चारण ऋद्धि
From जैनकोष
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०३४-१०३५, १०४८ "चारणरिद्धी बहुविहवियप्पसंदोह वित्थरिदा ।१०३४। जलजंधाफलपुप्फं पत्तग्गिसिहाण धूममेधाणं। धारामक्कडतंतूजोदीमरुदाण चारणा कमसो ।१०३५। अण्णो विविहा भंगा चारणरिद्धीए भाजिदा भेदा। तां सरूवंकहणे उवएसो अम्ह उच्छिण्णो ।१०४८। = चारण ऋद्धि क्रम से जलचारण, जंघाचारण, फलचारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, अग्निशिखाचारण, धूमचारण, मेघचारण, धाराचारण, मर्कटतन्तुचारण, ज्योतिषचारण और मरुच्चारण इत्यादि अनेक प्रकार के विकल्प समूहों से विस्तार को प्राप्त हैं ।१०३४-१०३५। इस चारण ऋद्धि के विविध भंगों से युक्त विभक्त किये हुए और भी भेद होते हैं। परन्तु उनके स्वरूप का कथन करने वाला उपदेश हमारे लिए नष्ट हो चुका है ।१०४८।
देखें ऋद्धि - 4।