जनक
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- ( पद्मपुराण/26/121 ) मिथिलापुरी के राजा सीता के पिता।
- विदेह का राजा था। अपर नाम उग्रसेन था। समय–ई.पू.1420 (भारती इतिहास/पुस्तक 1/पृष्ठ 286)
पुराणकोष से
हरिवंश में अनेक राजाओं के पश्चात् हुए मिथिला के राजा वासकेतु और उसकी पटरानी विपुला का प्रजा-हितैषी पुत्र । विदेहा इसकी रानी थी । भामंडल और जानकी युगल रूप में इसी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । इनकी रानी का अपरनाम वसुधा तथा काम की का अपरनाम सीता था । महापुराण 67.166-167, पद्मपुराण 21. 52-55, 26. 2, 121, 164 सागरबुद्धि निमित्तज्ञानी द्वारा यह बताये जाने पर कि ‘‘दशरथ का पुत्र तथा जनक की पुत्री रावण-वध के हेतु है’’ विभीषण ने दशरथ और जनक वध का निश्चय किया था । नारद से यह समाचार ज्ञात कर राजा दशरथ ने समुद्र हृदय मंत्री को राज्य सौंप दिया और वह गुप्त वेष में नगर से बाहर निकल गाया । दशरथ की कृत्रिम प्रतिमा सिंहासन पर मंत्री ने स्थापित कर रखी थी । ऐसा ही जनक के बचाव के लिए भी किया गया । विभीषण ने अपने बधकों से कृत्रिम पुतलों के सिर कटवाकर निज को धन्य माना था । पद्मपुराण 23.25-26, 39-41, 45,54-56 विद्याधर चंद्रगति अपने पालित पुत्र भामंडल के लिए इसकी पुत्री चाहता था । इसी निमित्त से चपलवेग विद्याधर द्वारा छद्म वेष पूर्वक यह हरा जाकर चंद्रगति विद्याधर के पास ले जाया गया था । जानकी को विषय बनाकर बहुत वाद-विवाद के बाद विद्याधर चंद्रगति और इसके बीच यह निश्चय किया गया था कि वज्रवर्त धनुष चढ़ाकर ही राम जानकी प्राप्त कर सकेंगे अन्यथा जानकी चंद्रगति की होगी । ऐसा निश्चय किये जाने पर ही इसे वहाँ से मुक्त किया जा सका था । इस कार्य की अवधि बीस दिन की थी । अवधि के भीतर ही इसने स्वयंवर आयोजित किया था । सभी आगत विद्याधरों और पृथिवी के शासकों के समक्ष राम ने उक्त धनुष चढ़ाकर इसकी पुत्री जानकी को प्राप्त किया था । पद्मपुराण 28.61-174, 194, 234-236,243 जानकी के साथ युगल रूप में उत्पन्न इनका पुत्र भामंडल पूर्व वैर वश एक यक्ष द्वारा हरा जाकर निर्जन वन मे छोड़ा गया था । चंद्रगति ने उसका लालन-पालन किया तथा भामंडल नाम रखा था । जानकी-परिणय के पश्चात् भामंडल और जानकी एक दूसरे से परिचित होकर हर्षित हुए । इसे भी असीम हर्ष हुआ था । पद्मपुराण 26.111-149, 30. 155-158 आयु के अंत में मरकर यह आनत स्वर्ग मे जहाँ राजा दशरथ, उनकी रानियाँ और भाई कनक सभी मरकर देव हुए थे, यह भी देव हुआ था । पद्मपुराण 123.80-81