परिहार
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
धवला 1/1, 1, 13/174/1 अस्तु गुणानां परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः इष्टत्वात्, अन्यथा तेषां स्वरूपहानिप्रसंगात्। = गुणों में परस्पर परिहार लक्षण विरोध इष्ट ही है, क्योंकि यदि गुणों का एक दूसरे का परिहार करके अस्तित्व नहीं माना जावे तो उनके स्वरूप की हानि का प्रसंग आता हैं
विरोध संबंधित अधिक जानकारी के लिए- देखें विरोध ।
पुराणकोष से
प्रायश्चित के नौ भेदों में आठवाँ भेद । पक्ष, मास आदि एक निश्चित समय के लिए दोषी मुनि को संघ से दूर कर देना परिहार कहलाता है । हरिवंशपुराण 64.28, 37