थिकनयरूप है। यहा पर तीक्ष्ण बुद्धि मनुष्यों के लिए द्रव्यार्थिक नय का उपदेश दिया गया है और मन्दबुद्धि प्राणियों का अनुग्रह करने के लिए पर्यायार्थिक नय का उपदेश दिया गया है। इसलिए इन दोनों संयमों में अनुष्ठानकृत कोई विशेषता नहीं है। प्रश्न–तब तो उपदेश की अपेक्षा संयम को भले ही दो प्रकार का कह लिया जावे पर वास्तव में तो वह एक ही है? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह कथन हमें इष्ठ ही हे। (देखो आगे नं.४ भी); (स.सि./७/१/३४३/५); (रा.वा./७/१/९/५३४/१२) (ध.३/१,२,१४९/४४७/७)।
ध.३/१,२,१४९/४४९/१ तदो जे सामाइयसुद्धिसंजदा ते चेय छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा होंति। जे छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा ते चेय सामाइयसुद्धिसंजदा होंति त्ति। =इसलिए जो सामायिकशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत होते हैं। तथा जो छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही सामायिकशुद्धिसंयत होते हैं।
- सामायिक व छेदोपस्थापना का परिहारविशुद्धि से कथंचित् भेद
ध.१/१,१,१२६/३७५/७ परिहारशुद्धिसंयत: किमु एकयम उत पञ्चयम इति। किंचातो यद्येकयम: सामायिकेऽन्तर्भवति। अथ यदि पंचयम: छेदोपस्थापनेऽन्तर्भवति। न च संयममादधानस्य पुरुषस्य द्रव्यपर्यायार्थिकाभ्यां व्यतिरिक्तस्यास्ति संभवस्ततो न परिहारसंयमोऽस्तीति न, परिहारर्द्धयतिशयोत्पत्त्यपेक्षया ताभ्यामस्य कथंचिद्भेदात् । तद्रूपापरित्यागेनैव परिहारर्द्धिपर्यायेण परिणतत्वान्न ताभ्यामन्योऽन्यं संयम इति चेन्न, प्रागविद्यमानपरिहारर्द्धयपेक्षया ताभ्यामस्य भेदात् । तत: स्थितमेतत्ताभ्यामन्य: परिहारसंयम: इति। =प्रश्न–परिहारशुद्धि संयम क्या एक यमरूप है या पाच यमरूप? इनमें से यदि एक यमरूप है तो उसका सामायिक में अन्तर्भाव होना चाहिए और यदि पाच यमरूप है तो छेदोपस्थापना में अन्तर्भाव होना चाहिए। संयम को धारण करने वाले पुरुष के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा इन दोनों संयमों से भिन्न तीसरे संयम की सम्भावना तो है नहीं, इसलिए परिहार शुद्धि संयम नहीं बन सकता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, परिहार ऋद्धि रूप अतिशय की उत्पत्ति की अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना से परिहारविशुद्धि संयम का कथंचित् भेद है। प्रश्न–सामायिक और छेदोपस्थापनारूप अवस्था का त्याग न करते हुए ही परिहारशुद्धिरूप पर्याय से यह जीव परिणत होता है, इसलिए सामायिक और छेदोपस्थापना से भिन्न यह संयम नहीं हो सकता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, पहिले अविद्यमान परन्तु पीछे से उत्पन्न हुई परिहार ऋद्धि की अपेक्षा उन दोनों संयमों से इसका भेद है, अत: यह बात निश्चित हो जाती है कि सामायिक और छेदोपस्थापना से परिहारशुद्धि संयम भिन्न है।
- सामायिक छेदोपस्थापना व सूक्ष्मसाम्पराय में कथंचित् भेद व अभेद
ध.१/१,१,१२७/३७६/७ सूक्ष्मसांपराय: किमु एकयम उत पञ्चयम इति। किंचातो यद्येकयम: पञ्चयमान्न मुक्तिरुपशमश्रेण्यारोहणं वा सूक्ष्मसांपरायगुणप्राप्तिमन्तरेण तदुदयाभावात् । अथ पञ्चयम: एकयमानां पूर्वोक्तदोषौ समाढौकेते। अथोभययम: एकयमपञ्चयमभेदेन सूक्ष्मसांपरायाणां द्वैविध्यमापतेदिति। नाद्यौ विकल्पावनभ्युपगमात् । न तृतीयविकल्पोक्तदोष: संभवति पञ्चैकयमभेदेन संयमभेदामावात् । यद्येकयमपञ्चयमौ संयमस्य न्यूनाधिकभावस्य निबन्धनावेवाभविष्यतां संयमभेदोऽप्यभविष्यत् । न चैवं संयमं प्रति द्वयोरविशेषात् । ततो न सूक्ष्मसांपरायसंयमस्य तद्द्वारेण द्वैविध्यमिति। तद्द्वारेण संयमस्य द्वैविध्याभावे पञ्चविधसंयमोपदेश: कथं घटत इति चेन्माघटिष्ट। तर्हि कतिविध: संयम:। चतुर्विध: पञ्चमस्य संयमस्यानुपलम्भात् । =प्रश्न–सूक्ष्मसांपरायसंयम क्या एक यमरूप् (सामायिक रूप) है अथवा पंचयमरूप (छेदोपस्थापनारूप)? इनमें से यदि एकयमरूप है तो पंचयमरूप छेदोपस्थापना से मुक्ति अथवा उपशमश्रेणी का आरोहण नहीं बन सकता है, क्योंकि, सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान की प्राप्ति के बिना से दोनों ही बातें नहीं बन सकेंगी ? यदि यह पंचमरूप है तो एकयमरूप सामायिकसंयम को धारण करने वाले जीवों के पूर्वोक्त दोनों दोष प्राप्त होते हैं। यदि इसे उभय यमरूप मानते हैं तो एक यम और पंचयम के भेद से इसके दो भेद हो जायेंगे ? उत्तर–आदि के दो विकल्प तो ठीक नहीं है, क्योंकि, वैसा हमने माना नहीं है (अर्थात् वह केवल एक यमरूप या केवल पंचयमरूप नहीं है)। इसी प्रकार तीसरे विकल्प में दिया गया दोष भी सम्भव नहीं, क्योंकि, पंचयम और एकयम के भेद से संयम में कोई भेद ही सम्भव नहीं है। यदि एकयम और पंचयम, संयम के न्यूनाधिकभाव के कारण होते तो संयम में भेद भी हो जाता। परन्तु ऐसा तो है, नहीं, क्योंकि, संयम के प्रति दोनों में कोई विशेषता नहीं है। अत: सूक्ष्मसांपराय संयम के उन दोनों (एकयमरूप सामायिक तथा पंचयमरूप छेदोपस्थापना) की अपेक्षा दो भेद नहीं हो सकते। प्रश्न–तो पाच प्रकार के संयम का उपदेश कैसे बन सकता है ? उत्तर–यदि पाच प्रकार का संयम घटित नहीं होता है तो मत होओ। प्रश्न–तो संयम कितने प्रकार का है? उत्तर–संयम चार प्रकार का है, क्योंकि पाचवा संयम पाया ही नहीं जाता है। विशेषार्थ–सामायिक और छेदोपस्थापना संयम में विवक्षा भेद से ही भेद है, वास्तव में नहीं, अत: वे दोनों मिलकर एक और शेष तीन (परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात) इस प्रकार संयम चार प्रकार के होते हैं।
- सामायिक व छेदोपस्थापना का स्वामित्व सामान्य
ष.खं.१/१,१/सूत्र १२५/३७४ सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धि-संजदापमत्त-संजद-प्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति। =सामायिक और छेदोपस्थापना रूप शुद्धि को प्राप्त संयत जीव प्रमत्तसंयत से लेकर निवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। (गो.जी./मू./४६७/८७८;६८९/११२८) (द्र.सं./टी./३५/१४८/९)।
म.पु./७४/३१४ चतुर्थज्ञाननेत्रस्य निसर्गबलशालिन:। तस्याद्यमेव चारित्रं द्वितीयं तु प्रमादिनाम् ।३१४। =मन:पर्ययज्ञानरूपी नेत्र को धारण करने वाले और बल से सुशोभित उन भगवान् के पहिला सामायिक चारित्र ही था, क्योंकि दूसरा छेदोपस्थापना चारित्र प्रमादी जीवों के ही होता है। (म.पु./२०/१७०-१७२)।
(देखो अगला शीर्षक) (उत्तम संहननधारी जिनकल्पी मुनियों को सामायिक चारित्र होता है तथा हीनसंहनन वाले स्थविरकल्पी मुनियों को छेदोपस्थापना)।
- काल की अपेक्षा सामायिक व छेदोपस्थापना का स्वामित्व
मू.आ./५३३-५३५ बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवदिसंति। छेदुवठ्ठावणियं पुणभयवं उसहो य वीरो य।५३३। आदीए दुव्विसोधण णिहणे तह सुट्ठु दुरणुपाले य। पुरिमा य पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पं ण जाणंति।५३५।=अजितनाथ को आदि लेकर भगवान् पार्श्वनाथ पर्यंत बावीस तीर्थंकर सामायिक संयम का उपदेश करते हैं और भगवान् ऋषभदेव तथा महावीर स्वामी छेदोपस्थापना संयम का उपदेश करते हैं।५३३। आदि तीर्थ में शिष्य सरलस्वभावी होने से दु:खकर शुद्ध किये जा सकते हैं। इसी तरह अन्त के तीर्थ में शिष्य कुटिल स्वभावी होने दु:खकर पालन कर सकते हैं। जिस कारण पूर्वकाल के शिष्य और पिछले काल के शिष्य प्रगटरीति से योग्य अयोग्य नहीं जानते इसी कारण अन्त तीर्थ में छेदोपस्थापना का उपदेश हैं।५३५। (अन.ध./९/८७/९१७) (और भी दे.प्रतिक्रमण/२)
गो.क./जी.प्र./५४७/७१४/५ तत एव श्रीवर्द्धमानस्वामिना प्रोक्तनोत्तमसंहननजिनकल्पाचरणपरिणोषु तदेकधा चारित्रं। पञ्चमकालस्थविरकल्पाल्पसंहननसंयमिषु त्रयोदशधोक्तं=ताहीतै श्रीवर्द्धमान स्वामीकरि पूर्व ले उत्तम संहनन के धारी जिनकल्प आचरणरूप परिणए मुनि तिनके सो सामायिकरूप एक प्रकार की चारित्र कहा है। बहुरि पंचमकाल विषै स्थविरकल्पी हीनसंहनन के धारी तिनिको सो चारित्र तेहर प्रकार कह्या है।
देखें - निर्यापक / १ में भ०आ०/मू०/६७१ कालानुसार चारित्र में हीनाधिकता आती रहती है।
- जघन्य व उत्कृष्ट लब्धि की अपेक्षा सामायिक छेदोपस्थापना का स्वामित्व
ध.७/२,११,१६८/५६४/३ एवं सव्वजहण्णं सामाइयच्छेदोवठ्ठावणसुद्धिसंजमस्स लद्धिट्ठाणं कस्स होदि मिच्छत्तंपडिवज्जमाणसंजदस्स चरिमसमए।
ध.७/२,११,१७१,/५६६/८ एसा कस्स होदि। चरिमसमयअणियट्टिस्स।=प्रश्न–सामायिक-छेदोपस्थापना-शुद्धिसंयम का यह सर्व जघन्य लब्धिस्थान किसके होता है? उत्तर–यह स्थान मिथ्यात्व को प्राप्त होने वाले संयत के अन्तिम समय में होता है। प्रश्न–(सामायिक-छेदोपस्थापना शुद्धिसयम की) यह (उत्कृष्ट) लब्धि किसके होती है ? उत्तर–अन्तिम समयवर्ती अनिवृत्तिकरण के होती है।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- दोनों में क्षयोपशम व उपशम भाव के अस्तित्व सम्बन्धी शंका।–(दे.संयत/२)।
- इस संयम में आय के अनुसार ही व्यय होता है।–(दे.मार्गणा)।
- छेदोपस्थापना में गुणस्थान मार्गणास्थान आदि के अस्तित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाए।–(दे.सत्)।
- सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाए।–(दे.वह वह नाम)।
- इस संयम में कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व विषयक प्ररूपणाए।–(दे.वह वह नाम)।
- दोनों में क्षयोपशम व उपशम भाव के अस्तित्व सम्बन्धी शंका।–(दे.संयत/२)।