सिद्धांतकोष से
सामान्य परिचय
तीर्थंकर क्रमांक |
14 |
चिह्न |
सेही |
पिता |
सिंहसेन |
माता |
जयश्यामा |
वंश |
इक्ष्वाकु |
उत्सेध (ऊँचाई) |
50 धनुष |
वर्ण |
स्वर्ण |
आयु |
30 लाख वर्ष |
पूर्व भव सम्बंधित तथ्य
पूर्व मनुष्य भव |
पद्मरथ |
पूर्व मनुष्य भव में क्या थे |
मण्डलेश्वर |
पूर्व मनुष्य भव के पिता |
सर्वगुप्ति |
पूर्व मनुष्य भव का देश, नगर |
धात.विदेह अरिष्टा |
पूर्व भव की देव पर्याय |
पुष्पोत्तर |
गर्भ-जन्म कल्याणक सम्बंधित तथ्य
गर्भ-तिथि |
कार्तिक कृष्ण 1 |
गर्भ-नक्षत्र |
रेवती |
जन्म तिथि |
ज्येष्ठ कृष्ण 12 |
जन्म नगरी |
अयोध्या |
जन्म नक्षत्र |
रेवती |
योग |
पूषा |
दीक्षा कल्याणक सम्बंधित तथ्य
वैराग्य कारण |
उल्कापात |
दीक्षा तिथि |
ज्येष्ठ कृष्ण 12 |
दीक्षा नक्षत्र |
रेवती |
दीक्षा काल |
अपराह्न |
दीक्षोपवास |
तृतीय भक्त |
दीक्षा वन |
सहेतुक |
दीक्षा वृक्ष |
पीपल |
सह दीक्षित |
1000 |
ज्ञान कल्याणक सम्बंधित तथ्य
केवलज्ञान तिथि |
चैत्र कृष्ण 15 |
केवलज्ञान नक्षत्र |
रेवती |
केवलोत्पत्ति काल |
अपराह्न |
केवल स्थान |
अयोध्या |
केवल वन |
सहेतुक |
केवल वृक्ष |
पीपल |
योग निवृत्ति काल |
1 मास पूर्व |
निर्वाण नक्षत्र |
रेवती |
निर्वाण काल |
सायं |
निर्वाण क्षेत्र |
सम्मेद |
समवशरण सम्बंधित तथ्य
समवसरण का विस्तार |
5 1/2 योजन |
सह मुक्त |
7000 |
पूर्वधारी |
1000 |
शिक्षक |
39500 |
अवधिज्ञानी |
4300 |
केवली |
5000 |
विक्रियाधारी |
8000 |
मन:पर्ययज्ञानी |
5000 |
वादी |
3200 |
सर्व ऋषि संख्या |
66000 |
गणधर संख्या |
50 |
मुख्य गणधर |
अरिष्ट |
आर्यिका संख्या |
108000 |
मुख्य आर्यिका |
सर्वश्री |
श्रावक संख्या |
200000 |
मुख्य श्रोता |
पुरुष पुण्डरीक |
श्राविका संख्या |
400000 |
यक्ष |
किन्नर |
यक्षिणी |
वैरोटी |
आयु विभाग
आयु |
30 लाख वर्ष |
कुमारकाल |
7.5 लाख वर्ष |
विशेषता |
मण्डलीक |
राज्यकाल |
15 लाख वर्ष |
छद्मस्थ काल |
2 वर्ष* |
केवलिकाल |
749998 वर्ष* |
तीर्थ संबंधी तथ्य
जन्मान्तरालकाल |
9 सागर +30 लाख वर्ष |
केवलोत्पत्ति अन्तराल |
4 सागर 499999 वर्ष |
निर्वाण अन्तराल |
4 सागर |
तीर्थकाल |
(4 सागर +750000वर्ष)–3/4 पल्य |
तीर्थ व्युच्छित्ति |
61/20 |
शासन काल में हुए अन्य शलाका पुरुष |
चक्रवर्ती |
❌ |
बलदेव |
सुप्रभ |
नारायण |
पुरुषोत्तम |
प्रतिनारायण |
मधु कै꠶ |
रुद्र |
अजितंधर |
महापुराण सर्ग संख्या 60/श्लोक "पूर्व के तीसरे भव में धातकी खंड में पूर्व मेरु से उत्तर की ओर अरिष्ट नगर का छद्मस्थ नामक राजा था
(2-3) आगे पूर्व के दूसरे भव में पुष्पोत्तर विमान में इंद्रपद प्राप्त किया (12) वर्तमान भव में चौदहवें तीर्थंकर हुए हैं।
(विशेष देखें तीर्थंकर - 5.2)।
पुराणकोष से
चौदहवें तीर्थंकर । अवसर्पिणी काल के दु:षमा-सुषमा नामक चतुर्थ काल में उत्पन्न शलाका पुरुष ।
महापुराण 2.131, पद्मपुराण 5.215 हरिवंशपुराण 1.16, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-106 तीसरे पूर्वभव में ये घातकीखंड द्वीप के पूर्वमेरु से उत्तर की ओर विद्यमान अरिष्टपुर नामक नगर के पद्मरथ नाम के नृप थे । पुत्र घनरथ को राज्य देकर इन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया । सल्लेखना पूर्वक शरीर छोड़कर दूसरे पूर्वभव में ये पुष्पोत्तर विमान में इंद्र हुए थे ।
महापुराण 60.2-12
इस स्वर्ग से च्युत हो ये जंबूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकु वंश में काश्यप गोत्र के राजा सिंहसेन की रानी जयश्यामा के कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा की प्रभातवेला में सोलह स्वप्न पूर्वक गर्भ में आये थे । ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के पूष योग में जन्म लेकर अभिषेकोपरांत ये इंद्र द्वारा ‘अनंतजिन’ नाम से अभिहित किये गये थे इनका जन्म तीर्थंकर विमलनाथ के बाद नौ सागर और पौन पल्य बीत जाने पर तथा धर्म को क्षीणता का आरंभ होने पर हुआ था । इनकी आयु तीस लाख वर्ष और शारीरिक अवगाहना पचास धनुष थी । सर्व लक्षणों से युक्त इनका शरीर स्वर्ण-वर्ण के समान था । सात लाख पचास हजार वर्ष बीत जाने पर राज्याभिषेक प्राप्त किया था, और राज्य करते हुए पंद्रह लाख वर्ष के पश्चात् उल्कापात देखकर ये बोधि प्राप्त होते ही अपने पुत्र अनंतविजय को राज्य देकर तृतीय कल्याणक पूजा के उपरांत सागरदत्त नामा पालकी में बैठे और सहेतुक वन गये । वहाँ ये ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी की सायं देखा में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । इन्होंने प्रथम पारणा साकेत में की । विशाख नाम के राजा ने आहार दे पंचाश्चर्य प्राप्त किये । सहेतुक वन में ही छद्मस्थ अवस्था में दो वर्ष की तपस्या के पश्चात् अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष के नीचे चैत्र कृष्ण अमावस्या की सायं वेला में रेवती नक्षत्र में इन्हें केवलज्ञान हुआ । इनका चतुर्थ कल्याणक सोत्साह मनाया गया । इनके जय आदि पचास गणधर थे और संघ में छ्यासठ हजार मुनि एक लाख आठ हजार आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, तथा चार लाख श्राविकाएँ थी । सम्मेदगिरि पर इन्होंने एक मास का योग निरोध किया । छ: हजार एक सौ मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर चैत्र मास की अमावस्या के दिन रात्रि के प्रथम प्रहर में ये परम पद को प्राप्त हुए ।
महापुराण 60.16-45, पद्मपुराण 20.14,120, हरिवंशपुराण 60. 153-195, 341-349
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