अधःप्रवृत्तसंयत
From जैनकोष
लब्धिसार/मूल व जीव तत्व प्रदीपिका/35/70
जह्मा हेट्ठिमभावा उवरिमभावेहिं सरिसगा होंति। तह्मा पढमं करणं अधापत्तोत्ति णिद्दिट्ठं।35। संख्यया विशुद्ध्या च सदृशा भवंति तस्मात्कारणात्प्रथम: करणपरिणाम: अध:प्रवृत्त इत्यन्वर्थतो निर्दिष्ट:।
= करणनि का नाम नाना जीव अपेक्षा है। सो अध:करण मांडै कोई जीव को स्तोक काल भया, कोई जीव को बहुत काल भया। तिनिके परिणाम इस करणविषै संख्या व विशुद्धताकरि (अर्थात् दोनों ही प्रकारसे) समान भी होहै ऐसा जानना। क्योंकि इहाँ निचले समयवर्ती कोई जीव के परिणाम ऊपरले समयवर्ती कोई जीव के परिणाम के सदृश हो हैं तातैं याका नाम अध:प्रवृत्तकरण है। ( यद्यपि वहाँ परिणाम असमान भी होते हैं, परंतु ‘अध:प्रवृत्तकरण’ इस संज्ञा में करण नीचले व ऊपरले परिणामों की समानता ही है असमानता नहीं)। ( गोम्मटसार जीवकांड/48।100 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड/898/1076 )।
-विस्तार से जानने के लिये देखें ( संयत - 1 व करण - 4)