ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 10
From जैनकोष
उस समय त्रिलोकवर्ती जीवों के सन्निधान में धर्म का उपदेश देते हुए भगवान् ने एक हजार वर्ष तक दृढ़तापूर्वक धारण किया हुआ मौन खोला ॥1॥ श्री आदि जिनेंद्र स्वयं ही संसार सागर में पार करने वाला तीर्थ दिखला रहे थे, इसलिए संसार के समस्त जीव अतिशय गूढ़ अर्थ को भी सरलता से देख रहे थे । भावार्थ-यद्यपि दिव्यध्वनि में प्रतिपादित पदार्थ अत्यंत गंभीर था फिर भी वक्ता के प्रभाव से लोग उसे सरलता से समझ रहे थे ॥2॥ उस समय जब कि वचन आदि के अतिशयों से प्रकाशमान जिनेंद्ररूपी सूर्य स्वयं पदार्थों को प्रकाशित कर रहे थे तब कौन मनुष्य मिथ्यात्वरूपी अंधकार को प्राप्त हो सकता था ? अर्थात् कोई नहीं ॥3॥
अथानंतर जिनेंद्र भगवान् ने कहा कि समस्त प्राणियों को जीव-दया आदि कार्यों में स्थित धर्म पूर्ण प्रयत्न से करना चाहिए क्योंकि धर्म ही समस्त सुखों की खान है ॥4॥ चार निकाय के देवों और मनुष्यों में इंद्रिय विषयजन्य जो सुख दिखाई देता है वह सब धर्म से ही उत्पन्न हुआ है ॥5॥ और कर्मों के रूप से उत्पन्न, स्वाधीन तथा अंत से रहित जो मोक्षसंबंधी सुख है वह भी धर्म से ही उत्पन्न होता है ॥6 ॥ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये सूक्ष्म रीति से धारण किये जावें तो मुनि का धर्म है और स्थूल रीति से धारण किये जावें तो गृहस्थ का धर्म है ॥7॥ दान, पूजा, तप और शील यह गृहस्थ का चार प्रकार का शारीरिक धर्म है―शरीर से करने योग्य है । गृहस्थ का यह चतुर्विध धर्म त्याग से ही उत्पन्न होता है ॥ 8॥ सम्यग्दर्शन जिसकी जड़ है ऐसा यह गृहस्थ का धर्म महद्धिक देवों की लक्ष्मी प्रदान करता है और पूर्णता से पालन किया हुआ मुनिधर्म मोक्ष सुख को देने वाला है ॥9॥
जो मात्र अर्वाचीन बात को ही देख सकते हैं ऐसे हिताभिलाषी मनुष्यों को ( छद्मस्थ जीवों को) स्वर्ग और मोक्ष के मूलभूत समीचीन धर्म का लक्षण श्रुतज्ञान के द्वारा जानना चाहिए । भावार्थ― अल्पज्ञानी मनुष्य द्वादशांग के सहारे ही धर्म का लक्षण समझ सकते हैं इसलिए यहाँ द्वादशांग का वर्णन करना उचित है ॥10॥ द्रव्यश्रुत और भावश्रुत के भेद को प्राप्त हुआ द्वादशांग श्रुतज्ञान आप्त के द्वारा प्रकट होता है और आप्त वही माना गया है जो रागादिक दोष तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन आवरणों से रहित हो ॥11॥ श्रुतज्ञान के 1 पर्याय, 2 पर्याय-समास, 3 अक्षर, 4 अक्षर-समास, 5 पद, 6 पद-समास, 7 संघात, 8 संघात समास, 9 प्रतिपत्ति, 10 प्रतिपत्ति-समास, 11 अनुयोग, 12 अनुयोग-समास, 13 प्राभृत-प्राभृत, 14 प्राभृत-प्राभृत-समास, 15 प्राभृत, 16 प्राभृत-समास, 17 वस्तु, 18 वस्तु-समास, 19 पूर्व और 20 पूर्व-समास-ये बीस भेद हैं ॥12-13॥ श्रुतज्ञान के अनेक विकल्पों में एक विकल्प एक ह्रस्व अक्षर रूप भी है । इस विकल्प में द्रव्य की अपेक्षा अनंतानंत पुद्गल परमाणुओं से निष्पन्न स्कंध का संचय होता है ॥14॥ इस एक ह्रस्वाक्षररूप विकल्प के अनेक बार अनंतानंत भाग किये जावें तो उनमें एक भाग पर्याय नाम का श्रुतज्ञान होता है । ॥15॥ वह पर्याय ज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्धपर्याप्तक जीव के होता है और श्रुतज्ञानावरण के आवरण से रहित होता है ॥16॥
सभी जीवों के उतने ज्ञान के ऊपर कभी आवरण नहीं पड़ता । यदि उस पर भी आवरण पड़ जावे तो ज्ञानोपयोग का सर्वथा अभाव हो जायेगा और ज्ञानोपयोग का अभाव होने से जीव का भी अभाव हो जायेगा ॥17॥ यह युक्ति से सिद्ध है कि जीव की उपयोग शक्ति का कभी विनाश नहीं होता । जिस प्रकार कि मेघ का आवरण होने पर भी सूर्य और चंद्रमा को प्रभा कुछ अंशों में प्रकट रही आती है उसी प्रकार श्रुतज्ञान का आवरण होने पर भी पर्याय नाम का जान प्रकट रहा आता है ॥18॥ जब यही पर्यायज्ञान पर्याय ज्ञान के अनंतवें भाग के साथ मिल जाता है तब वह पर्याय-समास नाम का श्रुतज्ञान कहलाने लगता है । यह श्रुतज्ञान आवरण से सहित होता है अर्थात् जब तक पर्याय-समास नामक श्रुतज्ञानावरण का उदय रहता है तब तक प्रकट नहीं होता उसका क्षयोपशम होने पर ही प्रकट होता है ॥ 19 ॥ यह पर्याय-समास ज्ञान अनंतभागवृद्धि, असंख्यभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि तथा अनंतभागहानि, असंख्यातभागहानि एवं संख्यातभागहानि से सहित है । पर्यायज्ञान के ऊपर संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनंतगुणवृद्धि के क्रम से वृद्धि होते-होते जब तक अक्षरज्ञान को पूर्णता होती है तब तक का ज्ञान पर्याय-समास ज्ञान कहलाता है । उसके बाद अक्षरज्ञान प्रारंभ होता है उसके ऊपर पदज्ञान तक एक-एक अक्षर की वृद्धि होती है । इस वृद्धि प्राप्त ज्ञान को अक्षर-समास कहते हैं । अक्षर-समास के बाद पदज्ञान होता है ॥20-21॥ अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यम पद के भेद से पद तीन प्रकार का है ॥22॥ इनमें एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात अक्षर तक का पद अर्थपद कहलाता है । आठ अक्षररूप प्रमाण पद होता है और मध्यम पद में सोलह सौ चौतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी अक्षर होते हैं, और अंग तथा पूर्वो के पद की संख्या इसी मध्यमपद से होती है ॥23-25॥
एक-एक अक्षर की वृद्धिकर पद समास से लेकर पूर्व-समास पर्यंत समस्त द्वादशांग श्रुत स्थित है ॥26॥ उनमें पहला अंग आचारांग है, जो मुनियों के आचार का अच्छी तरह वर्णन करता है और अठारह हजार पदों से सहित है ॥27॥ दूसरा अंग सूत्र कृतांग है, जो स्वसमय और परसमय का विशेषरूप से वर्णन करता है तथा छत्तीस हजार पदों से सहित है ॥ 28॥ तीसरा अंग स्थानांग है जो जीव के एक से लेकर दस तक स्थानों का वर्णन करता है और बयालीस हजार पदों से सहित है । भावार्थ-स्थानांग में जीव के एक केवलज्ञान, एक मोक्ष, एक आकाश, एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य आदि । दो दर्शन, दो ज्ञान, दो राग-द्वेष आदि । तीन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय, माया, मिथ्या, निदान तीन शल्य, जन्म-जरा-मरण-तीन दोष आदि । चार गति, चार कषाय, चार अनंत चतुष्टर आदि । पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच अस्तिकाय, पाँच कषाय आदि । छह द्रव्य, छह लेश्या, छह काय, छह आवश्यक आदि । सात तत्त्व, सात भय, सात व्यसन, सात नरक आदि । आठ कर्म, आठ गुण, आठ ऋद्धियाँ आदि, नौ पदार्थ, नौ नय, नौ शील आदि । तथा दस धर्म, दस परिग्रह, दस दिशा आदि । इस तरह सदृश संख्या वाले पदार्थों का वर्णन है ॥ 29॥
चौथा अंग समवायांग है । यह एक लाख चौंसठ हजार पदों से सहित है तथा द्रव्य आदि की तुल्यता का वर्णन करता है ॥30॥ जैसे धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, एक जीव द्रव्य और लोकाकाश के प्रदेश एक बराबर हैं― असंख्यातप्रदेशी हैं― यह द्रव्य की अपेक्षा तुल्यता समवाय अंग द्वारा वर्णित है ॥31 ॥ सिद्धशिला, प्रथम नरक का सीमंतक नाग का इंद्रकबिल, प्रथम स्वर्ग का ऋतु-विमान और अढ़ाई द्वीप ये क्षेत्र से समान हैं― पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाले हैं― यह क्षेत्र को अपेक्षा समानता उसी समवायांग में कही गयी है ॥ 32॥ काल की अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी की समानता कही गयी है अर्थात् दोनों दस-दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण हैं और भाव की अपेक्षा केवलज्ञान तथा केवलदर्शन की तुल्यता बतलायी गयी है अर्थात् जिस प्रकार केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद हैं उसी प्रकार केवलदर्शन के भी अनंत अविभाग प्रतिच्छेद हैं ॥33 ॥
पांचवां अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग है उसमें पदों की संख्या दो लाख अट्ठाईस हजार है । इस अंग में कुमार्ग त्यागी गणधरादि शिष्यों के द्वारा विनय-पूर्वक केवली से किये गये अनेक प्रश्न तथा उनके उत्तर का विस्तार के साथ वर्णन है ॥34-35॥ छठा अंग ज्ञातृकथांग है यह जिनधर्म की कथारूप अमृत का व्याख्यान करता है तथा इसमें पाँच लाख छप्पन हजार पद हैं ॥36॥ सातवाँ अंग उपासकाध्ययनांग है । श्रावक गण इसी अंग के आश्रित हैं अर्थात् श्रावकाचार का वर्णन इसी अंग में है, इस अंग में ग्यारह लाख सत्तरह हजार पद हैं ॥37॥ आठवाँ अंग अंतकृत् दशांग है इसमें तेईस लाख अट्ठाईस हजार पद हैं ॥38॥ इसमें प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में दस प्रकार के उपसर्ग को जीतकर संसार का अंत करने वाले दस-दस मुनियों का वर्णन है ॥39॥ नौवाँ अंग अनुत्तरोपपादिक दशांग है इसमें बानवे लाख चवालीस हजार पद कहे गये हैं । इस अंग में प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में दस प्रकार के उपसर्ग जीतकर अनुत्तरादि विमानों में उत्पन्न होने वाले दस-दस मुनियों का वर्णन है ॥ 40-41॥ स्त्री, पुरुष और नपुंसक के भेद से तीन प्रकार के तिर्यंच, तीन प्रकार के मनुष्य एवं स्त्री और पुरुष के भेद से दो प्रकार के देव इन आठ चेतनों के द्वारा किये हुए आठ प्रकार के चेतनकृत, एक शारीरिक, कुष्ठादिक की वेदनाकृत और एक अचेतनकृत-दीवाल आदि के गिरने से उत्पन्न सब मिलाकर दस प्रकार के उपसर्ग कहे गये हैं ॥42॥ दसवाँ अंग प्रश्नव्याकरणांग है, इसमें आक्षेपिणी आदि कथाओं का वर्णन है तथा इसमें तिरानवे लाख सोलह हजार पद हैं ॥ 43 ॥ ग्यारहवां अंग विपाकसूत्रांग है । यह अंग ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के विपाक-फल का वर्णन करता है और इसमें एक करोड़ चौरासी लाख पद हैं ॥44॥
और बारहवां अंग दृष्टि प्रवाद अंग है, इसमें पदों की संख्या एक सौ आठ करोड़ अड़सठ लाख छप्पन हजार पाँच है ॥45॥ इस अंग में तीन सौ त्रेसठ दृष्टियों का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है ॥46॥ मूल में 1 क्रियादृष्टि, 2 अक्रियादृष्टि, 3 अज्ञानदृष्टि और 4 विनयदृष्टि के भेद से दृष्टियाँ चार प्रकार की हैं । ये दृष्टियाँ क्रम से क्रिया, अक्रिया, अज्ञान और विनय से सिद्धि की प्राप्ति होती है, ऐसा निरूपण करती हैं ॥ 47 ॥ इनमें क्रियावादी एक सौ अस्सी, अक्रियावादी चौरासी, अज्ञानवादी अड़सठ और विनयवादी बत्तीस हैं ॥48॥ नियति, स्वभाव, काल, देव और पौरुष इन पाँच का स्वतः, परतः, नित्य और अनित्य इन चार के साथ गुणा करने पर बीस भेद होते हैं और इन बीस भेदों का जीवादि नौ पदार्थों के साथ योग करने पर क्रियावादियों के एक सौ अस्सी भेद होते हैं । जैसे कोई मानता है कि जीव नियति से स्वतः है, कोई मानता है कि परतः है, कोई मानता है कि नित्य है, कोई मानता है कि अनित्य है, कोई मानता है कि जीव स्वभाव से स्वतः है, कोई मानता है कि परतः है, कोई मानता है कि नित्य है, कोई मानता है कि अनित्य है । कोई मानता है कि जीव काल से स्वतः है, कोई मानता है कि परतः है, कोई मानता है कि नित्य है, कोई मानता है कि अनित्य है और कोई मानता है कि जीव दैव से स्वतः है, कोई मानता है कि परतः है । कोई मानता है कि नित्य है और कोई मानता है कि अनित्य है । और कोई मानता है कि जीव पौरूष से स्वतः है, कोई मानता है कि परतः है कोई मानता है कि नित्य है और कोई मानता है कि अनित्य है । जिस प्रकार नियति आदि के कारण जीव पदार्थ के बीस-बीस भंग हैं उसी प्रकार अजीवादि पदार्थों के भी बीस भंग हैं । इस तरह क्रियावादियों के सब मिलाकर एक सौ अस्सी भेद होते हैं ॥49-51॥ जीवादि सात तत्त्व, नियति, स्वभाव, काल, दैव और पौरुष की अपेक्षा न स्वतः हैं और न परतः हैं । इस तरह जीवादि सात तत्त्वों में नियति आदि पाँच का गुणा करने पर पैंतीस और पैंतीस में स्वतः, परतः इन दो का गुणा करने पर सत्तर भेद हुए । पुनः जीवादि सात तत्त्व नियति और काल की अपेक्षा नहीं हैं इसलिए सात में दो का गुणा करने पर चौदह भेद हुए । पूर्वोक्त सत्तर भेदों के साथ इन चौदह भेदों को मिला देने पर अक्रियावादियों के चौरासी भेद होते हैं ॥52-53 ॥
जीवादि नौ पदार्थों को 1 सत्, 2 असत्, 3 उभय, 4 अवक्तव्य, 5 सद् अवक्तव्य, 6 असत् अवक्तव्य, और उभय अवक्तव्य इन सात भंगों से कौन जानता है ? इस प्रकार नौ पदार्थों में सात भंगों का गुणा करने पर आज्ञानिक मिथ्यादृष्टियों के त्रेसठ भेद होते हैं ॥54॥ जैसे 1 कोई कहता है कि जीव सत् रूप है यह कौन जानता है ? 2 कोई कहता है कि जीव असद् रूप है यह कौन जानता है ? 3 कोई कहता है कि जीव सत् असत् ― उभयरूप है यह कौन जानता है ? 4 कोई कहता है कि जीव अवक्तव्यरूप है यह कौन जानता है ? 5 कोई कहता है कि जीव सद् अवक्तव्यरूप है यह कौन जानता है ? 6 कोई कहता है कि जीव असद् अवक्तव्यरूप है यह कौन जानता है ? और कोई कहता है कि जीव सत्-असत् अवक्तव्यरूप है यह कौन जानता है ? इसी प्रकार अजीवादि पदार्थों के साथ सात-सात भंगों की योजना करने पर त्रेसठ भेद होते हैं । इन त्रेसठ भेदों में- चतुर्दशविधं पूर्व गतं श्रुतमुदीयते, प्रतिपूर्व च वस्तूनि ज्ञातव्यानि यथाक्रमम् ॥72॥ 1 जीव की सत् उत्पत्ति को जानने वाला कौन है ? 2 जीव की असत् उत्पत्ति को जानने वाला कौन है ? 3 जीव की सत्-असत् उत्पत्ति को जानने वाला कौन है ? और 4 जीव की अवक्तव्य उत्पत्ति को जानने वाला कौन है ? केवल भाव की अपेक्षा स्वीकृत इन चार भेदों के और मिला देने पर आज्ञानिक मिथ्यादृष्टियों के सब भेद सड़सठ हो जाते हैं ॥ 55-58॥ 1 माता, 2 पिता, 3 देव, 4 राजा, 5 ज्ञानी, 6 बालक, 7 वृद्ध और 8 तपस्वी इन आठ का मन, वचन, काय और दान से विनय करना चाहिए । इसलिए मन, वचन, काय और दान इन चार का माता आदि आठ के साथ संयोग करने पर वैनयिक मिथ्यादृष्टियों के बत्तीस भेद हो जाते हैं ॥ 59-60 ꠰।
इस प्रकार अनेक मिथ्यादृष्टियों का कथन करने वाले दृष्टिवाद अंग के 1 परिकर्म, 2 सूत्र, 3 अनुयोग, 4 पूर्वगत और 5 चूलिका ये पाँच भेद हैं ॥61॥ परिकर्म में 1 चंद्रप्रज्ञप्ति, 2 सूर्यप्रज्ञप्ति, 3 जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, 4 द्वीपसमुद्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति ये पाँच प्रज्ञप्तियाँ कही गयी हैं अर्थात् इन पाँच प्रज्ञप्तियों की अपेक्षा परिकर्म के पाँच भेद हैं ॥ 62 ॥ इनमें चंद्रप्रज्ञप्ति छत्तीस लाख पाँच हजार पदों के द्वारा चंद्रमा की भोग आदि संपदा का वर्णन करती है ॥63 ॥ सूर्यप्रज्ञप्ति पाँच लाख तीन हजार पदों के द्वारा सूर्य के स्त्री आदि विभव का निरपण करती है ॥64॥ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति तीन लाख पचीस हजार पदों के द्वारा जंबूद्वीप के सर्वस्व का वर्णन करती है ॥65 ॥ जिसमें बावन लाख छत्तीस हजार पद हैं, ऐसी द्वीप और सागरों का वर्णन करने वाली चौथी द्वीपसमुद्रप्रज्ञप्ति है ॥66 ॥ जो चौरासी लाख छत्तीस हजार पदों से युक्त है वह पाँचवीं व्याख्याप्रज्ञप्ति कही जाती है ॥67॥ व्याख्याप्रज्ञप्ति रूपी द्रव्य, अरूपी द्रव्य तथा भव्य-अभव्य जीवों के समूह आदि सबका विस्तार के साथ वर्णन करती है ॥68॥
दृष्टिवाद के दूसरे भेद सूत्र में अठासी लाख पद हैं, इसके अनेक भेदों में से प्रथम भेद में अबंधक-बंध न करने वाले भावों का वर्णन है । दूसरे भेद में श्रुति, स्मृति और पुराण के अर्थ का निरूपण है । तीसरे भेद में नियति पक्ष का कथन है और चौथे भेद में नाना प्रकार के पर समयों-अन्य दर्शनों का निरूपण है ॥ 69-70 ॥ दृष्टिवाद के तीसरे भेद अनुयोग में पांच हजार पद हैं तथा इसके अवांतर भेद प्रथमानुयोग में त्रेसठ शलाकापुरुषों के पुराण का वर्णन है ।꠰71॥ दृष्टिवाद का चौथा भेद पूर्वगत कहा जाता है उसके उत्पाद आदि चौदह भेद हैं और प्रत्येक भेद में निम्न प्रकार वस्तुओं की संख्या जाननी चाहिए ॥72॥ उन भेदों में क्रम से दस, चौदह, आठ, अठारह, बारह, बारह, सोलह, बीस, तीस, पंद्रह, दस, दस, दस और दस वस्तुएं हैं तथा प्रत्येक वस्तु के बीस-बीस प्राभृत होते हैं ॥73-74॥
पहला उत्पाद पूर्व है उसमें एक करोड़ पद हैं तथा द्रव्यों के उत्पाद व्यय और ध्रौव्य का वर्णन है ॥75॥ दूसरा अग्रायणीय पूर्व है उसमें छियानवे लाख पद हैं तथा स्वमत सम्मत सात तत्त्व नव पदार्थ आदि का वर्णन है ॥76॥ पहले अग्रायणीय पूर्व की जिन चौदह वस्तुओं का कथन किया गया है उनके नाम यथाक्रम से इस प्रकार जानना चाहिए ॥77 ॥ 1 पूर्वांत, 2 अपरांत, 3 ध्रुव, 4 अध्रुव, 5 अच्यवनलब्धि, 6 अध्रुवसंप्रणधि, 7 कल्प, 8 अर्थ, 9 भौमावय, 10 सर्वार्थंकल्पक, 11 निर्वाण, 12 अतीतानागत, 13 सिद्ध और 14 उपाध्याय ॥ 78-80॥ अग्रायणीय पूर्व की पंचम वस्तु के बीस प्राभृत (पाहुड़) हैं । उनमें कर्म प्रकृति नामक चौथे प्राभृत में निम्नलिखित चौबीस योगद्वार हैं ॥ 81 ॥ 1 कृति, 2 वेदना, 3 स्पर्श, 4 कर्म, 5 प्रकृति, 6 बंधन, 7 निबंधन, 8 प्रक्रम, 9 उपक्रम, 10 उदय, 11 मोक्ष, 12 संक्रम, 13 लेश्या, 14 लेश्याकर्म, 15 लेश्यापरिणाम, 16 सातासात, 17 दीर्घहस्त्र, 18 भवधारण, 19 पुद̖गलात्मा, 20 निधत्तानिधत्तक, 21 सनिकाचित, 22 अनिकाचित, 23 कर्मस्थिति और 24 स्कंध । इन योगद्वारों में समस्त विषयों की हीनाधिकता यथायोग्य जाननी चाहिए ॥82-86॥ अन्य पूर्वों की वस्तु, प्राभृत तथा अनुयोग आदि का भेद आगम के अनुसार जानना चाहिए ॥ 87 ॥ जिसमें सत्तर लाख पद हैं ऐसा तीसरा वीर्यानुप्रवाद नाम का पूर्व अतिशय पराक्रमी सत्पुरुषों के पराक्रम का वर्णन करता है ॥ 88॥ जिसमें साठ लाख पद हैं ऐसा चौथा अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व स्वचतुष्टय की अपेक्षा जीवादि द्रव्यों के अस्तित्व और पर-चतुष्टय की अपेक्षा उनके नास्तित्व का कथन करता है ॥ 89 ॥ एक कम एक करोड़ पदों से सहित जो पांचवां ज्ञान प्रवाद नाम का पूर्व है वह पाँच प्रकार के ज्ञान का वर्णन करता है ॥90॥
जिसमें छह अधिक एक करोड़ पद हैं ऐसा छठवां सत्य प्रवाद नाम का पूर्व बारह प्रकार की भाषा तथा दस प्रकार के सत्य वचन का कथन करता है ॥ 91 ॥ बारह प्रकार की भाषाओं के नाम और स्वरूप इस प्रकार हैं-हिंसादि पापों के करने वाले अथवा नहीं करने वाले के लिए करना चाहिए इस प्रकार कहना सो अभ्याख्यान भाषा है । कलह कारक वचन बोलना सो कलह भाषा है यह प्रसिद्ध ही है ॥92॥ दुष्ट मनुष्यों के द्वारा पीठ पीछे दोषों का प्रकट किया जाना सो पैशुन्य भाषा है । जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार वर्गों के वर्णन से रहित है वह बद्ध प्रलाप नामक भाषा है ॥ 93 ॥ रति अर्थात् राग उत्पन्न करने वाली भाषा को रति भाषा कहते हैं और अरति अर्थात् द्वेष उत्पन्न करने वाली भाषा को अरति भाषा कहते हैं, जिसके द्वारा श्रोता अर्थार्जन आदि कार्यों में लग जाता है वह उपाधि वाक् भाषा है । जो जीव को धोखा देही में निपुण करती है वह निकृति भाषा है । जो अपने से अधिक गुणवालों को नमस्कार नहीं करती है वह अप्रणति भाषा है ॥ 94-95 ॥ जो जीव को चोरी में प्रवृत्त करती है वह मोघ (मोष) भाषा है । जो समीचीन मार्ग में लगाती है वह सम्यग्दर्शन भाषा है और जो मिथ्या मार्ग का उपदेश देती है वह मिथ्यादर्शन भाषा है । इन बारह प्रकार को भाषाओं के बोलने वाले द्वींद्रियादिक जीव हैं ॥96-97॥
सत्य वचन दस प्रकार के हैं उनमें पहला नाम सत्य कहा गया है, व्यवहार चलाने के लिए किसी का इंद्र आदि नाम रख लेना नामसत्य है ॥98॥ पदार्थ के न होने पर भी रूप-मात्र की मुख्यता से जो कथन होता है वह रूपसत्य है जैसे किसी मनुष्य के अचेतन चित्र को उस मनुष्यरूप कहना ॥99 ॥ पांसा तथा खिलौना आदि में आकार की समानता होने अथवा न होने पर भी व्यवहार के लिए जो स्थापना की जाती है वह स्थापना सत्य है जैसे सतरंज की गोटों में वैसा आकार न होने पर भी बादशाह-वजीर आदि की स्थापना करना और हाथी, घोड़ा आदि के खिलौनों में उन जैसा आकार होने पर हाथी, घोड़ा आदि को स्थापना करना ॥100॥ आगम के अनुसार प्रतीति कर औपशमिकादि भावों का कथन करना प्रतीत्य सत्य है । जैसे मिथ्यादृष्टि गुण स्थान में आगम में औदयिक भाव बतलाया है । यद्यपि वहाँ ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम भाव होने से क्षयोपशमिक तथा जीवत्व और भव्यत्व अथवा जीवत्व और अभव्यत्व की अपेक्षा पारिणामिक भाव भी है परंतु आगम के कहे अनुसार वहाँ दर्शनमोह की अपेक्षा औदयिक भाव ही कहना ॥101॥
समुदाय को एकदेश को मुख्यता से एकरूप कहना संवृति सत्य है, जैसे भेरी, तबला, बांसुरी, वीणा आदि अनेक बाजों का शब्द जहाँ एक समूह में हो रहा है वहाँ भेरी आदि की मुख्यता से भेरी आदि का शब्द कहना ॥102॥ जो चेतन-अचेतन द्रव्यों के विभाग को करने वाला न हो उसे संयोजना सत्य कहते हैं जैसे क्रौंचव्यूह आदि । भावार्थ― क्रौंचव्यूह, चक्रव्यूह आदि सेनाओं की रचना के प्रकार हैं और सेनाएँ चेतन-अचेतन पदार्थों के समूह से बनती हैं पर जहाँ अचेतन पदार्थों की विवक्षा न कर केवल क्रौंचाकार रची हुई सेना को क्रौंचव्यूह और चेतन पदार्थों की विवक्षा न कर केवल चक्र के आकार रची हुई सेना को चक्रव्यूह कह देते हैं वहाँ संयोजना सत्य होता है ॥103॥ जो वचन आर्य-अनार्य आदि अनेक देशों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का करने वाला है उसे जनपद सत्य कहते हैं ॥104॥ जो वचन गांव की रीति, नगर की रीति तथा राजा की नीति का उपदेश करने वाला हो एवं गण और आश्रमों का उपदेश कहो वह देश सत्य माना गया है ॥105॥ यद्यपि छद्मस्थ के द्रव्यों के यथार्थज्ञान की विकलता है तथापि केवली के वचन की प्रमाणता कर वे प्रासुक और अप्रासुक द्रव्य का निर्णय करते हैं यह भाव सत्य है ॥106 ॥ और जो द्रव्य तथा पर्याय के भेदों की यथार्थता को बतलाने वाला तथा आगम के अर्थ को पोषण करने वाला वचन है वह समय सत्य है ॥ 107॥
जिसमें छब्बीस करोड़ पद कहे गये हैं ऐसा सातवां आत्मप्रवाद नाम का पूर्व है । इसमें अनेक युक्तियों का संग्रह है तथा कर्तृत्व, भोक्तृत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि जीव के धर्मों और उनके भेदों का सयुक्तिक निरूपण है ॥108-109॥ जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख पद हैं ऐसा आठवां कर्म प्रवाद नाम का पूर्व है । यह पूर्व ज्ञानावरणादि कर्मों के बंध का निरूपण करने वाला है ॥110॥ जिसमें चौरासी लाख पद हैं ऐसा नौवाँ प्रत्याख्यान पूर्व कहा गया है ॥111॥ इस पूर्व में परिमित द्रव्य-प्रत्याख्यान और अपरिमित भाव-प्रत्याख्यान का निरूपण है तथा यह पूर्व मुनिधर्म को बढ़ाने वाला है ॥112॥ जिसमें एक करोड़ दस लाख पद हैं ऐसा दसवां विद्यानुवाद नाम का पूर्व है ॥113॥ इसमें अंगुष्ठ प्रसेन आदि सात सौ लघु विद्याएँ और रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्याएँ कही गयी हैं ॥114॥ जिसमें छब्बीस करोड़ पद प्रतिष्ठित हैं ऐसा ग्यारहवां कल्याणवाद नाम का पूर्व है । यह सार्थक नामधारी है और सूर्य, चंद्रमा आदि ज्योतिषी देवों के संचार तथा सुरेंद्र, असुरेंद्रकृत त्रेसठ शलाकापुरुषों के कल्याण का विस्तार के साथ वर्णन करता है । साथ ही इसमें 1 स्वप्न, 2 अंतरिक्ष, 3 भौम, 4 अंग, 5 स्वर, 6 व्यंजन, 7 लक्षण और 8 छिन्न इन अष्टांग निमित्तों और अनेक शकुनों का भी वर्णन है ॥115-117॥
जो तेरह करोड़ पदों से सहित है वह प्राणावाय नाम का बारहवां पूर्व है ॥118॥ इसमें काय-चिकित्सा आदि आठ प्रकार के आयुर्वेद का तथा प्राणापान आदि के विभाग और उनकी पार्थिवी आदि धारणाओं का वर्णन है ॥119॥ तेरहवां नौ करोड़ पदों से सहित क्रिया विशाल नाम का पूर्व है । इसमें छंदःशास्त्र, व्याकरण-शास्त्र तथा शिल्पकला आदि अनेक गुणों का वर्णन है ॥120॥ और जिसमें बारह करोड़ पचास लाख पद हैं ऐसा चौदहवां लोकबिंदुसार नामक पूर्व है । इसमें समस्त श्रुतरूपी संपदा के द्वारा अंकराशि की विधि, आठ प्रकार के व्यवहार की विधि तथा परिकर्म की विधि कही गयी है ॥121-122 ॥ पहले बारहवें दृष्टिवाद अंग के पांच भेदों में एक चूलिका नामक भेद बता आये हैं वह जलगता, स्थलगता, आकाशगता, रूपगता और मायागता के भेद से पांच प्रकार की है । चूलिका के ये समस्त भेद सार्थक नाम वाले हैं और इनमें प्रत्येक के दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पाँच पद हैं ॥123-124॥ इस प्रकार अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान का वर्णन किया ।
अब अंगबाह्यश्रुत का वर्णन करते हैं ꠰
अंगबाह्यश्रुत सामायिक आदि के भेद से चौदह प्रकार का है, यह प्रकीर्णक श्रुत कहलाता है और इसका प्रमाण, प्रमाण पद को संख्या से ग्रहण करना चाहिए ॥125॥ अंगबाह्य श्रुतज्ञान के समस्त अक्षरों का संग्रह आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर प्रमाण है ॥126॥ इसके समस्त पदों का जोड़ एक करोड़ तेरह हजार पाँच सौ इक्कीस पद तथा शेष सात अक्षर प्रमाण है ॥127॥ और इसके समस्त श्लोकों की संख्या पचीस लाख तीन हजार तीन सौ अस्सी तथा शेष पंद्रह अक्षर प्रमाण है ॥ 128॥ उन चौदह प्रकीर्णकों में पहला सामायिक नाम का प्रकीर्णक है, यह प्रकीर्णक शत्रु, मित्र तथा सुख-दुःख आदि में राग-द्वेष का परित्याग कर समता भाव का वर्णन करने वाला है ॥129॥ दूसरा जिनस्तव नामी प्रकीर्णक है इसमें चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन किया गया है । तीसरा वंदना नाम का प्रकीर्णक है इसमें वंदना करने योग्य पंचपरमेष्ठी आदि की वंदना की विधि बतलायी गयी है ॥130॥ प्रतिक्रमण नाम का चौथा प्रकीर्णक द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि में किये गये पाप को शुद्ध करने वाले प्रतिक्रमण का कथन करता है ॥131॥ वैनयिक नाम का पाँचवाँ प्रकीर्णक दर्शन-विनय, ज्ञान-विनय, चारित्र-विनय, तपोविनय और उपचार-विनय के भेद से पाँच प्रकार की विनय का कथन करता है ॥132॥ कृतिकर्म नाम का छठा प्रकीर्णक सामायिक के समय चार शिरोनति, मन-वचन-काय से आदि-अंत में दो दंडवत् नमस्कार और बारह आवर्त करना चाहिए । इस प्रकार कृति-कर्म की उत्तम विधि का वर्णन करता है ॥ 133॥
दसवैकालिक नाम का सातवां प्रकीर्णक मुनियों की गोचरी आदि वृत्तियों के ग्रहण करने आदि का वर्णन करता है । आठवाँ उत्तराध्ययन नाम का प्रकीर्णक महावीर भगवान् के निर्वाण गमन संबंधी कथन करता है ॥ 134॥ कल्पव्यवहार नामक नौवां प्रकीर्णक तपस्वियों के करने योग्य विधि का तथा नहीं करने योग्य कार्यों के हो जाने पर उनकी प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन करता है ॥135 ॥ कल्पाकल्प नामक दसवां प्रकीर्णक करने योग्य तथा न करने योग्य दोनों कार्यों का निरूपण करता है । महाकल्प नाम का ग्यारहवाँ प्रकीर्णक मुनि के द्रव्य, क्षेत्र तथा काल के योग्य कार्य का उल्लेख करता है ॥ 136॥ पुंडरीक नाम का बारहवां प्रकीर्णक दोनों के उपपाद का वर्णन करता है । महापुंडरीक नाम का तेरहवाँ प्रकीर्णक देवियों के उपपाद का निरूपण करता है ॥137 । और निषद्य नाम का चौदहवाँ प्रकीर्णक प्रायश्चित्त-विधि का उत्तम वर्णन करता है । इस प्रकार यह अंगबाह्य श्रुतज्ञान का विस्तार कहा ॥138 ॥ समस्त श्रुत के अक्षरों का प्रमाण एक, आठ, चार, चार, छह, सात, चार, चार, शून्य, सात, तीन, सात, शून्य, नौ, पाँच, पांच, एक, छह, एक और पाँच अर्थात् एक लाख चौरासी हजार चार सौ सड़सठ कोड़ाकोड़ी चवालीस लाख, सात हजार तीन सौ सत्तर करोड़ पंचानवे लाख इक्यावन हजार छह सौ पंद्रह है ॥ 139-143॥ यह श्रुतज्ञान, श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है, मतिज्ञानपूर्वक होता है, परोक्ष है और अनंत पदार्थों को विषय करने वाला है ॥ 144॥
पाँच इंद्रियों तथा मन से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं । यह मतिज्ञान अनेक प्रकार का है एवं परोक्ष है । यदि पदार्थों के सान्निध्य में होता है तो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाता है ॥145॥ यह मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखता है तथा अवग्रह ईहा अवाय और धारणा के भेद से चार प्रकार का है ॥146॥ अवग्रह आदि चारों भेद पाँच इंद्रिय और मन इन छह के द्वारा होते हैं इसलिए चार में छह का गुणा करने से मतिज्ञान के चौबीस भेद होते हैं ॥147॥ इन चौबीस भेदों में शब्द, गंध, रस और स्पर्श से होने वाले व्यंजना व ग्रह के चार भेद मिलाने से मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद हो जाते हैं और इन अट्ठाईस भेदों में अवग्रह आदि चार मूल भेद मिला देने से बत्तीस भेद हो जाते हैं । इस प्रकार चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस भेद हो जाते हैं । इस प्रकार चौबीस अट्ठाईस और बत्तीस के भेद में मतिज्ञान के भेदों की प्रारंभ में तीन राशियाँ होती हैं । उनमें क्रम से बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुव इन छह पदार्थों का गुणा करने पर एक सौ चवालीस, एक सौ अड़सठ तथा एक सौ बानवे भेद होते हैं । यदि बहु आदि छह तथा इनसे विपरीत एक आदि छह इन बारह भेदों का उक्त तीन राशियों में क्रम से गुणा किया जावे तो दो सौ अठासी, तीन सौ छत्तीस और तीन सौ चौरासी भेद होते हैं ॥148-150॥ मतिज्ञान के ये विकल्प मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम में भेद होने से प्रकट होते हैं तथा सम्यग्दृष्टि जीवों के होते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवों का मतिज्ञान कुमतिज्ञान कहलाता है ॥151॥
अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव में शुद्धि होने पर देशावधि, सर्वावधि और परमावधि यह तीन प्रकार का अवधिज्ञान होता है । यह अवधिज्ञान देश-प्रत्यक्ष है तथा पुद̖गल द्रव्य को विषय करता है ॥152॥ मनःपर्ययज्ञान भी देश प्रत्यक्ष ही है । इसके विपुलमति और ऋजुमति के भेद से दो भेद हैं तथा यह अवधिज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्म पदार्थ को विषय करता है । अवधिज्ञान परमाणु को जानता है तो यह उसके अनंतवें भाग तक को जान लेता है ॥153 ॥ अंतिम ज्ञान केवलज्ञान है यह केवल ज्ञानावरणकर्म के क्षय से होता है, सर्व प्रत्यक्ष है, अविनाशी है और समस्त पदार्थों को जानने वाला है ॥154॥ परोक्ष प्रमाण का फल हेय पदार्थ को छोड़ने और उपादेय पदार्थ को ग्रहण करने की बुद्धि उत्पन्न होना है तथा प्रत्यक्ष प्रमाण का फल उपेक्षा-रागद्वेष का अभाव एवं उसके पूर्व मोह का क्षय होना है ॥ 155॥ मतिज्ञानादि चार ज्ञान परंपरा से मोक्ष के कारण हैं और एक अविनाशी केवलज्ञान साक्षात् ही मोक्ष का कारण है ॥156॥
प्रमाण के द्वारा जाने हुए पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति होना सम्यक्-चारित्र कहलाता है ॥157॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्̖चारित्र ये तीनों मोक्ष प्राप्ति के उपाय हैं, इसलिए उत्तमसंपदा की इच्छा करने वाले पुरुष को इनका श्रद्धान तथा तदनुरूप आचरण करना चाहिए ॥158॥ इन तीनों से बढ़कर दूसरा मोक्ष का कारण न है, न था, और न होगा । यही सबका सार है ॥159॥ इस प्रकार आदि जिनेंद्र के वचनरूपी औषधि का पान कर तीनों जगत् संदेहरूपी रोग से छूटकर ऐसे सुशोभित होने लगे मानो मुक्त ही हो गये हों― मोक्ष को ही प्राप्त हो गये हों ॥ 160॥ उस कृतयुग में जिन जीवों ने रत्नत्रयरूप आभूषणों को पहले से ग्रहण कर रखा था उस समय भगवान् की दिव्य ध्वनि सुनने से उनकी भावना और भी दृढ़ हो गयी तथा कितने ही नवीन लोग मुनिधर्म एवं श्रावकधर्म की दीक्षा ले सम्यग्दर्शनादि गुणों से युक्त हो सुशोभित हुए ॥161॥ निर्मल सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से युक्त चार प्रकार के देव, चतुर्विध संघ से युक्त तथा जगत् में विहार करने के लिए उद्यत श्री जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर अपने-अपने स्थान पर चले गये ॥ 162 ॥ गृहस्थाश्रम से युक्त तथा श्रावकों में मुख्यता को प्राप्त राजा भरतेश्वर, जिनेंद्र भगवान् की पूजा कर उच्चकुलीन राजाओं के साथ हर्षित होता हुआ अयोध्या की ओर वापस गया ॥163 ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराण में प्रथम तीर्थंकर के द्वारा धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति होने का वर्णन करने वाला दसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥10॥