असंयतसम्यग्दृष्टि
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
पंचसंग्रह / प्राकृत/11 णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सद्दहइ जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो।11। =जो पाँचों इंद्रियों के विषयों में विरत नहीं है और न त्रस तथा स्थावर जीवों के घात से ही विरक्त है, किंतु केवल जिनोक्त तत्त्व का श्रद्धान करता है, वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत या असंयत सम्यग्दृष्टि है।11। ( धवला 1/1,1,12/ गा.111/173); ( गोम्मटसार जीवकांड/29/58 ); (और भी देखें असंयम )
देखें सम्यग्दर्शन ।
पुराणकोष से
चौथा गुणस्थान । हरिवंशपुराण 3.80