ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 1
From जैनकोष
श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्नकरण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादि-रत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह --
नम: श्री वर्धमानाय निर्धूत कलिलात्मने
सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ॥1॥
टीका:
नमो नमस्कारोऽस्तु । कस्मै ? श्रीवर्धमानाय अन्तिमतीर्थंकराय तीर्थंकरसमुदायाय वा । कथं ? अव--समन्तादृद्धं परमातिशयप्राप्तं मानं केवलज्ञानं यस्यासौ वर्धमानः । अवाप्योरल्लोपः इत्यवशब्दाकारलोपः । श्रिया बहिरंगयाऽन्तरंगया च समवसरणानन्तचतुष्टयलक्षणयोपलक्षितो वर्धमानः श्रीवर्धमान इति व्युत्पत्तेः, तस्मै । कथंभूताय ? निर्धूतकलिलात्मने निर्धूतं स्फोटितं कलिलं ज्ञानावरणादिरूपं पापमात्मन आत्मानां वा भव्यजीवानां येनासौ निर्धूतकलिलात्मा तस्मै । यस्य विद्या केवलज्ञानलक्षणा । किं करोति ? दर्पणायते दर्पण इवात्मानमाचरति । केषां ? त्रिलोकानां त्रिभुवनानां । कथंभूतानां ? सालोकानाम् अलोकाकाशसहितानाम् । अयमर्थः- यथा दर्पणो निजेन्द्रियगोचरस्य मुखादेः प्रकाशकस्तथा सालोकत्रिलोकानां तथाविधानां तद्विद्या प्रकाशिकेति । अत्र च पूर्वार्द्धेन भगवतः सर्वज्ञतोपायः, उत्तरार्धेन च सर्वज्ञतोक्ता ॥१॥
जिस प्रकार रत्नों की रक्षा का उपायभूत करण्डक-पिटारा होता है और वह रत्नकरण्डक कहलाता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि रत्नों की रक्षा का उपायभूत यह रत्नकरण्डक नाम का शास्त्र है । इस शास्त्र की रचना करने के इच्छुक श्री समन्तभद्रस्वामी निर्विघ्नरूप से शास्त्र की परिसमाप्ति आदि फल की अभिलाषा रखकर इष्ट देवताविशेष- श्रीवर्धमान स्वामी को नमस्कार करते हुए कहते हैं --
नम: श्री वर्धमानाय निर्धूत कलिलात्मने
सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ॥1॥
टीकार्थ:
यहाँ वर्धमान शब्द के दो अर्थ किये हैं -- एक तो अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान स्वामी और दूसरा वृषभादि चौबीस तीर्थंकरों का समुदाय । प्रथम अर्थ तो वर्धमान अन्तिम तीर्थंकर प्रसिद्ध ही है और दि्वतीय अर्थ में वर्धमान शब्द की व्याख्या इस प्रकार है- 'अव समन्ताद् ऋद्धं परमातिशयप्राप्तमानं केवलज्ञानं यस्यासौ' जिनका केवलज्ञान सब ओर से परम अतिशय को प्राप्त है । इस प्रकार इस अर्थ में वर्धमान शब्द सिद्ध होता है । किन्तु 'अवाप्योरल्लोपः' इस सूत्र से अव और अपि उपसर्ग के अकार का विकल्प से लोप होता है- व्याकरण के इस नियमानुसार 'अव' उपसर्ग के अकार का लोप हो जाने से वर्धमान शब्द सिद्ध हो जाता है । श्रिया- श्री का अर्थ लक्ष्मी होता है । लक्ष्मी भी अन्तरंग लक्ष्मी और बहिरंग लक्ष्मी, इस प्रकार दो भेद रूप है । समवसरणरूप लक्ष्मी बहिरंग लक्ष्मी है और अनन्त चतुष्टयरूप अन्तरंग लक्ष्मी कहलाती है । इस प्रकार श्री वर्धमान शब्द का अर्थ वृषभादि चौबीस तीर्थंकर होता है, उनके लिये मैं नमस्कार करता हूँ ।
जिन अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान स्वामी अथवा वृषभतीर्थंकरादि चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार किया है, उनमें क्या विशेषता है इस बात को बतलाते हुए कहा है -- निर्धूतकलिलात्मने अर्थात् जिनकी आत्मा से ज्ञानावरणादि कर्मरूप कलिलपापों का समूह नष्ट हो गया है, अथवा जिन्होंने अन्य भव्यात्माओं के कर्म-कलंक को नष्ट कर दिया है । जब यह जीव अपने दोषों का नाश कर देता है, तभी उसमें सर्वज्ञता प्रकट होती है और तभी वह हितोपदेश देने का अधिकारी होता है । इसलिये दूसरी विशेषता बतलाते हुए कहा है कि -- यद्विद्या सालोकानां त्रिलोकानां दर्पणायते अर्थात् जिनकी केवलज्ञानरूप विद्या अलोकाकाश सहित तीनों लोकों को प्रकाशित करने के लिये दर्पण के समान है । यथा -- मनुष्य को अपना मुख अपनी चक्षु इन्द्रिय से नहीं दिखता उसी प्रकार जो पदार्थ इन्द्रिय गोचर नहीं हैं उन्हें केवलज्ञान दिखा देता है अर्थात् केवलज्ञान में त्रिकालवर्ती सभी पदार्थ झलकते हैं ।
यहां श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान् की सर्वज्ञता का उपाय बतलाया है और उत्तरार्ध में सर्वज्ञता का निरूपण किया गया है ।