शर्कराप्रभा
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- सर्वार्थसिद्धि/3/1/201/8 शर्कराप्रभासहचरिता भूमि: शर्कराप्रभा। ...एता: संज्ञा अनेनोपायेन व्युत्पाद्यंते। =जिसकी प्रभा शर्करा के समान है वह शर्कराप्रभा है।...इस प्रकार नाम के अनुसार व्युत्पत्ति कर लेनी चाहिए। (तिलोयपण्णत्ति/2/21 ); (राजवार्तिक/3/1/3/159/18 ); (जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/121 )।
- शर्कराप्रभा पृथिवी का लोक में अवस्थान। देखें नरक - 5.11;
- शर्कराप्रभा पृथिवी का नकशा। देखें लोक - 2.8।
पुराणकोष से
(1) शर्करा के समान प्रभाधारी नरक । यह सात नरकों में दूसरा नरक है । इसका अपर नाम वंशा है । इसके ग्यारह प्रस्तारों में ग्यारह इंद्रक बिल हैं― स्तरक, स्तनक, मनक, वनक, घाट, संघाट, जिह्वा, जिह्विक, लोल, लोलुप और स्तनलोलुप । इनके श्रेणीबद्ध बिली की संख्या निम्न प्रकार होती है―
नाम इंद्रक, चारो दिशाओं में, विदिशाओं में, कुल
स्तरक, 144, 140, 284
स्तनक, 140, 136, 276
मनक, 136, 132, 268
वनक 132, 128, 260
घाट, 128, 124, 252
संभाट, 124, 120, 244
जिह्व, 120, 116, 236
जिह्विक, 116, 112, 228
लोल, 112, 108, 220
लोलुप, 108, 104, 212
स्तनलोलुप, 104, 100, 204
योग, 1364 1320, 2684
यहाँँ प्रकीर्णक बिल 24,97,305 होते हैं । इस प्रकार कुल बिल यहाँ पच्चीस लाख है । तरक इंद्र बिल के पूर्व में अनिच्छ, पश्चिम में महा अनिच्छ, दक्षिण में विंध्य और उत्तर में महाविंध्य नाम के महानरक है । पच्चीस लाख बिलों में पाँच लाख बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले होते हैं । इंद्रक बिलों का विस्तार क्रम निम्न प्रकार है―
नामक दत्तक बिल, विस्तार प्रमाणं
1. स्तरक, 33.60333 3/1 योजन
2. स्तनक, 32.16.666 3/2 योजन
3. मनक, 31.25.000
4. वनक, 30.33.333 3/1 योजन
5. घाट, 29.41.666 3/2 योजन
6. संघाट, 28.50.000 योजन
7. जिह्व, 27.58.333 3/1 योजन
8. जिह्विक, 26.66.666 3/2 योजन
9. लोल, 25.75.000 योजन
10. लोलुप, 24.83. 333 3/1 योजन
11. स्तनलोलुप, 23.91.666 3/2 योजन
इंद्रक बिलों की मुटाई डेढ़ कोश, श्रेणीबद्ध बिलों की दो कोश और प्रकीर्णक बिलों की साढ़े तीन कोश होती है । इंद्रक बिलों का अंतर 1999 योजन और 4700 धनुष है । श्रेणीबद्ध बिलों का अंतर 2999 योजन और 3600 धनुष तथा प्रकीर्णक बिलों का अंतर 2999 योजन और 300 धनुष है । यहाँ के प्रस्तारों में नारकियों की आयु का क्रम इस प्रकार होता है―
नाम प्रस्तार, जघन्य आयु, उत्कृष्ट आयु
1. स्तरक, एक सागर एक समय, 1 11/2 सागर
2. स्तनक, 1 11/2 सागर, 1 11/4 सागर
3. मनक, 1 11/4 सागर, 1 11/6 सागर
4. वनक, 1 11/6 सागर, 1 11/8 सागर
5. घाट, 1 11/8 सागर, 1 11/10 सागर
6. संघाट, 1 11/10 सागर, 1 11/1 सागर
7. जिह्व, 1 11/1 सागर, 1 11/3 सागर
8. जिह्विक, 1 11/3 सागर, 1 11/5 सागर
9. लोल, 1 11/5 सागर, 1 11/7 सागर
10. लोलुप, 1 11/7 सागर, 1 11/2 सागर
11. स्तनलोलुप, 1 11/9 सागर, 3 सागर
इस नरक के नारकियों की ऊंचाई निम्न प्रकार होती है―
नाम प्रस्तार, धनुष, हाथ, अंगुल,
1. स्तरक,
2. स्तनक,
3. मनक,
4. वनक,
5. घाट,
6. संघाट,
7. जिह्व,
8. जिह्विक,
9. लोल,
10. लोलुप,
11. स्तनलोलुप,
यहाँँ अवधिज्ञान का विषय साढ़े तीन कोश प्रमाण है। नारकी कापोत लेश्या वाले होते हैं। उन्हें उष्णवेदना अधिक होती है। नारकियों के उत्पत्ति स्थानों का आकार ऊँट, कुंभी, कुस्थली, मुद्गर, मृदंग और नाड़ी के समान होता है। इंद्रक-बिल तीन द्वार वाले तथा तिकोने होते हैं। श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिल तिकोने, पचकोने और सतकोने भी होते हैं। नारकियों के ये सभी उत्पत्ति स्थान है। इस पृथिवी के उत्पत्ति स्थानों में जन्मने वाले जीव पंद्रह योजन अढ़ाई कोश आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं। असुरकुमार देव यहाँ नारकियों को परस्पर में पूर्व वैरभाव का स्मरण कराकर लड़ाते हैं । सरक कर चलने वाले जीव इस भूमि के आगे की भूमियों में उत्पन्न नहीं होते हैं । इस भूमि से निकला जीव मनुष्य या तिर्यंच होकर पुन: इस भूमि में छ: बार उत्पन्न हो सकता है। यहाँ से निकला जीव सम्यग्दर्शन की शुद्धि से तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकता है। (महापुराण 10.31-32, 41), (हरिवंशपुराण 4.78-79, 105-117, 153, 162, 184-194, 219, 229-232, 259-269, 306-316, 341-347, 351-352, 356, 362, 373, 377, 381)