इष्टवियोगज आर्तध्यान
From जैनकोष
ज्ञानार्णव अधिकार 25/29-31
राज्यैश्वर्यकलत्रबांधवसुहृत्सौभाग्यभोगात्ययचित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्वंसभावेऽथवा। संत्रासभ्रमशोकमोहविवशैर्यत्खिद्यतेऽहर्निशं तत्स्यादिष्टवियोगजं तनुमतां ध्यानं कलंकास्पदम् ॥21॥ दृष्टश्रुतानुभूतैस्तैः पदार्थैश्चित्तरंजकैः। वियोगे यन्मनः खिन्नं स्यादार्त्तं तद्द्वितीयकम् ॥30॥ मनोज्ञवस्तुविधवसे मनस्तत्संगमार्थिभिः क्लिश्यते यत्तदेतत्स्याद्द्वितीयार्त्तस्य लक्षणम् ॥31॥
= जो राज्य ऐश्वर्य स्त्री, कुटुंब, मित्र, सौभाग्य भोगादि के नाश होने पर तथा चित्त को प्रीति उत्पन्न करने वाले सुंदर स्त्रियों के विषयों का प्रध्वंस होते हुए, संत्रास, पीड़ा, भ्रम, शोक, मोह के कारण निरंतर खेद रूप होना सो जीवों के इष्ट वियोग जनित आर्त्तध्यान है, और यह ध्यान पाप का स्थान है ॥29॥ देखे, सुने, अनुभव किये, मन को रंजायमान करने वाले पूर्वोक्त पदार्थों का वियोग होने से जो मन को खेद हो वह भी दूसरा आर्त्तध्यान है ॥30॥ अपने मन की प्यारी वस्तु के विध्वंस होने पर पुनः उसकी प्राप्ति के लिए जो क्लेश रूप होना सो दूसरे आर्त्तध्यान का लक्षण है।
देखें आर्तध्यान - 1.5।