सिद्धांतकोष से
सामान्य परिचय
तीर्थंकर क्रमांक |
2 |
चिह्न |
गज |
पिता |
जितशत्रु |
माता |
विजयसेना |
वंश |
इक्ष्वाकु |
उत्सेध (ऊँचाई) |
450 धनुष |
वर्ण |
स्वर्ण |
आयु |
72 लाख पूर्व |
पूर्व भव सम्बंधित तथ्य
पूर्व मनुष्य भव |
विमलवाहन |
पूर्व मनुष्य भव में क्या थे |
मण्डलेश्वर |
पूर्व मनुष्य भव के पिता |
महातेज |
पूर्व मनुष्य भव का देश, नगर |
” ” सुसीमा |
पूर्व भव की देव पर्याय |
विजय |
गर्भ-जन्म कल्याणक सम्बंधित तथ्य
गर्भ-तिथि |
ज्येष्ठ कृष्ण 15 |
गर्भ-नक्षत्र |
रोहिणी |
गर्भ-काल |
ब्रह्ममुहूर्त |
जन्म तिथि |
माघ शुक्ल 10 |
जन्म नगरी |
अयोध्या |
जन्म नक्षत्र |
रोहिणी |
योग |
प्रजेशयोग |
दीक्षा कल्याणक सम्बंधित तथ्य
वैराग्य कारण |
उल्कापात |
दीक्षा तिथि |
माघ शुक्ल 9 |
दीक्षा नक्षत्र |
रोहिणी |
दीक्षा काल |
अपराह्न |
दीक्षोपवास |
अष्ट भक्त |
दीक्षा वन |
सहेतुक |
दीक्षा वृक्ष |
सप्तवर्ण |
सह दीक्षित |
1000 |
ज्ञान कल्याणक सम्बंधित तथ्य
केवलज्ञान तिथि |
पौष शुक्ल 14 |
केवलज्ञान नक्षत्र |
रोहिणी |
केवलोत्पत्ति काल |
अपराह्न |
केवल स्थान |
अयोध्या |
केवल वन |
सहेतुक |
केवल वृक्ष |
सप्तपर्ण |
निर्वाण कल्याणक सम्बंधित तथ्य
योग निवृत्ति काल |
1 मास पूर्व |
निर्वाण तिथि |
चैत्र शुक्ल 5 |
निर्वाण नक्षत्र |
भरणी |
निर्वाण काल |
पूर्वाह्न |
निर्वाण क्षेत्र |
सम्मेद |
समवशरण सम्बंधित तथ्य
समवसरण का विस्तार |
11 1/2 योजन |
सह मुक्त |
1000 |
पूर्वधारी |
3750 |
शिक्षक |
21600 |
अवधिज्ञानी |
9400 |
केवली |
20000 |
विक्रियाधारी |
20400 |
मन:पर्ययज्ञानी |
12450 |
वादी |
12400 |
सर्व ऋषि संख्या |
100000 |
गणधर संख्या |
90 |
मुख्य गणधर |
केसरिसेन |
आर्यिका संख्या |
320000 |
मुख्य आर्यिका |
प्रकुब्जा |
श्रावक संख्या |
300000 |
मुख्य श्रोता |
सगर |
श्राविका संख्या |
500000 |
यक्ष |
महायक्ष |
यक्षिणी |
रोहिणी |
आयु विभाग
आयु |
72 लाख पूर्व |
कुमारकाल |
18 लाख पूर्व |
विशेषता |
मण्डलीक |
राज्यकाल |
53 लाख पूर्व+1 पूर्वांग |
छद्मस्थ काल |
12 वर्ष |
केवलिकाल |
1 लाख पू.–(1 पूर्वांग 12 वर्ष) |
तीर्थ संबंधी तथ्य
जन्मान्तरालकाल |
50 लाख करोड़ सागर +12 लाख पू. |
केवलोत्पत्ति अन्तराल |
30 लाख करोड़ सागर +3 पूर्वांग 2 वर्ष |
निर्वाण अन्तराल |
30 लाख करोड़ सागर |
तीर्थकाल |
30 लाख करोड़ सागर +3 पूर्वांग |
तीर्थ व्युच्छित्ति |
❌ |
शासन काल में हुए अन्य शलाका पुरुष |
चक्रवर्ती |
सगर |
बलदेव |
❌ |
नारायण |
❌ |
प्रतिनारायण |
❌ |
रुद्र |
जितशत्रु |
( महापुराण सर्ग संख्या 48/श्लोक) पूर्वभव नं. 3 में विदेह क्षेत्र के सुसीमा नगर का विमलवाहन नामक राजा था (2-4); पूर्वभव नं. 2 में अनुत्तर विमान में देव हुआ (13); वर्तमान भव - देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
(3) वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में दूसरे तीर्थंकर । ये जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में साकेत नगरी के इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री राजा जितशत्रु और रानी विजयसेना के पुत्र थे । ये ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन सोलह स्वप्नपूर्वक माता के गर्भ में आये और माघ मास के शुक्लपक्ष की दशमी ( हरिवंशपुराण के अनुसार नवमी) प्रजेशयोग में आदिनाथ के मोक्ष जाने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागर वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद अवसर्पिणी काल के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में जन्मे थे । महापुराण 2.128, 48.19-26, हरिवंशपुराण 1.4, 60.169, वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 101-105 जन्मते ही इनके पिता समस्त शत्रुओं के विजेता हुए थे अत: उन्होंने इन्हें इस नाम से संबोधित किया था । सुनयना और नंदा इनकी दो रानियाँ थी । दुर्वादियों से ये अजेय रहे । इनकी आयु बहत्तर लाख पूर्व थी । शारीरिक अवगाहना चार सौ पचास धनुष तथा वर्ण-तपाये हुए स्वर्ण के समान रक्त-पीत था । आयु का चतुर्थांश वीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था । ये एक पूर्वांग तक राज्य करते रहे । इसके पश्चात् एक कमलवन को विकसित और म्लान होते हुए देखकर सभी वस्तुओं को अनित्य जानकर ये वैराग्य को प्राप्त हुए थे । इन्होंने पुत्र अजितसेन को राज्य देकर माघ मास के शुक्लपक्ष की नवमी को अपराह्न में रोहिणी नक्षत्र में निष्क्रमण किया था । ये सुप्रभा नामक पालकी में मनुष्य, विद्याधर और देवों द्वारा सहेतुक वन ले जाये गये थे । वहाँ ये एक हजार (पद्मपुराण के अनुसार दस हजार) आज्ञाकारी क्षत्रिय राजाओं के साथ षष्टोपवाम सहित सप्तपर्ण वृक्ष के समीप दीक्षित हुए थे । दीक्षित होते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान हुआ था । दीक्षोपरांत प्रथम पारणा में साकेत के राजा ब्रह्मदत्त ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । बारह वर्ष (पद्मपुराण के अनुसार चौदह वर्ष) छद्मस्थ रहने के बाद पौष अचल एकादशी के दिन सांय वेला तथा रोहिणी नक्षत्र में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ था । ऋषभदेव के समान इनके भी चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य प्रकट हुए थे, पादमूल में रहने वाले इनके सिंहसेन आदि नब्बे गणधर थे । समवसरण-सभा में एक लाख मुनि, प्रकुब्जा आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ और देव-देवियाँ थीं । इन्होंने चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में प्रात:काल प्रतिमायोग से सम्मेदाचल पर मुक्ति प्राप्त की थी । तीर्थंकरत्व की साधना इन्होंने दूसरे पूर्वभव में आरंभ कर दी थी । इस समय ये पूर्व विदेह क्षेत्र की सुसीमा के विमलवाहन नामक नृप थे । इस पर्याय में इन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया था । पूर्वभव में ये विजय नामक अनुत्तर विमान में देव थे और वहाँ से च्युत होकर तीर्थंकर हुए थे । महापुराण 48.3-56, पद्मपुराण 5.60-73, 212, 246, 20.18-38, 61, 66-68, 83, 113, 118, हरिवंशपुराण 60 156-183, 341, 349 वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-105
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