उपवास
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
अनगारधर्मामृत/7/12 स्वार्थादुपेत्य शुद्धात्मन्यक्षाणां वसनाल्लयात् । उपवासोसनस्वाद्यखाद्यपेयविवर्जनम् ।12। = उप् पूर्वक वस् धातु से उपवास बनता है अर्थात् उपसर्ग का अर्थ उपेत्य हट तथा वस् धातु का अर्थ निवास करना या लीन होना होता है । अतएव इंद्रियों के अपने-अपने विषय से हटकर शुद्धात्म स्वरूप में लीन होने का नाम उपवास है ।12।
देखें प्रोषधोपवास ।
पुराणकोष से
एक बाह्य तप-अनशन । विधियुक्त उपवास कर्मनाशक होता है । इससे सिद्धत्व प्राप्त होता है । वृषभदेव ने एक वर्ष पर्यंत यह तप किया था । महापुराण 6.142, 145,7.16, 20. 28-29, पद्मपुराण 14.114-115