Test5
From जैनकोष
= अयोगि विषैं सत्त्वरूप वही पिच्यासी प्रकृति (पाँच शरीर (5), पाँच बंधन (5), पाँच संघात (5), छः संस्थान (6), तीन अंगोपांग (3), छः संहनन (6), पाँच वर्ण (5),दोय गंध (2), पाँच रस (5), आठ स्पर्श (8), स्थिर-अस्थिर (2), शुभ-अशुभ (2), सुस्वर-दुःस्वर (2), देवगति व आनुपूर्वी (2), प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति (2) दुर्भग (1), निर्माण (1), अयशःकीर्ति (1), अनादेय (1), प्रत्येक (1), अपर्याप्त (1), अगुरुलघु (1), उपघात(1), परघात (1), उच्छ्वास (1), अनुदयरूप अन्यतम वेदनीय (1), नीच गोत्र (1)-ये 72 प्रकृति की तौ अयोगि के द्वि-चरम समय सत्त्व से व्युच्छित्ति होती है बहुरि जिनका उदय अयोगि विषैं पाइये ऐसे उदयरूप अन्यतम वेदनीय (1), मनुष्यगति (1), पंचेंद्रिय (1), सुभग (1), त्रस (1), बादर (1), पर्याप्त (1), आदेय (1),यशःकीर्ति (1), तीर्थंकरत्व (1), मनुष्यायु व आनुपूर्वी (2), उच्च गोत्र (1)-इन तेरह प्रकृतियों की अयोगि के अंत समय सत्त्व से व्युच्छित्ति होती है। सर्व मिलि 85 भई।)
(पाँच ज्ञानावरण (5), चार दर्शनावरण (4), पाँच अंतराय (5), निद्रा-प्रचला (2) ये सोलह तथा सूक्ष्म लोभ। सर्व मिलि 7 भई।)
बहुरि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति ये तीन और `णिरय तिरक्खा' इत्यादि सूत्रोक्त अनिवृत्तिकरण विषै क्षय भई सोलह प्रकृति (नरक गति व आनुपूर्वी, तिर्यंचगति व आनुपूर्वी,
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विकलत्रय, स्त्यानगृद्धित्रिक, उद्योत, आतप, एकेंद्रिय, साधारण
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सूक्ष्म, स्थावर, इन सोलह प्रकृतिनि की अनिवृत्तिकरण के पहिले भाग
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विषैं सत्त्वसे व्युच्छित्ति है)। इनिके क्षयदेश पर्यंत अपकर्षणकरण है-अंतकांडक का अंत का फालि पर्यंत है, ऐसा जानना। बहुरि आठ कषाय ने आदि देकरि अनिवृत्तिकरणविषैं क्षय भई ऐसी बीस प्रकृति (अप्रत्याख्यान कषाय, प्रत्याख्यान कषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद
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छह नोकषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध मान व माया। सर्व मिलि
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20 भई।) तिनिकैं अपने-अपने क्षयदेश पर्यंत अपकर्षणकरण है।