अपाय विचय
From जैनकोष
सर्वार्थसिद्धि/9/36/449/11 जात्यंधवंमिथ्यादृष्टय: सर्वज्ञप्रणीतमार्गाद्विमुखमोक्षार्थिन सम्यङ्मार्गापरिज्ञानात् सुदूरमेवापयंतीति संमार्गापयाचिंतनमपायविचय:। अथवा–मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्य: कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपायविचय:। =मिथ्यादृष्टि जीव जंमांध पुरुष के समान सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से विमुख होते हैं, उन्हें सन्मार्ग का परिज्ञान न होने से वे मोक्षार्थी पुरुषों को दूर से ही त्याग देते हैं, इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का चिंतवन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है। अथवा–ये प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र से कैसे दूर होंगे इस प्रकार निरंतर चिंतन करना अपाय विचय धर्मध्यान है। ( राजवार्तिक/9/36/6-7/630/16 ); ( महापुराण/21/141-142 ); ( भगवती आराधना/विजयोदयी टीका/1708/1536/18 ); ( तत्त्वसार/7/41 ); ( ज्ञानार्णव/34/1-17 )।
धर्मध्यान का एक भेद व लक्षण। देखें धर्मध्यान - 1।