शूद्र
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
महापुराण/38/46 शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ।46।
महापुराण/16/185-186 तेषां शुश्रषणाच्छूद्रास्ते द्विधा कार्वकारवः । कारवो रजकाद्याः स्युः ततोऽन्ये स्युरकारवः ।185। कारवोऽपि मता द्वेधास्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः ।तत्रास्पृश्याः प्रजाबाह्याः स्पृश्याः स्युः कर्त्तकादयः ।186।
= नीच वृत्ति का आश्रय करने से शूद्र होता है ।45। जो उनकी (ब्राह्मणादि तीन वर्णों की) सेवा शुश्रूषा करते थे वे शूद्र कहलाते थे । वे शूद्र दो प्रकार के थे - कारु और अकारु । धोबी आदि शूद्र कारु कहलाते थे और उनसे भिन्न अकारु कहलाते थे । कारु शूद्र भी स्पृश्य तथा अस्पृश्य के भेद से दो प्रकार के माने गये हैं । उनमें जो प्रजा से बाहर रहते हैं उन्हें अस्पृश्य और नाई वगैरह को स्पृश्य कहते हैं ।186। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक/8/418/21 ) ।
अधिक जानकारी के लिये देखें वर्णव्यवस्था - 4.1।
पुराणकोष से
वृषभदेव ने कर्मभूमि का आरंभ करते हुए तीन वर्णों की स्थापना की थी― क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । इसमें सेवा-शुश्रूषा करने वालों को शूद्र कहा गया है । इनके दो भेद बताये हैं― कारू और अकारू । महापुराण 16.183-186, 245, पद्मपुराण 3.258, 11. 202, हरिवंशपुराण 9. 39, पांडवपुराण 2.161-162