ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 27
From जैनकोष
अथानंतर इसी बीच में निश्चिंतता से बैठे हुए राजा श्रेणिक ने गौतम स्वामी से पूछा कि हे मुनिनाथ ! विद्युद्ंष्ट्र कौन था ? और उसका आचरण कैसा था ? ॥1॥ इस प्रकार पूछने पर गौतम स्वामी कहने लगे कि नमि के वंश में गगनवल्लभ नामक नगर में एक विद्युदंष्ट्र नाम का विद्याधर हो गया है जो दोनों श्रेणियों का स्वामी था तथा अद्भुत पराक्रम से युक्त था ॥2॥ एक समय वह पश्चिम विदेहक्षेत्र से संजयंत नामक मुनिराज को अपने यहाँ उठा लाया और उन पर उसने घोर उपसर्ग कराया ॥3॥ यह सुन राजा श्रेणिक ने कौतुकवश फिर पूछा कि हे नाथ ! विद्युद्रंष्ट ने संजयंत मुनिराज पर किस कारण उपसर्ग कराया था ? इसके उत्तर में गणधर भगवान् सजयंत मुनि का पापनाशक पुराण इस प्रकार कहने लगे ॥4॥
हे राजन् ! इसी जंबू द्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में एक गंधमालिनी नाम का देश है । उसमें वीतशोका नाम की नगरी है । उस नगरी में किसी समय वैजयंत नाम का राजा राज्य करता था ॥ 5 ॥ उसकी सर्वश्री नाम की रानी थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानो शरीर को धारण करने वाली साक्षात् लक्ष्मी हो । इन दोनों के संजयंत और जयंत नाम के दो उत्तम पुत्र थे ॥6॥ किसी एक समय विहार करते हुए स्वयंभू तीर्थंकर वहाँ आये । उनसे धर्म श्रवण कर पिता और दोनों पुत्र-तीनों ने दीक्षा धारण कर ली ॥ 7 ॥ अपने पिहितास्रव नामक आचार्य के साथ वे तीनों मुनि विहार करते थे । कदाचित् घातिया कर्मों को नष्ट करने वाल वैजयंत मुनि का केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ॥8॥ केवलज्ञान के उत्सव में जब चारों निकाय के देव मुनिराज वैजयंत की वंदना कर रहे थे तब धरणेंद्र को देख जयंत मुनि ने धरणेंद्र होने का निदान किया और उसके फलस्वरूप वे मरकर धरणेंद्र हो भी गये ॥9॥ किसी समय जयंत के बड़े भाई संजयंत मुनिराज अपनी वीतशोका नामक सुंदर नगरी के भीमदर्शन-भयंकर श्मशान में सात दिन का प्रतिमा योग लेकर विराजमान थे ॥10॥ उसी समय विद्युदृंष्ट, भद्रशाल वन में अपनी स्त्रियों के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा कर अपने नगर को ओर लौट रहा था कि अचानक उसकी दृष्टि संजयंत मुनिराज पर पड़ी ॥ 11 ॥ पूर्व वैर के कारण कुपित हो वह उन्हें उठा लाया और भरत क्षेत्र संबंधी विजयार्ध पर्वत के दक्षिण भाग के समीप वरुण नामक पर्वतपर उन्हें ले गया ॥12॥ हरिद्वती, चंडवेगा, गजवती, कुसुमवती और सूवर्णवती इन पाँच नदियों का जहाँ समागम हआ है वहाँ सायंकाल के समय उन्हें रखकर चला गया और प्रातःकाल उसने विद्याधरों को यह कहकर क्षुभित कर दिया कि आज रात्रि को मैंने स्वप्न में एक महाकाय राक्षस देखा है । वह राक्षस हम लोगों का क्षय करने वाला होगा । इसलिए हे विद्याधरो ! चलो उसे शीघ्र ही मार डालें ॥13-15 ॥ इस प्रकार विद्याधरों को प्रेरित कर उसने नाना प्रकार के शस्त्र धारण करने वाले विद्याधरों के साथ उन्हें मार डाला । मुनिराज संजयंत भी अंतिम समय केवलज्ञान प्राप्त कर श्री शीतलनाथ भगवान् के शांतिदायक तीर्थ में निर्वाण को प्राप्त हुए ॥16॥ तदनंतर उनके शरीर की पूजा के लिए जयंत का जीव-धरणेंद्र आया सो विद्युदृंष्ट्र की इस करतूत से वह बहुत ही रुष्ट हुआ । वह विद्युदृंष्ट्र की समस्त विद्याओं को हरकर उसे मारने के लिए उद्यत हुआ ही था कि उसी समय आदित्याभ दिवाकर देव नामक लांतवेंद्र ने वहाँ आकर हे धरणेंद्र, ! हे फणींद्र ! व्यर्थ हो जीव हिंसा न करो इन शब्दों द्वारा उसे हिंसा से रोक दिया ॥17-18॥ तुम, मैं, यह विद्याधरों का राजा विद्युदृंष्ट्र और संजयंत इस प्रकार हम सब वैर बांधकर संसार में जिस तरह भटकते रहे हैं वह मैं कहता हूँ सो सुनो ॥19॥
इसी भरत क्षेत्र में एक शकट नाम का देश है । उसके सिंहपुर नगर में किसी समय सिंहसेन नाम का राजा राज्य करता था ॥20॥ सिंहसेन की कला और गुणरूपी आभूषणों से सुशोभित रामदत्ता नाम की स्त्री थी तथा निपुणमति नाम की एक धाय थी जो निपुण मनुष्यों में भी अतिशय निपुण थी ॥21॥ राजा का एक श्रीभूति नाम का पुरोहित था जो अपने को सत्यवादी प्रकट करता था तथा लोक में अलुब्ध-निर्लोभ है इस तरह प्रसिद्ध था । उसकी ब्राह्मणी का नाम श्रीदत्ता था ॥22॥ वह श्रीभूति नगर की समस्त दिशाओं में भांडशालाएँ― धरोहर रखने के स्थान बनवा कर व्यापारी वर्ग का बहुत विश्वासपात्र बन गया था ॥ 23 ॥ उसी समय पद्मखंड नामक नगर में एक सुमित्रदत्त नामक वणिक् रहता था । वह किसी समय अपने पांच रत्न श्रीभूति पुरोहित के पास रखकर तृष्णावश जहाज द्वारा कहीं गया था ॥24॥ भाग्यवश उसका जहाज फट गया ꠰ लौटकर उसने पुरोहित से अपने रत्न मांगे परंतु प्राप्त नहीं कर सका । राजद्वार में उसने प्रार्थना की परंतु पुरोहित को प्रमाण मानने वाले राज-कर्मचारियों ने उसे तिरस्कृत कर भगा दिया ॥25॥ अंत में बदले को आशा से जिसका चित्त जल रहा था ऐसा सुमित्रदत्त वणिक् राजमहल के समीप एक ऊंचे वृक्ष पर चढ़कर प्रतिदिन यह कहता हुआ रोने लगा कि महाराज सिंहसेन, दयावती रानी रामदत्ता तथा अन्य सज्जन पुरुष दया युक्त हो मेरी प्रार्थना सुनें । मैंने अमुक मास और पक्ष के अमुक दिन श्रीभूति पुरोहित को सत्यवादिता से प्रभावित होकर उसके हाथ में इस-इस प्रकार के पांच रत्न रखे थे परंतु इस समय वह अत्यंत लुब्ध होकर मेरे वह रत्न देना नहीं चाहता है । इस प्रकार प्रतिदिन प्रातःकाल के समय रोकर वह यथास्थान चला जाता था ॥ 26-29॥ इस प्रकार उसे रोते-रोते जब बहुत महीने बीत गये तब एक दिन प्रिया रामदत्ता ने रात्रि के समय राजा से कहा कि हे राजन् ! यह बड़ा अन्याय है । लोक में बलवान् और दुर्बल सभी होते हैं तो क्या बलवानों के हाथ से दुर्बल मनुष्य जीवित नहीं रह सकते ? ॥30-31 ॥ इस बेचारे दुर्बल के रत्न अतिशय बलवान् पुरोहित ने हड़प लिये हैं । इसलिए हे प्रभो! यदि इस पर आपको दया आती है तो इसके रत्न दिलाये जावें ॥32॥ राजा ने कहा कि हे प्रिये ! समुद्र में इसका जहाज फट गया था, इसलिए यह निर्लज्ज धन नष्ट हो जाने के कारण अतिशय दुःखी हो पिशाच से आक्रांत हो गया है और उसी दशा में कुछ बकता रहता है ॥33॥ इस प्रकार राजा का उत्तर पाकर रामदत्ता ने कहा कि हे राजन् ! यह धनरूपी पिशाच से आक्रांत नहीं है क्योंकि यह प्रतिदिन एक ही बात कहता है अतः इसको परीक्षा की जाये ॥34॥ यह सुनकर राजा ने प्रातःकाल एकांत में पुरोहित से पूछा परंतु वह द्रोही सर्वथा मेंट गया सो ठीक ही है क्योंकि लोभी मनुष्य के सत्यता कैसे हो सकती है ? ॥35॥ तदनंतर राजा जुआ के छल से ही पुरोहित को परीक्षा करने के लिए उद्यत हुआ । रानी रामदत्ता ने जुआ खेलने के पूर्व ही किसी बहाने पुरोहित से पूछ लिया था कि आज आपने रात्रि में क्या भोजन किया था ? ॥36॥ रानी रामदत्ता को आज्ञा पाकर निपुणमति धाय ने जाकर पुरोहित की स्त्री से रत्न मांगे और पहचान के लिए रात्रि के भोजन की बात बतायी परंतु पुरोहित को स्त्री ने रत्न नहीं दिये ॥37॥ अब की बार जुआ में जीता हुआ जनेऊ ले जाकर निपुणमति ने पुरोहित की स्त्री से रत्न मांगे परंतु फिर भी वह उन्हें प्राप्त नहीं कर सकी सो ठीक ही है क्योंकि उसके लिए पति की आज्ञा ही वैसी थी ॥38॥ तीसरी बार पति के नाम से चिह्नित अंगूठी देखकर पुरोहित की स्त्री ने वे रत्न दे दिये । उसी समय रानी रामदत्ता को आज्ञानुसार जुआ बंद कर दिया गया ॥39 ॥ यद्यपि राजा ने वणिक् के उन रत्नों को दूसरे के रत्नों के साथ मिलाकर दिया था तथापि वणिक् ने अपने ही रत्न पहचान कर उठा लिये और इस सच्चाई के कारण राजा से सम्मान को भी प्राप्त किया ॥40॥ दूसरे का धन हरण करने में प्रीति का अनुभव करने वाले पुरोहित का सब धन छीन लिया गया, उसे गोबर खिलाया गया और मल्लों के मुक्कों से पिटवाया गया जिससे वह मर गया ॥41॥ चूंकि वह धन के आर्तध्यान से कलुषित चित्त होकर मरा था इसलिए राजा के भंडारगृह में अगंधन नाम का साँप हुआ और अपनी दुष्टता के कारण राजा से सदा द्रोह रखने लगा ॥42॥ श्रीभूति पुरोहित के स्थान पर धम्मिल्ल नामक दूसरा ब्राह्मण रखा गया परंतु वह भी मिथ्यादृष्टि था और प्रायः नहीं कहे कार्य को करने के लिए उद्यत रहता था ॥ 43 ॥ सुमित्रदत्त वणिक रत्न लेकर अपने पद्मखंडपुर नगर को चला गया । यद्यपि वह जैन था― जैनधर्म के स्वरूप को समझता था तथापि मैं रानी रामदत्ता का पुत्र होऊँ ऐसा उसने निदान बाँध लिया और इसी इच्छा से वह खूब दान करने लगा ॥44॥ वणिक की स्त्री सुमित्रदत्तिका, जो सदा उससे विरोध रखती थी मरकर एक पर्वत पर व्याघ्री हुई । एक दिन सुमित्रदत्त किन्हीं मुनिराज को वंदना के लिए उसी पर्वतपर गया था सो उस व्याघ्री ने उसे खा लिया ॥45 ॥ मरकर वह रामदत्ता का पुत्र हुआ । यद्यपि वह अपने पुण्य बल से इंद्र हो सकता था तथापि निदान के द्वारा इंद्रत्व की उपेक्षा कर राजपुत्र ही हुआ । उसका सिंहचंद्र नाम रखा गया तथा वह रामदत्ता के स्नेह-बंधन से युक्त था― उसे अतिशय प्यारा था ॥46॥ सिंहचंद्र के, इंद्र के समान आभा वाला पूर्णचंद्र नाम का एक छोटा भाई भी हुआ । ये दोनों भाई पृथिवी पर सूर्य-चंद्रमा के समान प्रसिद्ध थे ॥47॥ एक समय राजा सिंहसेन कार्यवश भांडागार में प्रविष्ट हुए सो वहाँ पूर्व वैर के कारण पुरोहित के जोव अगंधन नामक दुष्ट सांप ने उन्हें काट खाया ॥48॥ उसी नगर में एक गारुडिक विद्या (सर्प उतारने की विद्या) का अच्छा जानकार गरुडदंड रहता था । उसने मंत्रों द्वारा अगंधन को आदि लेकर समस्त सर्पो को बुलाकर उनसे कहा कि तुम लोगों में जो एक अपराधी सर्प है वही यहाँ ठहरे, बाकी सब यथास्थान चले जावें । गरुडदंड के ऐसा कहने पर राजा को काटने वाला अगंधन सर्प रह गया बाकी सब चले गये ॥49-50॥ गरुडदंड ने उसे ललकारते हुए कहा कि अरे दुष्ट ! अपने द्वारा छोड़े हुए विष को शीघ्र ही खींच और यदि खींचने की इच्छा नहीं है तो शीघ्र ही अग्नि में प्रवेश कर ॥51 ॥ गरुडदंड के इस प्रकार कहने पर उस अगंधन सर्प ने क्रोध के कारण विष तो नहीं खींचा पर जलती हई अग्नि में प्रवेश कर मरणं स्वीकार कर लिया और मरकर वह चमरी मृग हुआ ॥52॥ विष के वेग से मरकर राजा सल्लकी वन में हाथी हुआ और जिसे श्रीभूति के स्थानपर रखा गया था वह धम्मिल्ल मरकर उसी वन में वानर हुआ सो ठीक ही है क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवों की और गति हो ही क्या सकती है ? ॥ 53 ॥ रामदत्ता के सिंहचंद्र और पूर्णचंद्र नामक दोनों नीतिज्ञ एवं सामर्थ्यवान् पुत्र क्रम से राजा और युवराज बनकर समुद्रांत पृथिवी का पालन करने लगे ॥54॥
पोदनपुर नगर में जो राजा पूर्णचंद्र और रानी हिरण्यवती थी वे रानी रामदत्ता के माता पिता थे और वे दोनों ही जिनशासन को भावना से युक्त थे ॥55॥ एक बार रामदत्ता के पिता पूर्णचंद्र ने राहुभद्र मुनि के समीप दीक्षा ले अवधिज्ञान प्राप्त किया और माता हिरण्यवती ने दत्तवती आर्यिका के समीप दीक्षा ले आर्यिका के व्रत धारण कर लिये ॥56 ॥ कदाचित् रामदत्ता की माता हिरण्यवती आर्यिका ने अवधिज्ञानी पूर्णचंद्र मुनि से रामदत्ता का सब समाचार सुना और जाकर उसे संबोधित किया-समझाया ॥57॥ माता के मुख से उपदेश श्रवण कर रामदत्ता संसार से भयभीत हो उठी जिससे उसने उसी समय दीक्षा ले ली । हिरण्यवती ने रामदत्ता के पुत्र सिंहचंद्र को भी समझाया जिससे उसने भी राहुभद्र गुरु के समीप दीक्षा ले ली ॥58॥ सिंहचंद्र के बाद प्रताप के द्वारा शत्रुओं को नम्रीभूत करने वाला युवराज पूर्णचंद्र राज्य-सिंहासन पर आरूढ़ हुआ परंतु वह सम्यग्दर्शन और व्रत से रहित होने के कारण भोगों में आसक्त हो गया ॥ 59 ॥ एक बार आर्यिका रामदत्ता ने अवधिज्ञानी एवं चारण ऋद्धि के धारक सिंहचंद्र मुनि को नमस्कार कर उनसे अपना, अपनी माता का तथा अपने पुत्रों का पूर्वभव पूछा ॥60॥
इसके उत्तर में मुनिराज कहने लगे कि इसी भरतक्षेत्र के कोसलदेश में एक वर्धकि नाम का ग्राम था और उसमें मृगायण नाम का एक ब्राह्मण रहता था ॥61 ॥ ब्राह्मण की ब्राह्मणी का नाम मधुरा था जो न केवल नाम से ही मधुरा थी किंतु स्वभाव से भी मधुरा थी । उन दोनों के एक वारुणी नाम की पुत्री थी जो तरुण मनुष्यों के लिए वारुणी― मदिरा के समान मद उत्पन्न करने वाली थी ॥62 ॥ मृगायण मरकर साकेतनगर में राजा अतिबल और उसकी रानी श्रीमती के तुम्हारी मां हिरण्यवती हुआ है ॥63॥ उसकी मधुरा ब्राह्मणी तू रामदत्ता हुई है, वारुणी का जीव तेरा छोटा पुत्र पूर्णचंद्र हुआ है, और वणिक सुमित्रदत्त का जीव मैं तेरा सिंहचंद्र नाम का पुत्र हुआ हूँ ॥64॥ पिता सिंहसेन को श्रीभूति के जीव अगंधन सर्प ने डंस लिया था इसलिए मरकर वे हाथी हुए थे । मैंने उन्हें हाथी की पर्याय में श्रावक का धर्मधारण कराया था ॥65॥ श्रीभूति पुरोहित का जीव साँप हुआ था फिर चमरी मृग हुआ । तदनंतर चमर मृग के लिए आतुर होता हुआ मरकर रूखे पंखों को धारण करने वाला दुष्ट कुक्कुट सर्प हुआ ॥66॥ पिता का जीव जो हाथी हुआ था वह उपवास का व्रत लेकर शिथिल पडा हुआ था और उसका सब मद सूख गया था उसी दशा में पुरोहित के जीव कुक्कुट सर्प ने उसे डंस लिया जिससे वह अच्छे परिणामों से मरकर सहस्रार स्वर्ग गया ॥67 ॥ वह वहाँ श्रीप्रभ नामक विमान में लक्ष्मी को धारण करने वाला श्रीधर नाम का देव हुआ है और इस समय धर्म के प्रभाव से भोगों से युक्त हो अप्सराओं के साथ रमण कर रहा है ॥68॥ धम्मिल्ल का जीव जो मर्कट हुआ था उसने हाथी का घात करने वाले कुक्कुट सर्प को क्रोधवश मार डाला जिससे वह मरकर बालुकाप्रभा नामक तीसरे नरक में गया ॥69॥ किसी शृंगालदत्त नामक भील ने उस हाथी के दांत, हड्डी और मोती इकट्ठे कर धनमित्र सेठ के लिए दिये और धनमित्र ने राजा पूर्णचंद्र के लिए समर्पित किये ॥70॥ राजा पूर्णचंद्र उन्हें पाकर बहुत संतुष्ट हुआ । उसने दाँतों की हड्डियों से सिंहासन बनवाया है और मोतियों से बड़ा हार तैयार करवाया है । इस समय वह उसी सिंहासन पर बैठता है और उसी हार को धारण करता है ॥71॥ अहो ! मोही प्राणियों की संसार की विचित्रता तो देखो कि जहाँ अन्य प्राणियों के अंग के समान पिता के अंग भी भोग के साधन हो जाते हैं ॥72 ॥ मुनिराज सिंहचंद्र के वचन सुनकर आर्यिका रामदत्ता ने जाकर प्रमाद में डूबे पूर्णचंद्र को वह सब बताकर अच्छी तरह समझाया ॥ 73 ॥ जिससे वह दान, पूजा, तप, शील और सम्यक्त्व का अच्छी तरह पालन कर उसी सहस्रार स्वर्ग के वैडूर्यप्रभ नामक विमान में देव हुआ ॥74॥ रामदत्ता भी सम्यग्दर्शन के प्रभाव से स्त्री पर्याय को छोड़कर उसी सहस्रार स्वर्ग के प्रभंकर नामक विमान में सूर्यप्रभ नाम का देव हुई ॥75॥ और सिंहचंद्र मुनि भी अच्छी तरह चार आराधनाओं की आराधना कर प्रीतिकर नामक ग्रैवेयक में अहमिंद्र हुए ॥76॥ रामदत्ता का जीव जो सूर्यप्रभ देव हुआ था वहाँ उसका सम्यग्दर्शन छूट गया था इसलिए आयु पूर्ण होने पर वहाँ से च्युत हो वह विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी पर जो धरणीतिलक नाम का नगर है उसके राजा अतिबल की सुलक्षणा नामक महादेवी के श्रीधरा नाम की पुत्री हुआ ॥ 77-78॥ श्रीधरा, अलका नगरी के स्वामी राजा सुदर्शन को दी गयी और उसके पूर्णचंद्र का जीव जो वैडूर्यप्रभ विमान का स्वामी था वहाँ से चयकर यशोधरा नाम की पुत्री हुआ ॥79॥ यशोधरा, उत्तर श्रेणी पर स्थित प्रभाकरपुर के स्वामी राजा सूर्यावर्त के लिए दी गयी और उसके राजा सिंहसेन का जीव जो श्रीधर देव हुआ था वह वहाँ से चयकर रश्मिवेग नाम का पुत्र हुआ ॥80॥ तदनंतर जब राजा सूर्यावर्त मोक्ष की अभिलाषा से उस रश्मिवेग पुत्र के लिए राज्य देकर मुनिचंद्र गुरु के समीप तप करने लगा तब श्रीधरा और यशोधरा ने भी सम्यग्दर्शन से शुद्ध हो गुणवती आर्यिका के पास दीक्षा ले ली ॥81-82 ॥ एक समय रश्मिवेग वंदना करने की इच्छा से सिद्धकूट गया था कि वहाँ हरिचंद्र मुनि से धर्म श्रवण कर मुनि हो गया ॥83॥ एक दिन महामुनि रश्मिवेग, कांचन नामक गुहा में स्वाध्याय करते हुए विराजमान थे कि श्रीधरा और यशोधरा नाम की आर्यिकाएं उनकी वंदना के लिए वहाँ गयीं ॥84॥ श्रीभूति पुरोहित का जीव जो बालुकाप्रभा पृथिवी में नारकी हुआ था वह चिरकाल के बाद वहाँ से निकलकर तथा संसार में परिभ्रमण कर उसी गुहा में अजगर हुआ था ॥85॥ उपसर्ग आया देख मुनि रश्मिवेग कायोत्सर्ग में स्थित हो गये और दोनों आर्यिकाओं ने भी सावधिक संन्यास ले लिया । विशाल उदर का धारक वह अजगर उन तीनों को निगल गया ॥86 ॥ रश्मिवेग मरकर कापिष्ठ स्वर्ग में उत्तम बुद्धि के धारक अर्कप्रभ देव हुए और दोनों आर्यिकाएं भी उसी स्वर्ग के रुचक विमान में देव हुई ॥87॥ जिसका हृदय रौद्रध्यान से दूषित था ऐसा महाशत्रु अजगर पापरूपी पंक से कलंकित हो मरकर पंकप्रभा नामक चौथी पृथिवी में उत्पन्न हुआ ॥88॥ सिंहचंद्र का जीव जो प्रीतिकर विमान का स्वामी था वह वहाँ से च्युत हो चक्रपुर नामक नगर के राजा अपराजित और रानी सुंदरी के चक्रायुध नाम का पुत्र हुआ । चक्रायुध की स्त्री चित्रमाला थी और उसके मुनि रश्मिवेग का जीव (रानी रामदत्ता का पति राजा सिंहसेन का जीव) अकंप्रभ देव का पिष्ठ स्वर्ग से च्युत हो वज्रायुध नाम का पुत्र हुआ ॥89-90॥ श्रीधरा आर्यिका का जीव जो कापिष्ठ स्वर्ग में देव हुआ था, वहाँ से च्युत हो पृथिवी तिलक नगर में राजा प्रियंकर और अतिवेगा रानी के रत्नमाला नाम की पुत्री हुआ ॥91॥ रत्नमाला वज्रायुध के लिए दी गयी और उसके आर्यिका यशोधरा का जीव जो कापिष्ठ स्वर्ग में देव हुआ था वहाँ से च्युत हो पूर्व पुण्य के उदय से रत्नायुध नाम का पुत्र हुआ ॥92॥ चक्रायुध, वज्रायुध पुत्र के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर पिहितास्रव मुनि के पादमूल में तप करने लगा और अंत में निर्वाण को प्राप्त हुआ ॥93॥ राजा वज्रायुध ने भी राज्य का भार रत्नायुध पुत्र के लिए सौंपकर तप धारणकर लिया । परंतु रत्नायुध राज्य के मद से उन्मत्त हो मिथ्यादृष्टि हो गया ॥94॥ राजा रत्नायुध का एक मेघनिनाद नाम का मुख्य हस्ती था । एक समय वह जलावगाहन के लिए गया था परंतु बीच में मुनिराज का दर्शन होने से उसे जाति स्मरण हो गया जिससे उसने पानी नहीं पिया ॥95॥ राजा रत्नायुध मेघनिनाद के इस कार्य को नहीं समझ सका इसलिए उसने वज्रदत्त नामक मुनिराज से इसका कारण पूछा । उत्तर में मुनिराज कहने लगे ॥96॥ इसी भरत क्षेत्र के चित्रकारपुर में एक प्रीतिभद्र नाम का राजा रहता था । उसकी सुंदरी नाम की स्त्री थी और दोनों के प्रीतिकर नाम का पुत्र था ॥97॥ राजा प्रीतिभद्र का एक चित्रबुद्धि नाम का मंत्री था । मंत्री की स्त्री का नाम कमला था और दोनों के विचित्रमति नाम का नीतिवेत्ता पुत्र था ॥ 98॥ राजपुत्र प्रीतिकर और मंत्रि पुत्र विचित्रमति दोनों ने एक बार श्रुतसागर मुनि से तप का फल सुना और दोनों ही युवावस्था में उनके चरणों के समीप रहकर तप करने लगे ॥99॥ जो देखने में बहुत सुंदर थे और नाना प्रकार का तपश्चरण ही जिनका धन था ऐसे वे दोनों मुनि एक समय सिद्ध क्षेत्रों के दर्शन करते हुए साकेत नगर पहुँचे ॥100॥ साकेतनगर में एक बुद्धिसेना नाम की वेश्या बहुत सुंदरी थी । उसे देखकर मंत्रि पुत्र विचित्रमति कर्मोदय के कारण मुनिपद से भ्रष्ट हो गया और उसने निर्लज्ज हो मुनिपद छोड़ दिया ॥101॥ विचित्रमति, मुनिपद से भ्रष्ट हो राजा गंधमित्र का रसोइया बन गया । वह मांस बनाने में अत्यंत निपुण था । इसलिए अपनी कला से राजा को प्रसन्न कर उसने वर स्वरूप वह वेश्या प्राप्त कर ली ॥102॥ जिसकी आत्मा समस्त पापों से अविरत थी-जिसे किसी भी पाप के करने में संकोच नहीं था तथा जो मांस खाने का प्रेमी हो चुका था ऐसा विचित्रमति उस वेश्या के साथ इच्छानुसार भोग भोगकर मरा और मरकर सातवें नरक गया ॥103 ॥ वहाँ से निकलकर इस असार संसार में भटकता रहा । अब किसी पाप विशेष के कारण आपका हिंसा शील मदोन्मत्त हाथी हुआ है ॥104॥ मुनिराज के दर्शन का योग पाकर यह जाति-स्मरण को प्राप्त हुआ है और इसीलिए संसार में मंद रुचि हो अपने कार्य को निंदा करता हुआ शांत हो गया है ॥ 105॥ वज्रदत्त मुनिराज के उक्त वचन सुनकर वह मेघनिनाद हाथी और राजा रत्नायुध दोनों ही मिथ्यात्वरूपी कलंक को छोड़ श्रावक के व्रत से युक्त हो गये ॥106॥ श्रीभूति पुरोहित का जीव, जो अजगर पर्याय से पंकप्रभा पृथिवी में गया था वह वहाँ से निकलकर मंगी और दारुण नामक भील-भीलनी के नाम और कार्य दोनों से ही अतिदारुण पुत्र हुआ । भावार्थ― उस पुत्र का नाम अतिदारुण था और उसका काम भी अति दारुण-अत्यंत कठोर था ॥ 107॥ एक दिन राजा सिंहसेन के जीव वज्रायुध महामुनि प्रियंगुखंड नामक वन में ध्यानारूढ़ थे कि उस अतिदारुण भील ने उन्हें मार डाला । महामुनि मरकर सर्वार्थसिद्धि गये और वह अतिदारुण भील मरकर महातमःप्रभा नामक सातवीं पृथिवी में गया जहाँ मुनि वध से उत्पन्न घोर दुःख उसे भोगना पड़ा ॥108-109 ॥ रत्नमाला, मर कर श्रावक धर्म के प्रभाव से अच्युत स्वर्ग में देव हुई तथा रत्नायुध भी उसी स्वर्ग में उत्तम देव हुआ ॥110॥ धातकीखंड द्वीप में पूर्व मेरु के पश्चिम विदेह में एक गंधिला नाम का देश है । उसकी अयोध्या नगरी में राजा अर्हद्दास राज्य करते थे । उनकी सुव्रता और जिनदत्ता नाम की दो रानियाँ थीं । रत्नमाला और रत्नायुध के जीव जो अच्युत स्वर्ग में देव हुए थे वहाँ से च्युत हो उन्हीं दोनों रानियों के क्रम से वीतभय नामक बलभद्र और विभीषण नामक नारायण हुए ॥111-112 ॥ इनमें विभीषण तो आयु का अंत होने पर रत्नप्रभा नामक पहली पृथिवी में उत्पन्न हुआ और वीतभय अनिवृत्ति मुनि के समीप तप कर आदित्याभ नाम का लांतवेंद्र हुआ । वह लांतवेंद्र मैं ही हूँ । मैंने रत्नप्रभा पृथिवी में जाकर विभीषण के जीव नार की को अच्छी तरह समझाया ॥113-114 ॥ तदनंतर इसी जंबू द्वीप के विदेह क्षेत्र में जो गंधमालिनी नाम का देश है उसमें विद्याधरों के मनोहर-मनोहर निवासों से युक्त एक अतिशय सुंदर विजयार्ध पर्वत है । उसी विजयार्ध पर श्रीधर्म राजा और श्रीदत्ता नाम की रानी रहती थी । विभीषण का जीव नारकी, नरक से निकलकर इन्हीं दोनों के श्रीदाम नाम का पुत्र हुआ । यह श्रीदाम मुझे एक बार सुमेरु पर्वतपर मिला तो वहाँ भी मैंने उसे समझाया ॥115-116॥ जिससे अनंतमति गुरु का शिष्य बनकर वह ब्रह्मलोक स्वर्ग में चंद्राभ विमान का स्वामी देव हुआ है ॥ 117॥ श्रीभूति का जीव जो पहले भील था सातवीं पृथिवी से निकलकर सर्प हुआ । फिर रत्नप्रभा नामक पहली पृथिवी में गया, वहाँ से निकलकर तिर्यंचों में भ्रमण कर दुःख भोगता रहा ॥118॥
तदनंतर भूतरमण नामक अटवी में ऐरावती नदी के किनारे खमाली नामक तापस को कनककेशी स्त्री से पुत्र उत्पन्न हुआ ॥119॥ वह मृग के समान था तथा मृगशृंग उसका नाम था । एक बार वह पंचाग्नि तप-तप रहा था कि उसकी दृष्टि स्वेच्छा से आकाश में विचरण करते हुए चंद्राभ नामक विद्याधर पर पड़ी । विद्याधर को देखकर उसने विद्याधर होने का निदान किया और उसके फलस्वरूप वह राजा वज्रदंष्ट्र की विद्युत्प्रभा रानी के गर्भ से, जिसका उद्यम विद्याओं से प्रकाशमान है ऐसा यह विद्युदृंष्ट्र नाम का पुत्र हुआ है ॥120-121 ॥ वज्रायुध का जीव सर्वार्थ सिद्धि से च्युत होकर संजयंत हुआ है और ब्रह्मलोक से चयकर जयंत का जीव तू धरणेंद्र हुआ है ॥122॥ देखो वैर की महिमा, राजा सिंहसेन ने श्रीभूति पुरोहित का एक जन्म में अपकार किया था पर उसी अपकार से वैर बांधकर श्रीभूति के जीव ने अनेक जन्मों में सिंहसेन का वध किया ॥123 ॥ तीव्र वैर से क्रोध के वशीभूत हो श्रीभूति के जीव ने सिंहसेन का अनेक बार घात किया अवश्य पर उससे उसे क्या लाभ हुआ ? प्रत्युत उसका यह कार्य अपने ही सुख को नष्ट करने वाला हुआ ॥124 ॥ सिंहसेन का जीव तो जब हाथी था तभी जैनधर्म प्राप्त कर बैर रहित हो गया था और उसके फलस्वरूप पांचवें भव में संजयंत पर्याय से मोक्ष चला गया है पर तू नागेंद्र होकर भी वैर को धारण कर संसार में परिभ्रमण कर रहा है ॥ 125 ॥ हे धरणेंद्र ! इस प्रकार वैर-भाव को घोर संसार का वर्धक जानकर तू छोड़ दे और सबका मूल जो मिथ्यादर्शन है उसका भी शीघ्र त्याग कर दे ॥126 ॥ इस प्रकार आदित्याभ देव के द्वारा प्रबोध को प्राप्त हुए धरणेंद्र ने सब वैर-भाव छोड़कर संसारसागर से पार कराने वाला सम्यग्दर्शन धारण कर लिया ॥127॥
तदनंतर विद्याओं के खंडित हो जाने से जो पंख कटे पक्षियों के समान खेद-खिन्न हो रहे थे ऐसे उन विद्याधरों से धरणेंद्र ने कहा कि हे समस्त विद्याधरो ! तुम सब शीघ्र ही इस पर्वत पर संजयंत स्वामी को पाँच सौ धनुष ऊँची प्रतिमा स्थापित करो । उसी प्रतिमा के पादमूल में उनकी सेवा करते हुए तुम लोगों को बहुत समय बाद बड़े कष्ट से विद्याएं सिद्ध होंगी अन्य प्रकार से नहीं ॥128-130॥ आज से विद्युदृंष्ट्र के वंश में केवल स्त्रियों को ही प्रज्ञप्ति, रोहिणी और गौरी नाम की विद्याएँ सिद्ध हो सकेंगी पुरुषों को नहीं ॥131॥ इस प्रकार धरणेंद्र की आज्ञा को विद्याधरों ने नमस्कार पूर्वक स्वीकार किया तथा यथायोग्य विधि से अपनी विद्याएं पुनः प्राप्त की । यह सब होने के बाद देव यथास्थान चले गये ॥132॥ विद्याधरों ने धरणेंद्र की आज्ञानुसार उस पर्वत पर नाना उपकरणों से युक्त एवं सुवर्ण और रत्नों से निर्मित संजयंत स्वामी की प्रतिमा स्थापित करायी ॥133॥ विद्याओं के हरे जाने से लज्जित हो नीचा मस्तक किये हुए विद्याधर चूंकि उस पर्वत पर बैठे थे इसलिए लोग उस पर्वत को ह्रीमंत कहने लगे ॥134॥ मथुरा में विशाल लक्ष्मी का धारक रत्नवीर्य नाम का राजा रहता था । उसकी मेघमाला नाम की स्त्री थी, आदित्याभ नाम का लांतवेंद्र उन्हीं दोनों के मेरु नाम का पुत्र हुआ ॥135॥ उसी राजा रत्नवीर्य की दूसरी स्त्री अमितप्रभा थी, उसके धरणेंद्र का जीव चंद्रमा के समान सुंदर मंदर नाम का पुत्र हुआ ॥ 136 ॥
तदनंतर युवा होने पर दोनों ने इच्छानुसार काम भोगों का उपभोग किया और उसके बाद दोनों ही, श्री श्रेयान्सनाथ जिनेंद्र के शिष्य हो गये― दीक्षा लेकर मुनि हो गये ॥137॥ उनमें मेरुपर्वत के समान निष्कंप मेरु मुनिराज केवलज्ञानरूपी संपत्ति को प्राप्त कर मोक्ष चले गये और मंदरगिरि की उपमा को धारण करने वाले मंदर मुनिराज श्रेयान्सनाथ भगवान् के गणधर हो गये ॥138॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि इस पृथिवी पर जो भव्यजीव तीर्थंकर पद प्राप्त करना चाहते हैं वे तीनों लोकों में अतिशय प्रसिद्ध संजयंत स्वामी के इस चरित का उत्कट भक्ति-भाव से आदर करें तथा उसी का अच्छी तरह स्मरण करें ॥ 139॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में संजयंत पुराण का वर्णन करने वाला सत्ताईसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥27॥