ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 22
From जैनकोष
अथानंतर कुमार वसुदेव चंपापुरी में गांधर्वसेना के साथ क्रीड़ा करते हुए रहते थे कि उसी समय फाल्गुन मास की अष्टाह्निकाओं का महोत्सव आ पहुँचा ॥1॥ वंदना के प्रेमी एवं हृदय में आनंद को धारण करने वाले देव नंदीश्वर द्वीप को तथा विद्याधर सुमेरु पर्वत आदि स्थानों पर जाने लगे ॥2॥ भगवान् वासुपूज्य के गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण इन पांच कल्याणकों के होने से पूज्य एवं देदीप्यमान गृह से सुशोभित चंपापुरी में भी देव और विद्याधर आये ॥3॥ उस समय श्री जिनेंद्र भगवान की पूजा का उत्सव करने के लिए भूमिगोचरी और विद्याधर राजा अपनी स्त्री तथा पुत्र आदि के साथ सर्व ओर से वहाँ आये थे ॥4॥ चंपापुरी के रहने वाले सब लोग भी राजा को साथ ले श्री वासुपूज्य स्वामी की प्रतिमा को पूजने के लिए नगर से बाहर गये ॥5॥ उस समय नाना प्रकार के आभूषणों को धारण करने वाली स्त्रियां नगर से बाहर जा रही थीं । उनमें कितनी ही हाथी पर बैठकर तथा कितनी ही घोड़े एवं बैल आदि पर बैठकर जा रही थीं ॥6॥ कुमार वसुदेव भी गांधर्वसेना के साथ घोड़ों के रथ पर आरूढ़ हो श्रीजिनेंद्र देव की पूजा करने के लिए सामग्री साथ लेकर नगरी से बाहर निकले ॥7॥
अनेक योद्धाओं के मध्य में जाते हुए कुमार वसुदेव ने वहाँ जिनमंदिर के आगे मातंग कन्या के वेष में नृत्य करती हुई एक कन्या को देखा ॥8॥ वह कन्या नील कमल दल के समान श्याम थी, गोल एवं उठे हुए स्तनों से युक्त थी तथा बिजली के समान चमकते हुए आभूषणों से सहित थी इसलिए हरी-भरी, ऊंचे मेघों से युक्त एवं चमकती हुई बिजली से युक्त वर्षा ऋतु की लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ॥9॥ अथवा उसके ओठ बंदूक के पुष्प के, समान लाल थे, उसके हाथ-पैर उत्तम कमल के समान थे और नेत्र सफेद कमल के समान थे, इसलिए वह साक्षात् मूर्तिमती शरद् ऋतु की लक्ष्मी के समान दिखाई देती थी॥10॥ अथवा वह रूपवती कन्या जिनेंद्र भगवान की भक्ति से स्वयं नृत्य करती हुई श्री, धृति, बुद्धि, लक्ष्मी एवं सरस्वती देवी के समान जान पड़ती थी ॥11॥ नृत्य की रंगभूमि में गाने वाले अपने परिकर के साथ स्थित थे । मृदंग, पणव, दर्दुर, झांझ, विपंची और वीणा बजाने वाले वादक तथा उत्तम नृत्य करने वाले कुतुप उत्तम, मध्यम और जघन्य प्रकृति के साथ युक्त थे । इनमें जो अच्छे-से-अच्छे प्रयोग दिखलाने वाले थे वे यथास्थान अलातचक्र के समान-व्यवधानरहित गायन-वादन और नर्तन के प्रयोग दिखला रहे थे ॥12-14॥ इस प्रकार रस, अभिनय और भावों को प्रकट करने वाली उस नर्तकी को प्रिया गांधर्वसेना के साथ रथ पर बैठे हुए कुमार वसुदेव ने देखा ॥15॥ देखते ही उस नर्तकी ने कुमार को और कुमार ने उस नर्तकी को अपने-अपने रूप तथा विज्ञानरूपी पाश से शीघ्र ही बाँध लिया । उस समय वे दोनों ही आपस में बंधव्य और बंधक दशा को प्राप्त हुए थे अर्थात् एक-दूसरे को अनुरागरूपी पाश में बांध रहे थे ॥16॥ यह देख गांधर्वसेना ने अपने नेत्र ईर्ष्या से संकुचित कर लिये सो ठीक ही है क्योंकि विरोधी का सन्निधान नेत्र संकोच का कारण होता ही है ॥17॥ यहाँ अधिक ठहरना हानिकर एवं भय को उत्पन्न करने वाला है ऐसा मानती हुई गांधर्वसेना ने सारथी से कहा कि हे सारथे ! तुम इस स्थान से शीघ्र ही रथ ले चलो क्योंकि शक्कर भी अधिक खाने से दूसरा रस नहीं देती ॥18-19 ॥
गांधर्वसेना के ऐसा कहने पर सारथी ने रथ को वेग से बढ़ाया और सब जिनमंदिर जा पहुंचे । वहाँ रथ को खड़ा कर वसुदेव और गांधर्वसेना ने मंदिर में प्रवेश किया, तीन प्रदक्षिणाएँ दी और दूध, इक्षुरस को धारा, घी, दही तथा जल आदि के द्वारा मनुष्य, सुर एवं असुरों के द्वारा पूजित जिनेंद्र देव की प्रतिमा का अभिषेक किया ॥20-21॥ दोनों ही पूजा की विधि में अत्यंत निपुण थे इसलिए उन्होंने हरिचंदन की गंध, धान के सुगंधित एवं अखंड चावल, नाना प्रकार के उत्तमोत्तम पुष्प, कालागुरु, चंदन से निर्मित उत्तम धूप, देदीप्यमान शिखाओं से युक्त दीपक और निर्दोष नैवेद्य से जिन-प्रतिमा की पूजा की ॥22-23॥ पूजा के बाद वे सामायिक के लिए उद्यत हुए सो प्रथम ही दोनों पैर बराबर कर जिनप्रतिमा के आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये । तदनंतर ईर्यापथ दंडक का मंद स्वर से उच्चारण कर कायोत्सर्ग करने लगे । कायोत्सर्ग के द्वारा उन्होंने ईर्यापथ शुद्धि की । तत्पश्चात् जिनेंद्र प्रदर्शित मार्ग में अतिशय निपुणता रखने वाले दोनों, नमस्कार करने के लिए जमीन पर पड़ गये, फिर उठकर खड़े हुए । पंचनमस्कार मंत्र के पाठ से अपने-आपको उन्होंने पवित्र किया, अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलिप्रज्ञप्त धर्म ये चार ही संसार में उत्तम पदार्थ हैं, चार ही मंगल हैं और इन चारों की शरण में हम जाते हैं इस प्रकार उच्चारण किया । अढाईद्वीप के एक सौ सत्तर धर्म क्षेत्रों में जो तीर्थंकर आदि पहले थे, वर्तमान में हैं और आगे होंगे उन सबके लिए हमारा नमस्कार हो यह कहकर उन्होंने निम्नांकित नियम ग्रहण किया कि हम जब तक सामायिक करते हैं तब तक के लिए समस्त सावधयोग और शरीर का त्याग करते हैं― यह नियम लेकर उन्होंने शरीर से ममत्व छोड़ दिया और शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, जीवन-मरण तथा लाभ-अलाभ में मेरे समताभाव हो ऐसा मन में विचार किया । तदनंतर सात श्वासोच्छ̖वास प्रमाण खड़े रहकर उन्होंने शिरोनति की और उसके बाद चौबीस तीर्थंकरों के सुंदर स्तोत्र का उच्चारण किया ॥24-30॥ चौबीस तीर्थंकरों का स्तोत्र इस प्रकार था―
हे ऋषभदेव ! तुम्हें नमस्कार हो, हे अजितनाथ ! तुम्हें नमस्कार हो, हे संभवनाथ ! तुम्हें निरंतर नमस्कार हो, हे अभिनंदन नाथ ! तुम्हें नमस्कार हो ॥31॥ हे सुमतिनाथ ! तुम्हें नमस्कार हो, हे पद्मप्रभ ! तुम्हें नमस्कार हो, हे जगत् के स्वामी सुपार्श्वनाथ ! तुम्हें नमस्कार हो, हे चंद्रप्रभ जिनेंद्र ! तुम्हें नमस्कार हो ॥32॥ हे पुष्पदंत ! तुम्हें नमस्कार हो, हे शीतलनाथ ! आप रक्षा करने वाले हैं अतः आपको नमस्कार हो, हे श्रेयांसनाथ ! आप अनंत चतुष्टयरूप लक्ष्मी के स्वामी हैं तथा आश्रित प्राणियों का कल्याण करने वाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥33॥ जिनका चंपापुरी में यह अचल महोत्सव मनाया जा रहा है तथा जो तीनों जगत् में पूज्य हैं ऐसे वासुपूज्य भगवान के लिए नमस्कार हो ॥34॥ हे विमलनाथ ! आपको नमस्कार हो, हे अनंतनाथ ! आपको नमस्कार हो, हे धर्मजिनेंद्र ! आपको नमस्कार हो, हे शांति के करने वाले शांतिनाथ ! आपको नमस्कार हो ॥35॥ हे कुंथुनाथ ! आपको नमस्कार हो, हे अरनाथ ! आपको नमस्कार हो, हे मल्लिनाथ ! आप शल्यों को नष्ट करने के लिए मल्ल के समान हैं अतः आपको नमस्कार हो, हे मुनिसुव्रतनाथ ! आपको नमस्कार हो ॥36 ॥ जिन्हें तीन लोक के स्वामी सदा नमस्कार करते हैं और इस समय भरत क्षेत्र में जिनका तीर्थ चल रहा है उन नमिनाथ भगवान् के लिए नमस्कार हो ॥37॥ जो आगे तीर्थकर होने वाले हैं तथा जो हरिवंशरूपी महान् आकाश में चंद्रमा के समान सुशोभित होंगे उन अरिष्टनेमि को नमस्कार हो ॥38॥ श्री पार्श्वजिनेंद्र के लिए नमस्कार हो, श्रीवर्धमान स्वामी को नमस्कार हो, समस्त तीर्थंकरों के गणधरों को नमस्कार हो, श्रीअरहंत भगवान् के त्रिलोकवर्ती कृत्रिम अकृत्रिम मंदिरों तथा प्रतिबिंबों के लिए नमस्कार हो ॥39-40 ॥
इस प्रकार स्तवन कर भक्ति के कारण जिनके शरीर में रोमांच उठ रहे थे ऐसे कुमार वसुदेव तथा गांधर्वसेना ने मस्तक, घुटने तथा हाथों से पृथिवी तल का स्पर्श करते हुए प्रणाम किया ॥41॥ तदनंतर पहले के समान खड़े होकर कायोत्सर्ग किया और पुण्यवर्धक पंच नमस्कार मंत्र का उच्चारण किया ॥42 ॥ पंच नमस्कार मंत्र पढ़ते हुए उन्होंने कहा कि अरहंतों को सदा नमस्कार हो, समस्त सिद्धों को नमस्कार हो, और समस्त पृथिवी में जो आचार्य, उपाध्याय तथा साधु हैं उन सबके लिए नमस्कार हो ॥43॥ अंत में जिन-मंदिर की प्रदक्षिणा देकर सुंदर शरीर के धारक दोनों दंपति रथ पर सवार हो बड़े वैभव के साथ चंपापुरी में प्रविष्ट हुए ॥ 44 ॥ नृत्य कारिणी को देखते समय कुमार वसुदेव के नेत्रों में जो विकार हुआ था वह गांधर्वसेना की दृष्टि में आ गया था इसलिए वह उनसे मान करने लगी थी परंतु कुमार ने प्रणाम कर उसे वश कर लिया ॥ 45 ॥ सो ठीक ही है क्योंकि सपत्नी के देखने में आसक्ति होने से पति के सापराध होने पर भी हाथ जोड़कर किया हुआ नमस्कार स्त्रियों के मान को दूर कर देता है ॥ 46 ॥
अथानंतर किसी समय कुमार वसुदेव महल के एकांत स्थान में अच्छी तरह बैठे थे कि उस नृत्य करने वाली कन्या के द्वारा भेजी हुई एक वृद्धा विद्याधरी उनके पास आयी । वह वृद्धा त्रिपुंडाकार तिलक से सुशोभित थी, कुमार वसुदेव के चित्त को हरने वाली थी और मूर्तिमती वार्धक्य विद्या के समान जान पड़ती थी । उसने आते ही कुमार को आशीर्वाद दिया और सामने के आसन पर बैठकर कुमार से इस प्रकार कहना शुरू किया ॥47-48॥ हे वीर ! यद्यपि आपके हृदय में शुद्ध दर्पणतल के समान पुराणों का विस्तार प्रतिभासित हो रहा है तथापि मैं विद्याधरों से संबंध रखने वाली एक बात आप से कहती हूं और यह उचित भी है क्योंकि औषधियों का नाथ-चंद्रमा अपनी किरणों से जिसका स्पर्श कर चुकता है क्या सामान्य औषधि उसका स्पर्श नहीं कर सकती ? अर्थात् अवश्य कर सकती है । भावार्थ― बड़े पुरुष जिस वस्तु को जानते हैं उसे छोटे पुरुष भी जान सकते हैं ॥49-50॥ जिस समय जगत को आजीविका का उपाय बतलाने वाले, युग के आदिपुरुष भगवान् वृषभदेव भरतेश्वर के लिए राज्य देकर दीक्षित हुए थे उस समय उनके साथ उग्रवंशीय, भोजवंशीय आदि चार हजार क्षत्रिय राजा भी तप में स्थित हुए थे परंतु पीछे चलकर वे परीषहों से भ्रष्ट हो गये । उन भ्रष्ट राजाओं में नमि और विनमि ये दो भाई भी थे । ये दोनों राज्य की इच्छा रखते थे इसलिए भगवान् के चरणों में लगकर वहीं बैठ गये ॥51-53॥ उसी समय रक्षा करने में निपुण जिन-भक्त धरणेंद्र ने अनेक धरणों-देव विशेषों और दिति तथा अदिति नामक अपनी देवियों के साथ आकर नमि, विनमि को आश्वासन दिया और अपनी देवियों से उस महात्मा ने वहीं जिनेंद्र भगवान् के समीप उन दोनों के लिए विद्याकोश-विद्या का भंडार दिलाया ॥ 54-55 ॥
अदिति देवी ने उन्हें विद्याओं के आठ निकाय दिये तथा गांधर्वसेन के नाम का विद्याकोश बतलाया ॥56 ॥ विद्याओं के आठ निकाय इस प्रकार थे― 1 मनु, 2 मानव, 3 कौशिक, 4 गौरिक, 5 गांधार, 6 भूमितुंड, 7 मूलवीर्यक और 8 शंकुक । ये निकाय आर्य, आदित्य, गंधर्व तथा व्योमचर भी कहलाते हैं ॥ 57-58॥ धरणेंद्र की दूसरी देवी दिति ने भी उन्हें 1 मातंग, 2 पांडुक, 3 काल, 4 स्वपाक, 5 पर्वत, 6 वंशालय, 7 पांशुमूल और 8 वृक्षमूल ये आठ निकाय दिये । ये निकाय दैत्य, पन्नग और मातंग नाम से कहे जाते हैं ॥ 59-60 । इन सोलह निकायों की नीचे लिखी विद्याएँ कही गयी हैं जो समस्त विद्याओं में प्रधानता को प्राप्त कर स्थित हैं ॥61॥ प्रज्ञप्ति, रोहिणी, अंगारिणी, महागौरी, गौरी, सर्वविद्याप्रकर्षिणी, महाश्वेता, मायूरी, हारी, निवज्ञशावला, तिरस्करिणी, छायासंक्रामिणी, कूष्मांड गणमाता, सर्वविद्या विराजिता, आर्य कूष्मांडदेवी, अच्युता, आर्यवती, गांधारी, निवृति, दंडाध्यक्षगण, दंडभूत सहस्रक, भद्रकाली, महाकाली, काली और कालमुखी-इन्हें आदि लेकर विद्याधर राजाओं की अनेक विद्याएँ कही गयी हैं ॥62-66॥ इनके सिवाय एकपर्वा, द्विपर्वा, त्रिपर्वा, दशपर्वा, शतपर्वा, सहस्रपर्वा, लक्षपर्वा, उत्पातिनी, त्रिपातिनी, धारिणी, अंतविचारिणी, जलगति और अग्निगति ये विद्याएं समस्त निकायों में नाना प्रकार की शक्तियों से सहित हैं, नाना पर्वतों पर निवास करने वाली हैं एवं नाना औषधियों की जानकार हैं ॥67-69 ॥ सर्वार्थसिद्धा, सिद्धार्था, जयंती, मंगला, विजयार्ध, प्रहारसंक्रामिणी, अशय्याराधिनी, विशल्यकारिणी, व्रणरोहिणी, सवर्णकारिणी और मृत संजीवनी― ये सभी विद्याएँ परम कल्याणरूप हैं, सभी मंत्रों से परिष्कृत हैं, सभी विद्याबल से युक्त हैं, सभी लोगों का हित करने वाली हैं । ये ऊपर कही हुई समस्त विद्याएं तथा दिव्य औषधियां धरणेंद्र ने नमि और विनमि को दी ꠰꠰70-73॥
धरणेंद्र के द्वारा दिये हुए विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में नमि रहता था और उत्तर श्रेणी में विनमि निवास करता था ॥74॥ नाना देशवासियों से सहित एवं मित्र तथा बंधुजनों से परिचित दोनों वीर विजयार्ध की दोनों श्रेणियों में सुख से निवास करने लगे ॥75॥ इन दोनों ने सब लोगों को अनेक औषधियां तथा विद्याएं दी थीं इसलिए वे विद्याधर उन्हीं विद्या-निकायों के नाम से प्रसिद्ध हो गये ॥76 ॥ जैसे गौरी विद्या से गौरिक, मनु से मनु, गांधारी से गांधार, मानवी से मानव, कौशिकी से कौशिक, भूमितुंडक से भूमितुंड, मूलवीर्य से मूलवीर्यक, शंकुक से शंकुक, पांडुकी से पांडुकेय, कालक से काल, श्वपाक से श्वपाकज, मातंगी से मातंग, पर्वत से पार्वतेय, वंशालय से वंशालय गण, पांशुमूल से पांशुमूलिक और वृक्षमूल से वार्क्षमूल― इस प्रकार विद्यानिकायों से सिद्ध होने वाले विद्याधरों का क्रम से उल्लेख किया ॥ 77-83 ॥ विद्याधरों की कुल नगरियां एक सौ दश-दश हैं, उनमें उत्तर भाग में साठ हैं और दक्षिण भाग में पचास हैं ॥ 84॥ 1 आदित्यनगर, 2 गगनवल्लभ, 3 चमरचंपा, 4 गगनमंडल, 5 विजय, 6 वैजयंत, 7 शत्रुंजय, 8 अरिंजय, 9 पद्माल, 10 केतुमाल, 11 रुद्राश्व, 12 धनंजय, 13 वस्वीक, 14 सारनिवह, 15 जयंत, 16 अपराजित, 17 वराह, 18 हास्तिन, 19 सिंह, 20 सौकर, 21 हस्तिनायक, 22 पांडुक, 23 कौशिक, 24 वीर, 25 गौरिक, 26 मानव, 27 मनु, 28 चंपा, 29 कांचन, 30 ऐशान, 31 मणिव्रज, 32 जयावह, 33 नैमिष, 34 हास्ति विजय, 35 खंडिका, 36 मणिकांचन, 37 अशोक, 38 वेणु, 39 आनंद, 40 नंदन, 41 श्रीनिकेतन, 42 अग्निज्वाल, 43 महाज्वाल, 44 माल्य, 45 पुरु, 46 नंदिनी, 47 विद्युत्प्रभ, 48 महेंद्र, 49 विमल, 50 गंधमादन, 51 महापुर, 52 पुष्पमाल, 53 मेघमाल, 54 शशिप्रभ, 55 चूडामणि, 56 पुष्पचूड़, 57 हंसगर्भ, 58 वलाहक, 59 वंशालय, और 60 सौमनस-ये साठ नगरियाँ विजयार्ध की उत्तर श्रेणी में हैं ॥ 85-92॥
और 1 रथनूपुर, 2 आनंद, 3 चक्रवाल, 4 अरिंजय, 5 मंडित, 6 बहुकेतु, 7 शकटामुख, 8 गंधसमृद्ध, 9 शिवमंदिर, 10 वैजयंत, 11 रथपुर, 12 श्रीपुर, 13 रत्नसंचय, 14 आषाढ़, 15 मानस, 16 सूर्यपुर, 17 स्वर्णनाभ, 18 शतह्रद, 19 अंगावर्त, 20 जलावर्त, 21 आवर्तपुर, 22 बृहद्गृह, 23 शंखवज्र, 24 नाभांत, 25 मेघकूट, 26 मणिप्रभ, 27 कुंजरावत, 28 असितपर्वत, 29 सिंधुकक्ष, 30 महाकक्ष, 31 सुकक्ष, 32 चंद्रपर्वत, 33 श्रीकूट, 34 गौरिकूट, 35 लक्ष्मीकूट, 36 धरधर, 37 कालकेशपुर, 38 रम्यपुर, 39 हिमपुर, 40 किन्नरोद्गीतनगर, 41 नभस्तिलक, 42 मगधासारनलका, 43 पांशुमूल, 44 दिव्यौषध, 45 अर्कमूल, 46 उदयपर्वत, 47 अमृतधार, 48 मातंगपुर, 49 भूमिकुंडलकूट तथा 50 जंबूशंकुपुर ये पचास नगरियाँ विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी में हैं । ये सभी नगरियाँ शोभा में स्वर्ग के तुल्य जान पड़ती हैं ॥93-101॥ उन नगरियों में विद्याधर निकायों के नाम से युक्त तथा भगवान् वृषभदेव, धरणेंद्र और उसकी दिति-अदिति देवियों को प्रतिमाओं से सहित अनेक स्तंभ खड़े किये गये हैं ॥102॥
तदनंतर राजा विनमि के संजय, अरिंजय, शत्रुंजय, धनंजय, मणिचूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक, प्रभंजन चूडामणि, शतानीक, सहस्रानीक, सर्वजय, वज्रबाहु, महाबाहु और अरिंदम आदि अनेक पुत्र हुए । ये सभी पुत्र विनय एवं नीतिज्ञान से सहित थे, नाना विद्याओं से प्रकाशमान थे और उत्तरश्रेणी के उत्तम आभूषण स्वरूप थे । पुत्रों के सिवाय भद्रा और सुभद्रा नाम की दो कन्याएं भी हुई । इनमें सुभद्रा भरतचक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक स्त्री रत्न थी ॥103-106 ॥ इस प्रकार नमि के भी रवि, सोम, पुरुहूत, अंशुमान्, हरि, जय, पुलस्त्य, विजय, मातंग तथा वासव आदि अत्यधिक कांति के धारक अनेक पुत्र हुए और कनकपुंजश्री तथा कनक मंजरी नाम की दो कन्याएँ हुईं ॥107-108॥ आगे चलकर परम विवेकी नमि और विनमि, पुत्रों के ऊपर विद्याधरों का ऐश्वर्य रखकर संसार से विरक्त हो गये और दोनों ने जिन-दीक्षा धारण कर ली ॥109॥ राजा विनमि के पुत्रों में जो मातंग नाम का पुत्र था उसके बहुत से पुत्र-पौत्र तथा प्रपौत्र आदि हुए और वे अपनी-अपनी साधना के अनुसार स्वर्ग तथा मोक्ष गये ॥ 110॥
इस तरह बहुत दिन के बाद इक्कीसवें तीर्थंकर के तीर्थ में असित पर्वत नामक नगर में मातंग वंश में एक प्रहसित नाम का राजा हुआ । वह बड़ा प्रतापी था और मातंग वंशरूपी आकाश का मानो सूर्य था । उसी की मैं हिरण्यवती नाम की स्त्री हूँ और विद्या से मैंने वृद्ध स्त्री का रूप धारण किया है ॥ 111-112॥ सिंहदंष्ट्र नाम का मेरा पुत्र है और नीलांजना उसकी स्त्री है । उन दोनों की नील कमल के समान नीली आभा से युक्त नीलयशा नाम की एक पुत्री है । मुझे बोलने का अभ्यास है इसलिए मैंने उद्यम कर कुल, शील, कला तथा अनेक गुणों के द्वारा उज्ज्वल यश को धारण करने वाली उस कन्या के वंश का वर्णन किया है ॥ 113-114 ॥
हे हरिवंशरूपी आकाश के चंद्र ! वह चंद्रमुखी कन्या आष्टाह्निक पर्व के समय श्रीवासुपूज्य भगवान् के पूजा-महोत्सव में इस चंपापुरी में आयी थी और मंदिर के आगे जब नृत्य कर रही थी तब उसने आपको देखा था॥115 ॥ हे कुमार ! इस कन्या के लिए उस समय आपका दर्शन जैसा सुख का कारण हुआ था वैसा ही आज विरहकाल में दुःख का कारण हो रहा है ॥ 116॥ न वह स्नान करती है, न खाती है, न बोलती है और न कुछ चेष्टा ही करती है । काम के बाणरूपी शल्यों से छिदी हुई वह कन्या जीवित है यही बड़े आश्चर्य की बात है ॥ 117 ॥ उसको इस दशा में माता-पिता को लेकर हमारा समस्त कुल व्याकुल हो रहा है तथा वह यह भी नहीं जानता है कि क्या करूँ ? ॥118॥ जब मैंने उसके हृदय का हाल जानने के लिए कुल-विद्या से पूछा तो उसने यह प्रकट किया कि हाथी के द्वारा नष्ट की हुई कमलिनी के समान इसका हृदय किसी युवा पुरुष के द्वारा दूषित किया गया है ॥ 119 ॥ तदनंतर मैंने निश्चय कर लिया कि मत्त-मतंगज के समान चलने वाली कन्या के हृदय की पीड़ा आपकी ही इच्छा से है । भावार्थ― उसके हृदय की पीड़ा आपके ही कारण है ॥ 120॥ हे यादव ! मैं आपको वहाँ ले जाने के लिए आयी हूं, निमित्तज्ञानी ने भी वह आपकी ही बतलायी है अतः आप चलें और उसे स्वीकार करें ॥121॥ कुमार वसुदेव अपने चित्त को चुराने वाली नीलयशा की वह अवस्था सुन, जाने के लिए यद्यपि उत्कंठित हो गये तथापि उस समय उन्होंने चंपापुरी से बाहर जाना ठीक नहीं समझा ॥ 122 ॥ और यही उत्तर दिया कि हे अंब ! मैं आऊँगा तुम तब तक जाकर उस कृशोदरी बिंबोष्ठी को मेरा समाचार सुनाकर सांत्वना देओ ॥123॥ कुमार ने इस प्रकार की आज्ञा देकर जिसे छोड़ा था ऐसी वृद्धा स्त्री ने तथास्तु कहकर उन्हें आशीर्वाद दिया और मनोरथरूपी रथ पर आरूढ़ हो जाकर कन्या को सांत्वना दी ॥124 ॥
तदनंतर किसी समय वसुदेव, मेघों द्वारा छोड़े हुए नूतन जल से स्नान कर कांता गांधर्वसेना के साथ उसके स्तनों का गाढ़ा लिंगन करते हुए शयन कर रहे थे ॥125॥ कि एक भयंकर आकार वाली वेताल-कन्या ने आकर उनका हाथ खींचा । वे जाग तो गये पर यह नहीं समझ सके कि इस समय क्या करना चाहिए फिर भी दृढ़ मुठ्ठियों वाली भुजा से उन्होंने उसे खूब पीटा ॥126 ॥ इतना होने पर भी दुष्ट मनुष्य की आकृति को धारण करने वाली वह कन्या उन्हें मजबूत पकड़कर रात्रि के समय गली के मार्ग से श्मशान ले गयी ॥127 ॥ हृदय की चेष्टाओं को जानने वाले कुमार ने वहाँ भ्रमरी के समान काली-काली मातंगियों से युक्त एक मातंगी को देखा । उस मातंगी ने हंसकर कुमार से कहा कि आइए आपके लिए स्वागत है । यह कहकर वेताल विद्याओं से उसने इनका अभिषेक कराया और उसके बाद वह हँसती हुई अंतर्हित हो गयी ॥ 128-129 ॥ तदनंतर उसने असलीरूप में प्रकट होकर कहा कि कुमार, मुझे मातंगी मत समझो, मैं हिरण्यवती हूँ । मैंने कार्य सिद्ध करने के लिए मातंग विद्या के प्रभाव से यह वेष रखा था ॥ 130॥ यह कहकर उसने पास में बैठी नीलयशा की ओर संकेत कर कहा कि देखो यह बाला वही नीलयशा है जो हृदय को चुराने वाले आपको न पाकर मुरझा गयी है । यह बाला आपको अपने बाहुपाश से बांधना चाहती है, आपका आलिंगन करना चाहती है ॥ 131॥ कुमार से इतना कहकर हिरण्यवती ने पास में बैठी हुई नीलयशा से भी कहा कि यही तेरा वह स्वामी है अपने हाथ से इसके हस्तपल्लव का स्पर्श कर ॥132 ॥ इस प्रकार हिरण्यवती की आज्ञा पाकर कुमारी नीलयशा ने कुमार वसुदेव के फैलाये हुए हाथ को अपने हाथ से पकड़ लिया । उस समय एक दूसरे के स्पर्श से दोनों के शरीर से पसीना छूट रहा था ॥133 ॥ उन दोनों का प्रेमरूपी वृक्ष शरीर के स्पर्शजन्य सुखरूपी जल से सींचा गया था इसलिए वह रोमांच के बहाने कठोर अंकुरों को प्रकट कर रहा था ॥134॥ वे दोनों ही स्नेह से आर्द्र चित्त थे इसलिए उनका प्रथम पाणिग्रहण उसी समय हो गया था और व्यावहारिक पाणि ग्रहण पीछे होगा ॥ 135 ॥
तदनंतर हर्ष से भरा विद्याधरियों का समस्त समूह शीघ्र ही कुमार वसुदेव के साथ आकाश में उड़कर उत्तर दिशा की ओर चल दिया ॥136॥ आभूषण तथा औषधियों की प्रभा से अंधकार की संतति को नष्ट करता हुआ वह विद्याधरियों का समूह आकाश में बिजलियों के समूह के समान सुशोभित हो रहा था ॥137॥ उस समय जिस प्रकार कुमार वसुदेव ने हाथ के स्पर्श मात्र से नीलयशा के मुख को प्रभा से उज्ज्वल कर दिया था उसी प्रकार सूर्य ने भी अपनी किरणों के स्पर्श मात्र से पूर्व दिशारूपी स्त्री के मुख की प्रभा से उज्ज्वल कर दिया था ॥138 ॥ उस समय पूर्व दिशा के अग्रभाग में आधा उदित हुआ लाल-लाल सूर्य ऐसा जान पड़ता था मानो दिवसरूपी युवा के द्वारा आधा डसा हुआ पूर्व दिशारूपी स्त्री का लाल अधर ही हो ॥139॥ थोड़ी देर बाद जब सूर्यमंडल पूर्ण उदित हो गया तब ऐसा जान पड़ने लगा मानो पूर्व दिशारूपी स्त्री के मुखमंडल को अलंकृत करने वाला सुवर्णमय कानों का कुंडल ही हो ॥140 ॥ कुमार वसुदेव के समान संसार को प्रकाशित करने वाले सूर्य ने जब शीघ्र ही आकाश और पृथिवी को स्पष्ट कर दिया तथा उनकी ओर शीघ्र ही दृष्टि का प्रसार होने लगा ॥141॥ तब हिरण्यवती ने वसुदेव से कहा कि हे कुमार ! नीचे पृथिवी पर महावन के वृक्षों से घिरे हुए जिस उन्नत पर्वत को देख रहे हो उस शोभा संपन्न पर्वत को लोग ह्रीमंत गिरि कहते हैं । यह पर्वत लज्जा से युक्त मनुष्य को भी तपरूपी लक्ष्मी से युक्त कर देता है ॥142-143 ॥ यहाँ अशनिवेग की पुत्री श्यामा ने युद्ध में जिसकी विद्या खंडित कर दी थी ऐसा अंगारक नाम का विद्याधर विद्या सिद्ध करने के लिए स्थित है । आपके दर्शन से इसे शीघ्र विद्या सिद्ध हो जावेगी इसलिए यदि इसका उपकार करने की आपकी इच्छा है तो इसे अपना दर्शन दें ॥144-145॥ हिरण्यवती के इस प्रकार कहने पर प्रियतमा श्यामा के कुशल समाचार जानकर कुमार बहुत संतुष्ट हुए और कहने लगे कि अंगारक तो हमारा शत्रु है इसको देखने से क्या लाभ है ? ॥146 ॥ इस पर्वत पर की हुई समय को बिताने वाली व्यर्थ की क्रीड़ाओं से मुझे क्या प्रयोजन है ? यदि तुम्हें रहना इष्ट है तो रहो मैं तो जाता हूँ और श्वसुर के नगर को देखता हूँ ॥147॥ कुमार के ऐसा कहने पर हिरण्यवती ने एवमस्तु कहा अर्थात् जैसा आप चाहते हैं वैसा ही करती हूँ । यह कह उसने असितपर्वत नगर ले जाकर उन्हें नगर के बाहर एक सुंदर उद्यान में ठहरा दिया तथा रक्षा के लिए विद्याधरियों को नियुक्त कर दिया ॥ 148 ॥
कुमारी नीलयशा प्रसन्नचित्त हो अपने नगर में प्रविष्ट हुई और कुमार के समागम की आकांक्षा तथा उन्हीं की कथा करती हुई रहने लगी ॥149 ॥ तदनंतर बड़े वैभव के साथ जिन्हें स्नान कराया गया था तथा उत्तमोत्तम आभूषण पहनाये गये थे ऐसे वीर कुमार वसुदेव को रथ पर बैठाकर विद्याधरों ने स्वर्ग तुल्य नगर में प्रविष्ट कराया ॥150॥ वहाँ कुमार का मनोहर रूप देख देखकर जिसके नेत्र तृप्त नहीं हो रहे थे ऐसे नीलयशा के पिता सिंहदंष्ट्रा तथा संतोष से युक्त अंतः पुर को आदि लेकर समस्त लोगों ने बड़े वैभव के साथ श्रीमान् वसुदेव को देखा ॥151॥ तदनंतर जो पुण्य से परिपूर्ण थे और जिनका रूप चरम सीमा को प्राप्त था ऐसे कुमार वसुदेव और नीलयशा का पाणिग्रहण मंगल किसी पवित्र दिन विधिपूर्वक संपन्न हुआ ॥152॥ तत्पश्चात् जिस प्रकार कामदेव अपनी स्त्री रति के साथ इच्छानुसार भोगों का सेवन करता है उसी प्रकार कुमार वसुदेव असितपर्वत नगर में नीलयशा के साथ इच्छानुसार भोगों का सेवन करने लगे ॥153॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि चूंकि वहाँ की स्त्रियां अपने गुणों से नीलयशा के यश को मलिन नहीं कर सकी थीं और न विद्याधर ही पराक्रमी वसुदेव के यश को कलंकित कर सके थे इसलिए वहाँ प्रेम पूर्वक रहने वाले वसुदेव और नीलयशा को जो सुख उपलब्ध था उसका संपूर्ण रूप से वर्णन करने के लिए जिन प्रवचन का ज्ञाता श्रुतकेवली ही समर्थ हो सकता है ॥154꠰꠰
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणसंग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में नीलयशा के लाभ का वर्णन करने वाला बाईसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥22॥