गुप्त वंश
From जैनकोष
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वंशका नाम सामान्य/विशेष | लोक इतिहास | विशेष घटनायें | |||
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ईसवी | वर्ष | ||||
7. गुप्त वंश- | आगमकारों व इतिहासकारों की अपेक्षा इस वंश की पूर्वावधि के सम्बन्ध में समाधान ऊपर कर दिया गया है कि ई. 201-320 तक यह कुछ प्रारम्भिक रहा है। | ||||
सामान्य | जैन शास्त्र | 231 | |||
प्रारम्भिक | इतिहास | ||||
अवस्थामें | 320-460 | 140 | इसने एकछत्र गुप्त साम्राज्य की स्थापना करने के उपलक्ष्य में गुप्त सम्वत् चलाया। इसका विवाह लिच्छिव जाति की एक कन्या के साथ हुआ था। यह विद्वानों का बड़ा सत्कार करता था। प्रसिद्ध कवि कालिदास (शकुन्तला नाटककार) इसके दरबार का ही रत्न था। | ||
चन्द्रगुप्त | 320-330 | 10 | |||
समुद्रगुप्त | 330-375 | 45 | |||
चन्द्रगुप्त - (विक्रमादित्य) | 375-413 | 38 | |||
स्कन्द गुप्त | 413-435 वी. नि. | 22 | इसके समय में हूनवंशी (कल्की) सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। उन्होंने आक्रमण भी किया परन्तु स्कन्द गुप्त के द्वारा परास्त कर दिये गये। ई. 437 में जबकि गुप्त संवत् 117 था यही राजा राज्य करता था। ( कषायपाहुड़ 1/ प्रस्तावना /54/65/पं. महेन्द्र) | ||
- | 940-962 | - | इस वंश की अखण्ड स्थिति वास्तव में स्कन्दगुप्त तक ही रही। इसके पश्चात्, हूनों के आक्रमण के द्वारा इसकी शक्ति जर्जरित हो गयी। यही कारण है कि आगमकारों ने इस वंश की अन्तिम अवधि स्कन्दगुप्त (वी. नि. 958) तक ही स्वीकार की है। कुमारगुप्त के काल में भी हूनों के अनेकों आक्रमण हुए जिसके कारण इस राज्य का बहुभाग उनके हाथ में चला गया और भानुगुप्त के समय में तो यह वंश इतना कमजोर हो गया कि ई. 500 में हूनराज तोरमाण ने सारे पंजाब व मालवा पर अधिकार जमा लिया। तथा तोरमाण के पुत्र मिहरपाल ने उसे परास्त करके नष्ट ही कर दिया। | ||
कुमार गुप्त | 435-460 | 25 | |||
भानु गुप्त | 460-507 | 47 |
देखें इतिहास - 3.4।