अभिनिबोध
From जैनकोष
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/13/106 अभिनिबोधनमभिनिबोधः।
= साधन के साध्य का ज्ञान अभिनिबोध ज्ञान है।
धवला पुस्तक 6/1,9-1,14/15/9 अहिमुह-णियमिय अत्थावबोहो अभिणिबोहो। थूल-वट्टमाण-अणंतरदि अत्था अहिमुहा। चक्खिंदिए रूवं णियमिदं, सोदिंदिए सद्दो, घाणिदिए गंधो, जिब्भिंदिए रसो, फासिंदिए फासो, णोइंदिए दिट्ठ-सुदाणुभूदत्था णियमिदा। अहिमुह-णियमिदट्ठेसु जो बोधो सो जहिणिबोधो। अहिणिबोध एव आहिणिबोधियणाणं।
= अभिमुख और नियमित अर्थके अवबोधको अभिनिबोध कहते हैं। स्थूल वर्तमान और अनंतरित अर्थात् व्यवधान रहित अर्थों को अभिमुख कहते हैं। चक्षुरिंद्रिय में रूप नियमित है, श्रोत्रेंद्रिय में शब्द, घ्राणेंद्रिय में गंध, जिह्वेंद्रिय में रस, स्पर्शनेंद्रिय में स्पर्श और नोइंद्रिय अर्थात् मनमें दृष्ट, श्रुत, और अनुभूत पदार्थ नियमित हैं। इस प्रकार के अभिमुख और नियमित पदार्थों में जो बोध होता है, वह अभिनिबोध है। अभिनिबोध हो आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है।
(और भी देखें मतिज्ञान - 1.1.2)।
• स्मृति आदि ज्ञानों की कथंचित् एकार्थता की सिद्धि-देखें मतिज्ञान - 3।