ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 8
From जैनकोष
अथानंतर ऊपर जिननाभिराज का कथन किया गया है वे श्रीमान् पुरुषों के अनुरूप परिणाम को प्राप्त थे तथा समस्त पुरुषार्थों का मनन करने से मनु कहलाते थे ॥1॥ उस समय दक्षिण भरतक्षेत्र में कल्पवृक्षरूप प्रासाद अन्यत्र नष्ट हो गये थे परंतु राजा नाभिराज का जो कल्पवृक्षरूप प्रासाद था वीनिर्मित प्रासाद बन गया था ॥2 ।। राजा नाभिराज के उस प्रासाद का नाम सर्वतोभद्र था, उसके खंभे स्वर्णमय थे, दीवालें नाना प्रकार की मणियों से निर्मित थीं, वह पुखराज, मूंगा तथा मोती आदि की मालाओं से सुशोभित था, इक्यासी खंड से युक्त था और कोट, वापिका तथा बाग-बगीचों से अलंकृत था ॥3-4।। वह अधिष्ठाता नाभिराज के प्रभाव से अकेला ही अनेक कल्पवृक्षों से आवृत था तथा पृथिवी के मध्य अपने स्थान पर अधिष्ठित था ॥5॥
अथानंतर राजा नाभिराज की मरुदेवी नाम की पटरानी थी । यह शुद्ध कुल में उत्पन्न हुई थी तथा जिस प्रकार इंद्र को इंद्राणी प्रिय होती है उसी प्रकार राजा नाभिराज को प्रिय थी ॥6॥ जिनके नख अत्यंत चमकदार थे ऐसे उसके उठे हुए दोनों पैरों के अंगूठे ऐसे जान पड़ते थे मानो ललाट के देखने की इच्छा से ही ऊपर की ओर उठ रहे हों ॥7॥ उसके दोनों चरण, उन्नत अग्रभाग से युक्त, सम, स्निग्ध, पतले और लाल-लाल नखों की किरणों से फर्श पर कुरवक की शोभा उत्पन्न कर रहे थे ॥8॥ जिनकी अंगुलियाँरूपी कलिकाएँ परस्पर में सटी हुई थीं, जिनकी गांठें छिपी हुई थीं और जो कछुओं के समान उन्नत थे, ऐसे उसके दोनों चरणकमल कांतिरूपी जल में मानो तैर ही रहे थे ॥9॥ सुंदर मच्छ तथा शंख आदि के लक्षणों से युक्त जिसके चरण, क्रीड़ाओं के समय ही पति का स्पर्श पाकर पसीना के संबंध से युक्त होते थे अन्य समय नहीं ॥10॥ अनुक्रमिक गोलाई से युक्त, तथा रोम एवं नसों से रहित उसकी दोनों जंघाएँ सौंदर्य रस से भरे हुए मानो कामदेव के दो तरकश ही हैं ।। 11 ।। गूढ़ संधि से युक्त जिसके दोनों कोमल घुटने पति के अवयवों को कोमल स्पर्शजन्य सुख प्रदान करते थे ॥12॥ केले के स्तंभ सार रहित हैं और हाथी के शंडादंड कठोर स्पर्श से युक्त हैं अतः विस्ताररूपी गुणों से युक्त होने पर भी दोनों मरु देवी की जाँघों के समान नहीं थे ।। 13 ।। जिसके कूल्हे, गर्त विशेष से मनोहर नितंब और स्थूल जघन सादृश्य से परे थे अर्थात् अनुपम थे ॥14॥ जिसकी आवर्त-जल भंवर के समान गोल, गहरी एवं रोमरा जिसे युक्त नाभि, राजा नाभिराज के हर्ष का कारण थी ॥15॥
जिसकी रोम रहित, पतली एवं त्रिवलि से युक्त कमर ऐसी जान पड़ती थी मानो गोल, सम, ऊंचे और स्थूल स्तनों के भार से ही झुक रही हो ॥16॥ जिस प्रकार मंद भय के साथ क्रीड़ा करते हुए चकवा-चकवियों के युगल से नदी सुशोभित होती है उसी प्रकार जिसका वक्षःस्थल कठोर स्तनों के मंडल से सुशोभित हो रहा था ।। 17 ।। जिनकी हथेलियाँ लाल-लाल थीं, जिनकी कोहनी और कलाई उत्तम थीं और जिनके कंधे शोभास्पद थे ऐसी उसकी दोनों कोमल भुजाएँ कामपाश के समान जान पड़ती थीं ॥18॥ उसकी ग्रीवा शंख के आवर्त के समान थी, अधर पल्लव मूंगा के समान थे और दाँत मोतियों के समान प्रकाशमान थे इसलिए वह समुद्र की वेला के समान सुशोभित हो रही थी ॥19।। जिसका ताल और जिह्वा का अग्रभाग अत्यंत लाल था ऐसा उसका अंतर्मुख सुशोभित था और जब उसके शब्द निकलते थे तब वह कोकिला के शब्द को भी अशब्द कर देता था-― फीका बना देता था ॥20॥
प्रिया के मुख के समान जब नाभिराज अपना मुख देखने की इच्छा करते थे तब सामने स्थित मरुदेवी के दोनों कपोल दर्पण के समान हो जाते थे ॥21॥ ठीक बीच में स्थित सम और समान पुट वाली उसकी नासिका ऐसी जान पड़ती थी मानो स्पर्धा करने वाले दोनों नेत्रों के पारस्परिक दर्शन को रोक ही रही थी॥22॥ सफेद, काले और लाल इन तीन वर्ण के कमलों के समान जिसके बड़ेबड़े नेत्र किसी मंत्र की सलाह करने के लिए ही मानो कानों के समीप तक गये थे ।। 23॥ जिसकी पतली भौंहें न दूर थीं और न पास ही थीं, शुभ लक्षणों से युक्त थीं तथा चढ़ाये हुए धनुष के समान सुशोभित थीं ॥24॥ जिसका ललाटपट्ट न अधिक नीचा था और न अधिक ऊँचा था इसलिए उसका सादृश्य प्राप्त करने के लिए अर्ध चंद्र की सामर्थ्य नहीं थी ॥25 ।। जिसके कानों का युगल अपने कुंडलों से गालों को उज्ज्वल बना रहा था, स्थूल था, कोमल था और समान था अतः उसकी कहीं भी उपमा नहीं थी ॥26॥ काले घुँघराले चिकने और महीन केसों के समूह से युक्त जिसके सुंदर सिर की शोभा वचन मार्ग को उल्लंघन कर गयी थी ॥27॥
जिसके मुख-मंडल की शोभा से पराजित हुआ पूर्णचंद्र मानसिक व्यथा से ही मानो अत्यंत सफेदी को प्राप्त हो गया था ॥28॥ चंद्रमा की मूर्ति सोलह कलाओं से मुक्त है और मरुदेवी बहत्तर कलाओं से सहित थी, चंद्रमा की मूर्ति कलंक सहित है और मरुदेवी अत्यंत उज्ज्वल थी अतः चंद्रमा की मूर्ति से उसकी तुलना कैसे हो सकती है ? ॥29॥ मरुदेवी चौंसठ गुणों से युक्त थी और पृथिवी मात्र चार गुणों को धारण करने वाली है । मरुदेवी कोमलता के प्रति सबको प्राप्त थी और पृथिवी अत्यंत कठिन है अतः यह उसके तुल्य कैसे हो सकती है ? ॥30॥ यद्यपि जल स्निग्ध है― कुछ-कुछ चिकनाई से युक्त है पर मरुदेवी सुस्निग्धा― अत्यधिक चिकनाई से युक्त थी (पक्ष में पति-विषयक स्नेह से सहित थी), जल जड़रूप है, मूर्ख है―(पक्ष में पानीरूप है) और मरुदेवी कलाओं में निपुण थी, जल, अन्यप्रणेया― दूसरे के द्वारा ले जाने योग्य है और मरुदेवी अन्यप्रणेया नहीं थी― स्वावलंबी थी अतः उसकी जल के साथ उपमा कैसे हो सकती है ।꠰ 31 ।। यद्यपि अग्नि मरुदेवी के समान भास्वर रूप है परंतु साथ ही दाहमयी भी है अतः वह मरुदेवी के शरीर की उपमा को कैसे प्राप्त हो सकती है ? ॥32॥ मरुदेवी, दर्शन और स्पर्श दोनों के द्वारा नाभिराज को अतिशय सुख देने वाली थी परंतु वायु मात्र स्पर्श के द्वारा सुख पहुंचाती थी अतः वह वायु के समान कैसे हो सकती थी ? ॥33॥ मरुदेवी पति के हृदय का स्पर्श करने वाली थी जबकि आकाश स्पर्श से शून्य है अतः वह शुद्ध होने पर भी आकाशरूपी शक्ति के सदृश कैसे हो सकती है ? ॥34॥ कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए चौदह प्रकार के आभूषण जिसके अंग-प्रत्यंग का संबंध पाकर भूष्यता को प्राप्त हुए थे । भावार्थ-आभूषणों ने उसके शरीर को विभूषित नहीं किया था किंतु उसके शरीर ने ही आभूषणों को विभूषित किया था ॥35॥ उस मरुदेवी के साथ स्वर्ग लोक के समान भोग भोगने वाले राजा नाभि का यदि स्पष्ट वर्णन करने के लिए कोई समर्थ है तो वक्ता शुक्र और बृहस्पति ही समर्थ हैं अन्य नहीं ॥36॥
अथानंतर जब प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत हो राजा नाभिराज और मरुदेवी के यहाँ अवतार लेंगे उसके छह माह पूर्व से ही उनके घर के आँगन में इंद्र की आज्ञा से कुबेर के द्वारा छोड़ी हुई रत्नों की धारा आकाश में पड़ने लगी ॥37-38॥ श्री, लक्ष्मी, धृति, कीर्ति आदि निन्यानवे विद्युत्कुमारी और दिक्कुमारी देवियां भी छह माह पहले से बड़े हर्ष के साथ दिशाओं और विदिशाओं से आ गयीं ॥39 ।। उन्होंने आकर बड़े संतोष से जिनेंद्र भगवान् के होनहार माता-पिता को नमस्कार किया और हम इंद्र की आज्ञा से स्वर्गलोक से यहाँ आयी हैं, इस प्रकार अपना परिचय दिया ।। 40।। हे देवि ! आज्ञा दो, समृद्धिसंपन्न होओ, और चिर काल तक जीवित रहो इस प्रकार की उत्तम वाणी को बोलती हुई वे देवियाँ महान् आदर के साथ मरुदेवी के आदेश को प्रतीक्षा करने लगीं ॥41 ।। उस समय परम आश्चर्य को प्राप्त हुई कितनी ही देवियाँ मरुदेवी के रूप, यौवन, सौंदर्य और सौभाग्य आदि गुणों के सागर का वर्णन करती थीं ॥42॥ कितनी ही देवियाँ मरुदेवी के अक्षर-विज्ञान, चित्र-विज्ञान, संगीत-विज्ञान, गणित-विज्ञान और आगम विज्ञान को आदि लेकर उसके कला-कौशल को प्रशंसा करती थीं ॥43॥ कितनी ही देवियां स्वयं अपनी तंत्री तथा वीणा आदि विषयक चतुराई दिखलाती थीं । कितनी ही कानों के लिए रसायन स्वरूप मधुर गान गाती थीं ॥44।। हाव, भाव और विलास से भरी हुई कितनी ही देवियाँ सुंदर अभिनय से युक्त, शृंगारादि रसों से उत्कट और नेत्रों के लिए अमृत स्वरूप मनोहर नृत्य करती थीं ॥45 ।।
कोमल हाथों को धारण करने वाली कितनी ही देवियाँ मरुदेवी के हाथ दाबने में, कितनी ही पैर दाबने में तथा कितनी ही अन्य अंगों के दाबने में लग गयो थीं ॥46॥ कितनी ही शरीर पर तेल का मर्दन करने में, कितनी हो उबटन लगाने में, कितनी ही स्नान कराने में और कितनी ही स्नान के वस्त्र निचोड़ने में तत्पर थीं ॥47॥ कोई उत्तम गंध के लाने में; कोई उसका लेप लगाने में, कोई चित्र-विचित्र वस्त्र सँभालने में, और कोई वस्त्र पहनाने में लग गयी॥48॥ कोई आभूषण तथा मालाओं के लाने में, कोई शरीर की सजावट में, कोई दिव्य भोजन के लाने में और कोई भोजन कराने में व्यग्र थी ॥49॥ कोई विस्तर तथा आसन के बिछाने में, कोई पान लगाने में, कोई पीकदान रखने में, कोई गृह-संबंधी कार्य में, कोई दर्पण उठाने में, कोई चमर ग्रहण करने में, कोई छत्र लगाने में और कोई पंखा झलने में तत्पर थी ।। 50-51 ।। कितनी ही देवियाँ हाथ में तलवार ले अंग रक्षा करने में तत्पर रहती थीं एवं ग्रह, राक्षस और पिशाचों से रक्षा करती हुई जागृत रहती थीं ॥52॥ कितनी ही देवियाँ घर के भीतरी द्वार पर और कितनी ही बाह्य द्वार पर तलवार, चक्र, गदा, शक्ति और स्वर्णमय छड़ी हाथ में लेकर खड़ी थीं ॥53॥ इस प्रकार लोक में जो दूसरों के लिए दुर्लभ थी, ऐसी देवियों द्वारा अपनी आज्ञा की पूर्ति देखकर तथा लगातार छह माह से पड़ती हुई रत्न धारा से राजा नाभिराज और मरुदेवी ने निश्चय कर लिया कि हमारे यहाँ सबके द्वारा प्रार्थनीय तीर्थंकर का जन्म होगा ।। 54-55॥
अथानंतर मनोहर ताराओं से सेवित चंद्रकला के समान अनेक देवियों से सेवित मनोहरांगी मरुदेवी, शरद्ऋतु की मेघावली के समान सफेद एवं अगुरु चंदन से सुवासित राजभवन में नाना गद्दा-तकियों से युक्त चंद्र तुल्य शय्या पर शयन कर रही थी कि उसने रात्रि के पश्चिम भाग में निधियों के समान शुभसूचक, इन दुर्लभ सोलह स्वप्नों को क्रम से देखा ।। 56-58 ॥ प्रथम ही उसने सफेद हाथी देखा, ऐसा हाथी कि जो अत्यधिक मद की धारा से गोली मूंड़ और उसके अग्रभाग को धारण कर रहा था तथा मद के अर्थी भ्रमर जिसके आस-पास गुंजार कर रहे थे । वह हाथी किसी राजा के समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार राजा के कर पुष्कर― हस्तकमल अत्यधिक दान के संकल्प के लिए गृहीत जल की धारा से गीले रहते हैं उसी प्रकार उस हाथी के कर पुष्कर-सूंड और उसके नथने अत्यधिक दान मदजल की धारा से गीले थे और जिस प्रकार राजा के समीप खड़े दान के अर्थीजन उसकी स्तुति किया करते हैं उसी प्रकार दान-मद के अर्थी भ्रमर उसके समीप गुंजार कर रहे थे ।।59।।
दूसरी बार उसने भद्र आकृति को धारण करने वाला एक धीर-वीर बैल देखा । वह बैल ठीक धर्म के समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार धर्म अपनी मधुर देशना से एकांतवादी प्रतिपक्षियों को पराजित कर देता है उसी प्रकार वह बैल भी अपनी हंबाध्वनि से प्रतिपक्षी बैलों को पराजित कर रहा था, जिस प्रकार धर्म शुभ अभ्युदय को देता है उसी प्रकार वह बैल भी शुभ अभ्युदय को सूचित करने वाला था । जिस प्रकार धर्म भद्रा कृति― मंगलकारी होता है उसी प्रकार वह बैल भी भद्रा कृति― उत्तम आकृति का धारक था, जिस प्रकार धर्मधीर― धी बुद्धि को प्रेरणा करने वाला है उसी प्रकार वह बैल भी धीर― गंभीर था और जिस प्रकार धर्म उन्नत― उत्कृष्ट होता है उसी प्रकार वह बैल भी उन्नत― ऊँचा था ॥60॥
तीसरी बार तीक्ष्ण नख, दंष्ट्रा और सटा (गरदन के बालों) से युक्त एक सिंह देखा । वह सिंह ऐसा जान पड़ता था मानो पहले स्वप्न में दिखे हाथी के मद को गंध पा उसे ढूँढ़ने के लिए ही तैयार खड़ा हो ॥61 ।। चौथी बार उसने नाना रत्नमयी घड़ों के विशाल शब्द से युक्त मदोन्मत्त हाथियों के द्वारा कमल पर बैठी लक्ष्मी का अभिषेक देखा । लक्ष्मी का वह अभिषेक ऐसा जान पड़ता था मानो इंद्र धनुष से उपलक्षित एवं घनघोर गर्जना करने वाले मेघ नूतन जल से पृथिवी का ही अभिषेक कर रहे हों ।। 62 ।। पांचवीं बार उसने नाना पुष्पों से व्याप्त तथा अत्यंत सुगंधित दो बड़ी-बड़ी मालाएँ देखी । वे मालाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो समस्त ऋतुओं की लक्ष्मी ने मिलकर मरुदेवी की सेवा के लिए उन मालाओं को बनाकर ऊपर उठा रखा हो ॥63।।
छठवीं बार उसने चंद्रमंडल को देखा । वह चंद्रमंडल ऐसा जान पड़ता था मानो तारारूपी आभूषणों से युक्त रात्रिरूपी स्त्री के द्वारा ऊपर उठाया हुआ छत्र हो । ऐसा छत्र कि जिसकी नीचे की ओर आने वाली किरणों का समूह ही दंड का काम दे रहा था ॥64 ।। सातवीं बार उसने संध्या की लालिमा रूपी अंगराग से युक्त उदित होता हुआ सूर्य देखा । वह सूर्य ऐसा जान पड़ता था मानो पूर्व दिशा रूपी स्त्री ने मंगल के लिए सिंदूर से रंगा हुआ कलश ही ऊपर उठाया हो ॥65 ।। आठवीं बार उसने जल के भीतर क्रीड़ा करते हुए दो मीन देखे । वे मीन ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने उदर की शोभा को हरने वाले चंचल नेत्रों का उलाहना देने के लिए हो मरुदेवी के पास आये हों ।। 66 ।।
नौवीं बार उसने जल से भरे हुए दो स्वर्णमय विशाल कलश देखे । वे कलश ऐसे जान पड़ते थे मानो अपनी उपमा धारण करने वाले माता के स्तनों को देखने के लिए ही ऊपर उठे हों ।। 67 ।। दसवीं बार उसने एक ऐसा सरोवर देखा जो किसी बलिष्ठ सेना के समान जान पड़ता था । क्योंकि जिस प्रकार सेना, सोद्दंडपुंडरीकौघ― ऊपर उठे दंडों से युक्त छत्रों के समूह से सहित होती है उसी प्रकार वह सरोवर भी सोद्दंडपुंडरीकौघ― ऊँचे-ऊँचे डंठलों से युक्त श्वेत कमलों के समूह से सहित था । जिस प्रकार सेना, राजहंस मनोहर― उत्तम राजाओं से मनोहर होती है उसी प्रकार वह सरोवर भी राजहंस मनोहर― हंस विशेषों से सुंदर था । और जिस प्रकार सेना, रथपादातिनादाढय― रथ के पहियों की विशाल चीत्कार से युक्त होती है उसी प्रकार वह सरोवर भी रथपादातिनादाढय― चक्रवाक पक्षियों के अत्यधिक शब्द के युक्त था ॥68 ।।
ग्यारहवीं बार उसने बढ़ता हुआ एक ऐसा महासमुद्र देखा जो ठीक आकाश के समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार आकाश मीन, मिथुन, मकर आदि राशियों से युक्त होता है― उसी प्रकार महासमुद्र भी उत्तम मीन युगलों की उछल-कूद तथा मगर-मच्छ आदि की विशाल राशि से पूर्ण था ।। 69 ।। बारहवीं बार उसने एक सुवर्णमय सिंहासन देखा । वह सिंहासन जिस प्रकार सबल भुजाओं के धारक, प्रौढ़ दृष्टि से युक्त एवं कार्य करने में तत्पर कुलकरों के द्वारा जगत् धारण किया जाता है उसी प्रकार मजबूत भुजस्तंभों से युक्त, प्रौढ़ दृष्टि से सहित एवं ऊपर की ओर मुख किये हुए सिंहों के द्वारा धारण किया गया था ॥7॥ तेरहवीं बार उसने एक विमान देखा जो ऐसा जान पड़ता था मानो मनुष्यों को स्वर्गलोक का सौंदर्य दिखलाने के लिए सुंदर गीत गाने वाली देवकन्याए उसे पृथिवी पर ले आयी हों ॥71॥
चौदहवीं बार उसने नागेंद्र का भवन देखा जो ऐसा जान पड़ता था मानो वह अपनी शोभा से नागलोक को तो जीत चुका था अब अन्य लोकों को जीतने की इच्छा से ही नागकन्याएँ उसे पृथिवी पर ऊपर लायी हों ॥72॥ पंद्रहवीं बार उसने आकाश में महारत्नों की एक ऐसी राशि देखी जो अपनी उन्नत किरणों के द्वारा मेघरहित आकाश में बिजली और इंद्रधनुष से शोभित मेघ की रचना कर रही थी ॥73 ।। और सोलहवीं बार उसने अत्यंत निर्मल एवं घूमती हुई ज्वालाओं से युक्त, निर्धूम अग्नि देखी । वह अग्नि ऐसी जान पड़ती थी मानो चंचल फूलों से युक्त पलाश के बड़े-बड़े वृक्षों का समूह ही हो ॥ 74 ॥ इस प्रकार पृथक्-पृथक् दिखने वाले इन सोलह स्वप्नों को देखकर रानी मरुदेवी ने उसके बाद बैल के रूप में मुख मार्ग से प्रविष्ट हुए जिनेंद्र भगवान् को भीतर धारण किया ॥75॥
मैं, स्वामिनी को उत्तम स्वप्नों के देखने का नूतन आनंद प्राप्त करा चुकी हूँ इसलिए कृत कृत्य हुई की तरह रानी मरुदेवी की निद्रारूपी सखी कहीं भाग निकली ॥76॥ महारानी मरुदेवी स्वप्न-दर्शन के बाद स्वयं जाग गयी थीं, इसलिए दिक्कुमारियों के द्वारा उसके जगाने के लिए हे पदार्थों को जानने वाली माता ! जागो, हे वृद्धिरूपिणी माता ! वृद्धि को प्राप्त होओ, हे जयलक्ष्मी की स्वामिनि ! पूर्ण मनोरथों वाली माता ! जयवंत रहो इत्यादि कहे गये वचन केवल मंगलरूपता को प्राप्त हुए थे ॥77-78॥ हे माता ! यह चंद्रमा दोषाकार― दोषों की खान (पक्ष में निशाकर) और कलंकी― दोषयुक्त (पक्ष में काले चिह्न से युक्त) है अतः तुम्हारे निष्कलंक और गुणों की खानभूत मुखचंद्र को देखकर लज्जा से ही मानो प्रभा-रहित हो गया है ॥79।। अब तो यह घर तुम्हारे ही दोनों की प्रभा से प्रकाशित है― हम लोगों की आवश्यकता नहीं, यह विचारकर ही मानो ये दीपक स्फुरण के बहाने अपने आपकी हंसी कर रहे हैं ॥80॥
हे माता ! यह प्रातः संध्या, दुष्ट की चंचल मित्रता के समान राग-रहित होती जा रही है अर्थात् जिस प्रकार दुष्ट की मित्रता प्रारंभ में राग से सहित होती है और क्षण-भर बाद ही शत्रुओं को अनुरंजित करने लगती है उसी प्रकार यह प्रातः संध्या पहले तो राग अर्थात् लालिमा से सहित थी और अब क्षण-भर बाद लालिमा से रहित हुई जा रही है । जिस प्रकार दुष्ट की मित्रता वंध्या― निष्फल रहती है― उससे किसी कार्य की सिद्धि नहीं होती उसी प्रकार यह प्रातः संध्या भी वंध्या है― इससे किसी कार्य की सिद्धि दृष्टिगत नहीं हो रही है ।। 81॥ और यह उदित होते हुए सूर्य की प्रभा सज्जन की मित्रता के समान उत्तरोत्तर बढ़ती चली जा रही है । क्योंकि जिस प्रकार सज्जन की मित्रता प्रारंभ में मत्सर― युक्त होने के कारण फीकी रहती है और आगे चलकर खूब फैल जाती है उसी प्रकार सूर्य को प्रभा पहले मंद होती है और आगे चलकर खूब फैल जाती है-सर्वत्र व्याप्त हो जाती है । जिस प्रकार सज्जन की मित्रता सार्थक है उसी प्रकार सूर्य को प्रभा सार्थक है ।। 82 ।।
भास्वर-अंबर― देदीप्यमान आकाश ही जिसका आभूषण है (पक्ष में जिसके वस्त्र और आभूषण देदीप्यमान हैं । तथा भास्वद्विशेषका― सूर्य ही जिसका तिलक है (पक्ष में देदीप्यमान तिलक से युक्त है) ऐसी यह पूर्व दिशा सौभाग्यवती स्त्री के समान मानो तुम्हारा मंगल करने के लिए ही उद्यत हुई है ॥83।। वापिकाओं में लंबी रात बिताने के बाद अब सूर्य का दर्शन हुआ है इसलिए यह चकवी प्रसन्न हो अपने मधुर शब्द कर रही है अथवा मधुर शब्द करने वाले आत्मीय जनों को इकट्ठा कर रही है ।। 84 ।। इधर मधुर शब्द करता हुआ यह कल हंसों का समूह तुम्हें उठा रहा है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो तुम्हारे पादनिक्षेप की लीला को देखने के लिए अत्यंत उतावला हो रहा है ।। 85 ।। जो मंद-मंद वायु से हिल रहे हैं, तथा अभिनय की मुद्रा को धारण किये हैं ऐसे ये वृक्ष, आपके लिए मानो अपने नृत्य का आरंभ ही दिखला रहे हैं ॥86॥ हे माता ! इस समय समस्त दिशाएँ तुम्हारी चेष्टा के समान निर्मल हो गयी हैं एवं सुंदर प्रभातकाल हो गया है, इसलिए हे अनिंदिते देवि ! शय्या को छोड़ों ।।87꠰। इस प्रकार बंदीजनों के द्वारा वंदनीय, एवं निर्मल शरीर को धारण करने वाली महारानी मरुदेवी ने शय्या को उस प्रकार छोड़ा जिस प्रकार कि हंसी नदी के रेतीले तट को छोड़ती है ।। 88 ।। उज्ज्वल कांति को धारण करने वाली मरुदेवी धुले हुए वस्त्र को ग्रहण कर जब शयनागार से बाहर निकली तब शरद् ऋतु के मेघ से बाहर निकली चंद्रमा की पतली कला के समान सुशोभित होने लगी ॥89।। विद्युत्कुमारी और दिक्कुमारी देवियों ने जिसे नवीन-नवीन आभूषण पहनाये थे तथा जो अंतर्गत गर्भा होने से गृहीत जला मेघमाला के समान जान पड़ती थी ऐसी मरुदेवी नाभिराजरूपी पर्वत के समीप गयी ॥90॥ जो शोभा में लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ऐसी मरुदेवी वहाँ जाकर अपने आसन पर बैठी और हस्तकमल जोड़, भद्रासन पर बैठे हुए महाराज से क्रम-पूर्वक स्वप्नों का वर्णन करने लगी ॥91॥
स्वप्नों का फल समझकर महाराज नाभिराज ने उससे कहा कि हे प्रिये ! निश्चय ही आज तुम्हारे गर्भ में तीन लोक के नाथ तीर्थंकर ने अवतार लिया है ॥92॥ दूरवर्ती तथा अल्प फल की प्राप्ति के समय ऐसे स्वप्न नहीं दिखते इसलिए मुझे विश्वास है कि आज ही आपके गर्भ रहा है ।। 93 ।। लगातार छह मास से होने वाली रत्नों की वर्षा और देवताओं के द्वारा की हुई शुश्रूषा से हम दोनों को जिनेंद्रदेव के जिस जन्म की सूचना मिली थी वह आज सफल हुई ॥94॥ हे प्रिये ! निश्चय ही समस्त कल्याणों के पात्ररूप पुत्र को उत्पन्न कर तुम शीघ्र ही संसार को आनंदित करोगी ॥95 ।। इन उत्तम स्वप्नों का फल अपने-आपमें शीघ्र ही संघटित हो चुका है, यह सुन दीप्ति और कांति को धारण करती हुई मरुदेवी बहुत ही प्रसन्न हुई ॥96॥ तीसरे काल में जब चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी रहे थे तब आषाढ़ कृष्ण द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में समस्त जगत् के द्वारा नमस्कृत श्री जिनेंद्रदेव का स्वर्गावतरण हुआ था ॥97-98 ।। क्रम-क्रम से गर्भ में वृद्धि होने परमाता का शरीर भी बढ़ गया परंतु त्रिवलि की शोभा कहीं नष्ट न हो जाये इस भय से मानो उसके उदर में वृद्धि नहीं हुई ।। 99 ।। माता मरुदेवी स्वयं अत्यधिक गौरव से सुशोभित थी और उस पर तीनों जगत् के गुरु― भारी (पक्ष में श्रेष्ठ) जिनेंद्रदेव को धारण कर रही थी, फिर भी वह शरीर में अत्यधिक लघुता का अनुभव करती थी यह बड़े आश्चर्य की बात थी ॥100॥ मैं, गर्भ में स्थिर अस्थिर रहकर माता के संताप का कारण न बनूंे यह जानकर ही मानो जिन-बालक गर्भ में अत्यंत निश्चल रहते थे । माता के गर्भ में उनका निवास वैसा ही था जैसा कि जल में प्रतिबिंबित सूर्य का होता है ॥101॥ मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानरूपी नेत्रों के द्वारा जगत् को देखते हुए जिन-बालक, दिक्कुमारियों के द्वारा शुद्ध किये हुए गर्भ में नौ माह तक सुख से स्थित रहे ॥102।।
तदनंतर नौ माह पूर्ण होने पर जब लगातार रत्नों की वर्षा हो रही थी तब उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के समय माता ने जिन-बालक को उत्पन्न किया ॥103 ।। जिस प्रकार निर्मल पूर्व दिशा में विशद् स्फटिक के तुल्य मेघमंडल के मध्य से निकला हुआ सूर्य सुशोभित होता है उसी प्रकार माता मरुदेवी के स्फटिक के समान स्वच्छ गर्भ से निकले हुए जिन-बालक सुशोभित हो रहे थे ॥104॥ उस समय वहाँ जो देवियाँ थीं वे शीघ्र ही करने योग्य जातकर्म में लग गयीं सो ठीक ही है क्योंकि जो अंतरंग व्यक्ति होते हैं वे संसार में शीघ्र ही अपने करने योग्य काम में लग जाते हैं ॥105॥ चंचल कुंडलों के प्रकाश से जिनके कपोल सुशोभित हो रहे थे ऐसी 1 विजया, 2 वैजयंती, 3 जयंती, 4 अपराजिता, 5 नंदा, 6 नंदोत्तरा, 7 नंदी और 8 नंदीवर्धना ये आठ दिक्कुमारी देवियां हाथों में झारियाँ लिये हुए खड़ी थीं ॥106-107॥ नाना प्रकार के आभरणों से सुशोभित 1 सुस्थिता, 2 प्रणिधान्या, 3 सुप्रबुद्धा, 4 यशोधरा, 5 लक्ष्मीमती, 6 कीर्तिमती, 7 वसुंधरा और 8 चित्रा ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ हाथों में दर्पण लिये हुए खड़ी थीं ॥108-109॥ अपने शरीर की श्रेष्ठ प्रभा से दिशाओं को सुशोभित करने वाली 1 इला, 2 सुरा, 3 पृथिवी, 4 पद्मावती, 5 कांचना, 6 सीता, 7 नवमिका और 8 भद्रका ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ आश्चर्यचकित हो सफेद छत्र धारण कर रही थीं ॥110-111॥ देदीप्यमान स्वर्ण के कुंडलों को धारण करने वाली 1 ह्री, 2 श्री, 3 धृति, 4 वारुणी, 5 पुंडरीकिणी, 6 अलंबुसा, 7 अंबुजास्यश्री और 8 मिश्रकेशी ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ देदीप्यमान सुवर्णमय दंडों से युक्त चामर लेकर खड़ी थीं ॥112-113 ।। बिजली के समान प्रभावशाली 1 चित्रा, 2 कनकचित्रा, 3 सूत्रामणि और 4 त्रिशिरा इन चार विद्युत्कुमारी देवियों ने सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश कर दिया था ॥114॥ 1 विजया, 2 वैजयंती, 3 जयंती और 4 अपराजिता ये चार देवियाँ विद्युत्कुमारियों में प्रमुख थीं ॥115॥ 1 रुचका, 2 रुचकोज्ज्वला, 3 रुचकाभा और 4 रुचकप्रभा ये चार देवियाँ दिक्कुमारियों में प्रधान थीं ॥116॥ इन आठ देवियों ने विधिपूर्वक जिनेंद्रदेव का जातकर्म किया था । ये देवियाँ जातकर्म में अत्यंत निपुण हैं और सब जगह जिनेंद्रदेव का जातकर्म ये ही देवियां करती हैं ॥117।।
उस समय तीनों लोकों में जो इंद्र थे, जिनेंद्र जन्म के प्रभाव से उन सबके मुकुट चंचल हो गये और सबके आसन कंपायमान हो उठे ॥118॥ अवधिज्ञान का प्रयोग करने वाले अहमिंद्र अपने-अपने निवास स्थानों में ही स्थिर रहे, मात्र उन्होंने सिंहासनों से सात डग चलकर जिनेंद्र भगवान् को शीघ्र ही परोक्ष नमस्कार किया ॥119॥ भवनवासी देवों के लोक में अपने-आप शंखों का शब्द, व्यंतरों के लोक में भेरी का शब्द और ज्योतिषी देवों के लोक में सिंहों के शब्द होने लगे ॥120॥ श्रेष्ठ घंटाओं के जोरदार शब्द ने कल्पवासी देवों के लोक को व्याप्त कर लिया । उस समय तीनों लोक, क्या करना चाहिए ? यह विचार करने में तत्पर हो गये ॥121 ।। उस समय आसन के कंपायमान होने से जिसकी बुद्धि चकित हो गयी थी ऐसा सौधर्मेंद्र मुकुट हिलाकर तथा ऊँचे मस्तक को कँपाकर विचार करने लगा कि उत्पन्न बालक, मूर्ख, स्वच्छंद, सहसा कार्य करने वाले निर्भय एवं शंका रहित किस व्यक्ति ने यह कार्य किया है ? ॥122-123॥ अपने पराक्रम से सुशोभित देव-दानवों का समूह भी यदि कदाचित प्रतिकूल हो जावे तो उसे भी जो नष्ट करने में समर्थ है ऐसा मैं इंद्रशक्र या पुरंद हूँ फिर मेरे अकंपित आसन को कंपित करने वाले इस मूर्ख ने इस समय मुझे कुछ क्यों नहीं समझा ? ॥124-125॥ मैं तीनों लोकों में तीर्थंकर के सिवाय किसी दूसरे प्रभु को ऐसे प्रभाव से युक्त नहीं समझता हूँ, ऐसा विचारकर उसने अवधिज्ञान का आश्रय लिया ॥126॥
तदनंतर सौधर्मेंद्र ने प्रकट हुए अवधिज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए प्रथम तीर्थंकर को देख लिया ॥127॥ उसने शीघ्र ही आसन से उतरकर तथा सात डग आगे जाकर जिनेंद्र भगवान् की जय हो यह कहते हुए हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया ।। 128॥ तदनंतर सिंहासन पर आरूढ़ हो सौधर्मेंद्र ने विचार करते ही नमस्कार कर सामने खड़े हुए सेनापति को आदेश दिया कि इस समय इस अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर उत्पन्न हो चुके हैं अतः समस्त देवों को भरतक्षेत्र चलना है । तुम यह सूचना सबके लिए देओ ॥129-130॥ सेनापति के द्वारा स्वामी का आदेश सुनाये जाते ही सौधर्म स्वर्ग में रहने वाले समस्त देव चल पड़े तथा अच्युत स्वर्ग तक के समस्त इंद्र स्वयं ही इस समाचार को जान देवों के साथ बाहर निकले ॥131॥ अपने-अपने स्थानों में होने वाले निमित्तों से जिन्हें जिनेंद्र जन्म का समाचार ज्ञात हुआ था, ऐसे हर्ष से भरे हुए ज्योतिषी, व्यंतर और भवनवासी देव अपने-अपने स्थानों से बाहर निकले ॥132॥ उस समय 1 हाथी, 2 घोड़ा, 3 रथ, 4 पैदल सैनिक, 5 बैल, 6 गंधर्व और 7 नर्त की इन सात प्रकार की सेनाओं से आकाश व्याप्त हो गया था ॥133 ।।
असुरकुमार आदि दस प्रकार के भवनवासी देवों की भैंसा, नौका, गेंडा, हाथी, गरुड़, पालकी, घोड़ा, ऊंट, मगर, हाथी और हंस को आदि लेकर क्रम से जो सात प्रकार की सेनाएँ थीं उन सबसे व्याप्त हुआ आकाश उस समय अत्यंत सुशोभित हो रहा था ॥134-135॥ उन देवों में कितने ही देव विमानों में बैठे थे, कितने ही बैलों पर, कितने ही रीझों पर, कितने ही रथों पर, कितने ही घोड़ों पर, कितने ही अष्टापद और शार्दूलों पर, कितने ही मगरों पर, कितने ही ऊँटों पर, कितने ही वराह और भैंसों पर, कितने ही सिंहों पर, कितने ही हरिणों पर, कितने ही चीतों पर, कितने ही हाथियों पर, कितने ही सुरा गायों पर, कितने ही सामान्य हरिणों पर, कितने ही श्याम हरिणों पर, कितने ही गरुड़ों पर, कितने ही तोताओं पर, कितने ही कोकिलाओं पर, कितने ही क्रौंच पक्षियों पर, कितने ही कुररों पर, कितने ही मयूरों और मुर्गों पर, कितने ही कबूतरों, हंसों, कारंडव और सारसों पर, कितने ही चकवा और बलाकाओं के समूह पर और कितने ही बगुला आदि जीवों पर बैठे थे । इस प्रकार
उस समय चारों निकाय के देव इधर-उधर जा रहे थे ॥136-139 ।। सफेद छत्रों, नाना प्रकार को ध्वजाओं, और फेन के समान सफेद चमरों से समस्त आकाश को व्याप्त करते हुए वे चारों निकाय के देव जहां-तहाँ चल रहे थे ॥140॥ भेरी, दुंदुभि तथा शंख आदि के शब्दों से जिसने समस्त लोक को भर दिया था तथा जो नृत्य और गीत से युक्त था, ऐसा वह देवों का आश्चर्यकारी आगमन अत्यधिक सुशोभित हो रहा था॥141 ।। उस समय सौधर्मेंद्र, हाथियों की सेना के अधिपति तथा आकाश के समान अपने शरीर की विक्रिया करने वाले ऐरावत हाथी पर आरूढ़ था ।। 142॥ वह ऐरावत, दोनों खीसों के बीच उठी हुई सूंड़ के अग्रभाग फैलाये हुए था, अतएव जिसके बाँसों के अंकुशों के बीच सर्पराज ऊपर की ओर उठ रहा था, ऐसे पर्वत के समान जान पड़ता था ॥143॥ वह ऐरावत ठीक आकाश के समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार आकाश, बलाका, हंस और बिजलियों से युक्त होता है, उसी प्रकार वह हाथी भी कर्ण, चामर, शंख तथा कक्षा में लटकती हुई नक्षत्रमाला से युक्त था ॥144 ।। अन्य-दूसरे गजराजों पर बैठे हुए इंद्रों के समूह से युक्त सौधर्मेंद्र, समस्त देवों के साथ-साथ जिनेंद्र भगवान् के पवित्र जन्म क्षेत्र को प्राप्त हुआ ॥145॥ आकाश से उतरती हुई उस सुर और असुरों की पंक्ति ने पृथिवी पर कुबेर के द्वारा निर्मित नगर को ऐसा देखा मानो स्वर्ग ही हो ॥146 ।। वह नगर धूलि के बंधान, कोट और परिखा के चक्र से मनोहर था तथा उद्यान, वन, आराम, सरोवर और वापिकाओं से अलंकृत था ॥147॥ इंद्रनील, महानील, हीरा और वैडूर्यमणि की दीवालों से युक्त तथा पद्मराग आदि मणियों की प्रभा से परिपूर्ण वहाँ के भवन अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥148॥ उस नगर की शोभा देखने वाले सुर और असुरों का मन स्वर्ग तथा पाताल संबंधी शोभा के देखने की उत्कंठा दूर कर चुका था ॥149 ।। क्योंकि सुर, असुर आदि तीनों जगत् के जीव वहाँ पहले एक साथ पहुंचे थे इसलिए वह कीर्तिशाली नगर उस समय से साकेत, इस नाम से प्रसिद्ध हुआ था ।। 150॥
तदनंतर देवों के साथ-साथ उस नगर की तीन प्रदक्षिणाएँ देकर सौधर्मेंद्र ने भीतर प्रवेश किया और पवित्र जिनेंद्र को लाने के लिए इंद्राणी को आज्ञा दी ॥151॥ इंद्र की आज्ञा पाते ही इंद्राणी ने माता के प्रसूति गृह में प्रवेश किया और देवकृत माया से माता को सुख निद्रा में निमग्न कर उसके पास मायामयी दूसरा बालक लिटा दिया ॥152।। तत्पश्चात् प्रणाम करने के बाद जिनबालक को लेकर उसने इंद्र के हाथों में सौंपा । इंद्र ने हजार नेत्र बनाकर उनका अतिशय सुंदर रूप देखा फिर भी वह तृप्ति को प्राप्त नहीं हुआ ॥153॥ जिन-बालक को अपनी गोद में रखकर ऐरावत हाथी पर बैठा हुआ सौधर्मेंद्र उस समय ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो सूर्योदय से सहित निषधाचल का शिखर ही हो ।।154॥ जो छत्र की छायारूपी वस्त्र से आच्छादित थे तथा जिनकी दोनों ओर चामरों के समूह ढोले जा रहे थे, ऐसे जिनबालक को सौधर्मेंद्र देव― समूह के साथ सुमेरु के शिखर पर ले गया ॥155।। इंद्र ने पहले आकर देव-समूह के साथ मेरुपर्वत की प्रदक्षिणा दी फिर पांडुक शिला पर स्थित सिंहासन पर जिन-बालक को विराजमान किया ॥156।।
उस समय देवों ने क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान गंभीर शब्द वाले भेरी, पटह, मर्दल तथा मृदंग आदि बाजे बजाये और शंख फूंके ॥157॥किन्नर, गंधर्व, तुंबुरु, नारद तथा विश्वावसु जाति के समस्त देव अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ कानों एवं हृदय को हरने वाले भांति-भाँति के गान गाने लगे ॥158॥ उस समय देवतत, वितत, धन और सुषिर नाम के चारों मनोहारी बाजे बजा रहे थे ॥159॥ हाव-भाव से सुंदर, अंगहारों से युक्त तथा शृंगारादि रसों से आश्चर्य उत्पन्न करने वाला अप्सराओं का नृत्य हो रहा था ॥160 । इस प्रकार जब वहाँ देव-समूह के द्वारा महान् आनंद मनाया जा रहा था, लंबी-चौड़ी गुफाओं से युक्त मेरुपर्वत उनकी प्रतिध्वनि से गूंज रहा था, हर्ष से भरा सौधर्मेंद्र अभिषेक के लिए योग्य वेष धारण कर रहा था, और उत्तम देवांगनाएं अपने [तार के बाजे वीणा आदि को तत कहते हैं । चमड़े से मढ़े हुए नवला मृदंग आदि वितत कहलाते हैं । झालर, झांझ, मंजीरा आदि कां से के बाजों को घन कहते हैं और शंख, बांसुरी आदि सुषिर कहलाते हैं ।] हाथों में अष्टमंगल द्रव्य धारण कर रही थी, तब महावेगशाली देवों के समूह घट लेकर विशाल मेघों के समान समस्त दिशाओं में फैल गये और उन्होंने क्षीरसागर को क्षोभित कर दिया ॥161-163।।
क्षीर से भरे चाँदी और सोने के कलश देवों द्वारा एक हाथ से दूसरे हाथ में दिये जाकर सुमेरु पर्वत पर पहुंच रहे थे और वे चंद्र तथा सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे ॥164॥ निरंतर शब्द करने वाले एवं क्षीरसागर के जल से भरे हुए कलशों के द्वारा हजारों देवों ने जिनेंद्र भगवान का अभिषेक किया ॥165॥ उस समय इंद्रों के कलशरूपी महामेघ जिनबालकरूपी पर्वत के ऊपर क्षीरोदक की वर्षा कर रहे थे परंतु वे उन्हें रंच मात्र भी खेद के कारण नहीं हुए थे ॥166॥ भगवान् के श्वासोच्छवास से बार-बार उछाले हुए क्षीरोदक के प्रवाह से प्रेरित देव, उस क्षीरोदक के समूह में क्षण-भर के लिए मक्खियों के समूह के समान तैरने लगते थे ॥167॥ देवों के समूह ने पहले जिस मेरु को रत्नों से पीला देखा वही उस समय क्षीरोदक के पूर से सफेद दिखने लगा था ॥168॥ यद्यपि क्षीरसागर अत्यंत परोक्ष है तथापि जिनेंद्र के जन्माभिषेक के समय देवों के समूह ने उसे प्रत्यक्ष कर दिखाया था ॥169॥ जिसमें मेरुपर्वत स्नान का आसन था, क्षीरसमुद्र का क्षीर स्नान जल था, और देव स्नान कराने वाले थे ऐसा वह भगवान् का स्नान था ॥170॥ इंद्र सामानिक तथा लोकपाल आदि अनेक देवों ने क्षीरसागर के जल से भगवान का क्रम पूर्वक अभिषेक किया था ॥171॥
तदनंतर जिनके हाथ पल्लवों के समान अत्यंत सुकुमार थे, ऐसी इंद्राणी आदि देवियों ने अतिशय सुकुमार जिन-बालक को अपनी दिव्य सुगंधि से भ्रमर-समूह को आकृष्ट करने वाले अनुलेपन से उबटन किया और इस तरह उन्होंने जिन-बालक के स्पर्श से समुत्पन्न नूतन सुख प्राप्त किया ॥172-173॥ तदनंतर पयोधर भार-मेघों के भार से नम्रीभूत वर्षा ऋतु जिस प्रकार पर्वत का अभिषेक करती है उसी प्रकार स्तनों-स्तनों के भार से नम्रीभूत देवियों ने सुगंधित जल से भरे कलशों द्वारा भगवान् का अभिषेक किया ॥174 ।। जो परम सुंदर समचतुरस्त्रसंस्थान को धारण कर रहे थे तथा वज्रऋषभनाराच संहनन से जिनका शरीर अत्यंत सुदृढ़ था, ऐसे अक्षतकाय जिन-बालक के वज्र के समान मजबूत कानों को इंद्र वज्रमयी सूची की नोक से किसी तरह वेध सका था ॥175-176॥ तदनंतर कानों में पहनाये हुए दो कुंडलों से भगवान् उस तरह सुशोभित हो रहे थे जिस तरह कि सदा सेवा करने वाले दो सूर्यों से जंबूद्वीप सुशोभित होता है ॥177॥
भगवान् की चिकनी एवं नीली चोटी पर धारण किया पद्मराग मणि, ऐसा वर्णोत्कर्ष को प्राप्त हो रहा था मानो इंद्रनील मणि के ऊपर ही धारण किया गया हो ॥178 ।। भगवान् के ललाट पटपर बनायी हुई सफेद चंदन की खौर, संध्या के पीले बादलों के बीच वर्तमान अर्धचंद्र की रेखा के समान सुशोभित हो रही थी ॥179।। उत्तम रत्नों से खचित स्वर्णमय बाजूबंदों से सुशोभित उनकी दोनों कोमल भुजाएँ फण के मणियों से सहित दो बाल सों के समान जान पडती थीं ॥180॥ उत्तम मणिमय कड़ों से जिनकी शोभा बढ़ रही थी ऐसी उनकी दोनों कलाइयां, देवों से आश्रित रत्नाचल के दो तटों के समान सुशोभित हो रही थीं ॥181॥ जिसमें बड़े-बड़े मोती लगे हुए थे ऐसे सुंदर हार से उनका वक्षःस्थल उस तरह सुशोभित हो रहा था जिस तरह कि झरने से किसी पर्वत का उत्तम तट सुशोभित होता है ।। 182।। देदीप्यमान रत्नों से निर्मित प्रालंब सूत्र से भगवान् उस तरह सुशोभित हो रहे थे जिस तरह कि सुंदर कल्पलता से वेष्टित कल्पवृक्ष सुशोभित होता है ॥183 ।। रंग-बिरंगे वस्त्र के ऊपर स्थित कटिसूत्र से भगवान् की कटि ऐसी जान पड़ती थी मानो मेध के ऊपर स्थित बिजली की किरण से शोभित किसी पर्वत की तटी ही हो ॥184॥ जिन में रुनझुन करने वाले मणिमय आभूषण पहनाये गये थे, ऐसे उनके दोनों चरण परस्पर वार्तालाप करते हुए के समान जान पड़ते थे ॥185 ।। रत्न-जटित स्वर्णमय मुदरियों से वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो अपनी अंगुलियों से टपकते हुए अत्यधिक सौंदर्य को रक्षा के निमित्त उनपर मुद्रा (मुहर) ही लगा दी हो ॥186 ।।
पहले तो भगवान् पर चंदन का लेप लगाया और उसके ऊपर केशर के तिलक लगाये गये जिससे वे संध्याकाल के पोले-पीले मेघखंडों से युक्त स्फटिक के पर्वत के समान सुशोभित होने लगे ॥187॥ स्वच्छ एवं हंसमाला के समान उज्ज्वल उत्तरीय वस्त्र को धारण किये हुए भगवान् शुभ आकार वाले, शरदऋतु के निर्मल मेघ के समान जान पड़ते थे ॥188 ।। उस समय माला बनाने के कौशल में अत्यंत निपुण देवांगनाओं के द्वारा संतानकपारिजात आदि देवलोक के वृक्षों से उत्पन्न पुष्पों से, जल स्थल संबंधी नाना प्रकार के शुभ सुगंधित पुष्पों से तथा भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुक वन के पुष्पों से गूंथी हुई मुंडमाला के अग्रभाग को अलंकृत करने वाली माला से वे सुमेरु के आभूषण भगवान् अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥189-191॥ वे भगवान् भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुक इन चारों वन-स्वरूप सुशोभित थे । भद्रशाल इसलिए थे कि उनकी शाला अर्थात् प्रासाद भद्र अर्थात् उत्तम था । नंदन इसलिए थे कि जगत् के सब जीवों को अत्यधिक आनंदित करने वाले थे, सौमनस इसलिए थे कि उत्तम हृदय को धारण करने वाले थे और पांडुक इसलिए थे कि वे स्वयं यश से पांडुक-सफेद हो रहे थे ॥192॥ जो तीनों लोकों में विशेषक अर्थात् तिलक के समान श्रेष्ठ थे, जो विशेषकों अर्थात् तिलकों के द्वारा सुशोभित थे और जो देव-विशेषक अर्थात् विशिष्ट देवों के द्वारा विभूषित किये गये थे ऐसे भगवान् उस समय विशेष रूप से शोभायमान हो रहे थे ।। 193 ।। यद्यपि जिन-बालक स्वयं निरंजन― कज्जल (पक्ष में पाप ) से रहित थे तो भी उनके मुख पर जो नेत्र थे वे उत्तम अंजन― कज्जल से अलंकृत थे और सूर्य तथा चंद्रमा की दीप्ति एवं कांति को जीतने वाले थे ।। 194॥ श्री, शची, कीर्ति तथा लक्ष्मी नामक देवियों ने अपने हाथों से उन्हें उस तरह अलंकृत किया था कि जिससे वे इंद्रादिक देवों का मन हरण करने लगे थे ।। 195 ।। तदनंतर युग के आदि में हुए उन प्रधान पुरुष का ऋषभ नाम रखकर इंद्र आदि देव उनकी इस प्रकार स्तुति करने के लिए तत्पर हुए ॥196।।
हे ऋषभदेव ! मति, श्रुति और अवधि ज्ञानरूपी श्रेष्ठ नेत्रों को धारण करने वाले आप यद्यपि भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं फिर भी आपने तीनों लोकों को प्रकाशमान कर दिया है ।। 197 ।। हे भगवान् ! जब आप मनुष्यभव में आने के लिए सम्मुख ही थे तभी रत्नवृष्टि आदि अद्भुत कार्य दिखाकर आपने जगत् को अधीन कर लिया था फिर अब तो आप मनुष्य-भव में स्वयं उत्पन्न हुए, अब आश्चर्य की बात ही क्या है ? ॥198॥ हे नाथ ! बहुत बड़े शिखर (पक्ष में मानरूपीशिखर) से युक्त सुमेरुपर्वत को भी आपने अपने पैर के नीचे दबा दिया इसलिए आप समस्त स्वामियों में महागुरु― अत्यंत श्रेष्ठ हैं और बालक अवस्था में भी बालकों जैसी आपकी चेष्टा नहीं है ।।199।। जो देवरूपी पर्वत अपने चरणों के अग्रभाग से कभी समस्त पृथिवी का स्पर्श भी नहीं करते वे ही देवरूपी पर्वत अपने मुकुटरूपी ऊँचे शिखरों से आपके दोनों चरणों को धारण कर रहे हैं । सो यह क्या आपकी मंत्रशक्ति है ? या प्रभुशक्ति है ? या उत्साह शक्ति है ? अथवा कोई दूसरा ही महान् आश्चर्य है ? भावार्थ― जो देव, देवत्व के अभिमान में चूर होकर पृथिवी को तुच्छ समझते हैं वे ही आपको अपने सिर पर धारण कर रहे हैं, इससे आपका सर्वोपरि प्रभाव सिद्ध है ।। 200-201॥ हे नाथ ! पौरुष से वश में न होने वाले तीनों जगत् को आपने कैसे विधि के समान एक साथ अपने अधीन कर लिया ? भावार्थ-जिस प्रकार विधि-नियति तीनों जगत् को अपने अधीन किये हुए है उसी प्रकार आपने भी तीनों जगत् को अपने अधीन कर लिया है, परंतु यह कार्य पुरुषार्थ साध्य नहीं है, यह तो केवल आपकी अचिंत्य आत्मशक्ति का ही प्रभाव है ।। 202॥
हे नाथ ! कहाँ तो यह सुकुमारता ? और कहाँ ऐसी कठोरता ? हे प्रभो ! विरुद्ध पदार्थों का संभव आप में ही दीख पड़ता है ॥203 ।। मनुष्य, देव और दानवों के लिए दुर्लभ तथा एक हजार आठ व्यंजन और लक्षणों से युक्त आपका यह रूप अतिशय शोभायमान हो रहा है ॥204॥ हे भगवान् ! आपका शरीर चरम-पर्याय धारण करने की अपेक्षा अंतिम है तथा रूप के अतिशय से प्रथम है सर्वश्रेष्ठ है और युद्ध के बिना ही समस्त विश्व को नम्रीभूत कर रहा है ।। 205 ।। हे नाथ ! जब आप गर्भ में स्थित थे तभी सबको इष्ट हिरण्य ―सुवर्ण की वृष्टि हुई थी इसलिए देव आपको हिरण्यगर्भ (हिरण्यं गर्भे यस्य सः) कहते हैं ॥206 ।।
हे प्रभो ! इस भव से पूर्व तीसरे भव में जो तीन ज्ञान प्रकट हुए थे उन्ही के साथ आप यहाँ स्वयं उत्पन्न हुए हैं इसलिए आप स्वयंभू कहे जाते हैं ।। 207॥ क्योंकि आप भरत क्षेत्र में नाना प्रकार को व्यवस्थाओं के करने वाले होंगे इसलिए आप विधाता इस सार्थक नाम के धारी कहे जाते हैं ।। 208 ।। हे प्रभो ! आप सब ओर से प्रजा की रक्षा करते हुए अपूर्व ही प्रभु हुए हैं इसलिए आप प्रजापति कहलाते हैं ॥209 ।। हे प्रभो ! आपके रहते हुए प्रजा बहुत प्रीति से इक्षुरस का आस्वादन करेगी इसलिए आप इक्ष्वाकु कहे जाते हैं ॥210॥ आप समस्त पुराण पुरुषों में प्रथम हैं, महामहिमा के धारक हैं, स्वयं महान हैं और यहाँ अतिशय देदीप्यमान हैं इसलिए पुरुदेव कहलाते हैं ।। 211॥ हे भगवान् ! आपने भरतक्षेत्र के आसन पर आरूढ़ होकर तीन लोक का ऐश्वर्य उपार्जित किया है सो अनंत ऐश्वर्य को धारण करने वाले आपके लिए यह अत्यंत तुच्छ बात है आश्चर्य की बात नहीं है ॥212॥
हे प्रभो ! आप स्वयं बुद्ध होकर अतिशय कठिन तप के करने वाले हैं तथा उत्तम ज्ञान और बहुत भारी यश के संचेता हैं ॥213॥ हे विभो ! पृथिवी पर आप धीर वीर मुनि बनकर प्राणियों के लिए कल्याणकारी दान, धर्म की श्रेष्ठता तथा स्वयं निर्दोष पात्रता को दिखलावेंगे । भावार्थ―आप मुनि बनकर लोगों में दान-धर्म की प्रवृत्ति चलावेंगे तथा अपनी प्रवृत्ति से प्रकट करेंगे कि निर्दोष पात्र कैसे होते हैं ? ॥214॥ हे भगवान् ! आप कामरूपी भुजंग को नष्ट करने के लिए मंत्र हैं, द्वेषरूपी हाथी को वश करने के लिए अंकुश हैं तथा मोहरूपी मेघ-पटल के संचार को नष्ट करने के लिए प्रचंड वायु हैं ॥215 ।। हे स्वामिन् ! आप प्रशस्त तथा निश्चल ध्यान के द्वारा जिसमें मछलियाँ सो रही हैं ऐसे महासरोवर के समान हैं, तथा संवर को धारण कर आप घातिया कर्मरूपी ईंधन को जलाने के लिए अग्नि स्वरूप हैं ॥216 ।। हे नाथ ! तेल से निरपेक्ष केवल ज्ञानरूपी दीपक के द्वारा जिन्होंने समस्त पदार्थों को प्रकाशित कर दिया है ऐसे मोक्षमार्ग के उपदेशक आप पृथिवी पर स्वभाव से ही होंगे ॥217॥
हे भगवन् ! इस भारत वर्ष में अठारह कोड़ाकोड़ी सागर धर्म का नाम निर्मल नष्ट रहा अब आप पुनः उसकी सृष्टि करेंगे । भावार्थ― उत्सर्पिणी के चौथे, पाँचवें, छठे और अवसर्पिणी के पहले, दूसरे तथा तीसरे काल के अठारह कोड़ाकोड़ी सागर तक यहाँ भोग-भूमि की प्रवृत्ति रही इसलिए भोगों की मुख्यता होने से यहाँ चारित्ररूप धर्म नहीं रहा, अब आप पुनः उसकी प्रवृत्ति करेंगे ॥218।। हे नाथ ! आप परम बुद्धिमान हो तथा दिशा भ्रांति के कारण जिनकी बुद्धि अंधी हो रही है ऐसे भव्य प्राणियों के लिए आप स्वर्ग तथा मोक्ष का मार्ग बतलाने के लिए उपदेशक हुए हैं ॥219॥ हे नाथ ! इस समय आपके उपदेश से भव्यजीवों के समूह, संसार में स्वर्ग लक्ष्मी के स्वामी तथा मोक्षलक्ष्मी के आश्रय होंगे ॥220॥ हे भगवन् ! आपके द्वारा चलाया हुआ मार्ग प्रमाण और नयमार्ग के अविरुद्ध है, उस पर चलकर जगत् के प्राणी अपने प्रिय स्थान को प्राप्त करें ॥ 221 ।।
हे नाथ ! आप तीनों लोकों का उपकार करने वाले हैं इसलिए हित के इच्छुक जीवों के द्वारा प्रयत्नपूर्वक नमस्कार करने योग्य, स्तुति करने योग्य और ध्यान करने योग्य हैं ॥222॥ हे प्रभो ! आपको प्रणाम करने से प्राणियों का काय कृतार्थ हो जाता है, आपके गुणों की स्तुति करने से उसकी वाणी सार्थक हो जाती है और आपका ध्यान करने से उनका मन गुण सहित हो जाता है ।। 223 ।। हे नाथ ! आप मृत्यु को नष्ट करने के लिए मल्ल हैं अतः आपको नमस्कार हो, आप संसार को नष्ट करने वाले हैं अतः आपको नमस्कार हो, आप बुढ़ापे का अंत करने वाले हैं अतः आपको नमस्कार हो, आप कर्मों को नष्ट करने वाले हैं अतः आपको नमस्कार हो ॥224॥
हे भगवन् ! आप अनंतज्ञान के स्वामी हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप अनंतदर्शन के धारक हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप अनंत-बल से सहित हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप अनंत सुख से संपन्न हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥225।। आप तीनों लोकों के स्वामी हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप समस्त जीवों के बंधु हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप लोक में अद्वितीय वीर हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप लोक के विधाता हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥226॥ हे जिन ! आप चंद्रमारूप हो इसलिए आपको नमस्कार हो, हे जिन ! आप सूर्यस्वरूप हो इसलिए आपको नमस्कार हो, हे जिन ! आप सबका हित करने वाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो और हे जिन ! आप सबकी रक्षा करने वाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥227 । इस तरह सैकड़ों प्रकार की स्तुतियों से स्तुति कर तथा नमस्कार कर इंद्र आदि देवों ने उनसे बार-बार यही याचना की कि हे भगवन् ! हमारी उत्तम भक्ति सदा आप में बनी रहे ।। 228॥
तदनंतर शीघ्रगामी देवों की सेना से घिरा हुआ इंद्र, जिन-बालक को साथ ले मेरु पर्वत से चला ।। 229॥ सुवर्ण और कनेर के फूलों की राशि के समान पीत शरीर के धारक जिन-बालक को चलते-फिरते रजताचल के सदृश ऐरावत हाथी पर सवार कर वह अयोध्या की ओर चला ॥230॥ जो शत्रुओं के द्वारा अयोध्या थी, ध्वजाओं की पंक्तियों से सुशोभित थी, बाजों की ध्वनि से व्याप्त थी तथा अपनी सेना के समान जान पड़ती थी ऐसी अयोध्या में पहुँचकर उसने जिन-बालक को इंद्राणी के द्वारा माता की गोद में विराजमान कराया । तदनंतर माता-पिता को नमस्कार कर शीघ्र ही सुंदर वेषभूषा से युक्त हो तांडव-नृत्य करना प्रारंभ किया । उस समय वह इंद्र, नृत्य करने वाली देवांगनाओं से सुशोभित सुंदर भुजारूपी वन से घिरा हुआ था और तांडव नृत्य के प्रारंभ में ही उसने पृथिवी को कंपायमान कर दिया था ॥231-233 ।। भगवान् के माता-पिता इस नृत्य के दर्शक थे । उनके आगे चिर काल तक आनंद नाटक का अभिनय कर तथा यथायोग्य उनका सत्कार कर इंद्र देवों के साथ अपने स्थानपर चला गया ।। 234॥ जिनेंद्र भगवान् के जन्म से पंद्रह माह पूर्व प्रतिदिन उनके पिता के घर साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा आकाश से पड़ती थी ॥235 ।। हमारा पुत्र इंद्रों के समूह द्वारा सुमेरु पर्वतपर अभिषेक को प्राप्त हुआ है तथा तीनों लोकों का स्वामी है यह जानकर उस समय अतिशय उदार राजा नाभिराज और मरुदेवी महान् आनंद के वशीभूत हो स्वसंवेद्य सुख को प्राप्त हुए ॥236।। गौतम स्वामी कहते हैं कि भगवान् वृषभदेव के स्वर्गावतार और जन्माभिषेक इन दो कल्याणकों के इस वर्णन को जो भक्तिपूर्वक सदा पढ़ता है, अथवा जो सुनता है वह इस संसार में जिन-सूर्य के ही समान कल्याण को प्राप्त होता है ।। 237॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में भगवान् ऋषभदेव के जन्माभिषेक का वर्णन करने वाला आठवाँ सर्ग समाप्त हआ ॥8॥।