तिर्यग्गति
From जैनकोष
तिर्यंचगति । इस गति को मायाचारी, पर-लक्ष्मी के अपहरण में आसक्त, आठों प्रहर भक्षक, महामूर्ख, कुशास्त्रज्ञ, व्रत-शील आदि से दूर, कापोत लेश्याधारी, आर्तध्यानी और मिथ्यादृष्टि मानव पाते हैं । इस गति में जीव आजीवन पराधीन होकर विविध दु:ख भोगते हैं । इस गति में एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक के जीव उत्पन्न होते हैं । वे यहाँ चिरकाल तक दु:ख भोगते हैं । महापुराण 17.28 पद्मपुराण - 2.163-166, 5.331-332, 6.305, हरिवंशपुराण - 3.120-121, वीरवर्द्धमान चरित्र 17.73-77 इनकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति एक करोड़ वर्ष पूर्व की होती है । भोगभूमिज तिर्यंचों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और जघन्य स्थिति एक पल्य है । इस योनि में जन्म लेकर भी संज्ञी पंचेंद्रिय जीव यथाशक्ति नियम आदि धारण करते हैं जिससे उन्हें अगले जन्म में मानवगति मिलती है । हरिवंशपुराण - 2.135, 3.121-124