रौद्रध्यान
From जैनकोष
हिंसा आदि पाप कार्य करके गर्वपूर्वक डींगे मारते रहने का भाव रौद्रध्यान कहलाता है। यह अत्यन्त अनिष्टकारी है। हीनाधिक रूप से पंचम गुणस्थान तक ही होना सम्भव है, आगे नहीं।
- रौद्र सामान्य का लक्षण
भ. आ./मू./१७०३/१५२८ तेणिक्कमोससारक्खणेसु तह चेव छव्विहारंभे। रुद्दं कसायसहियं झाणं भणियं समासेण।१७०३। = दूसरे के द्रव्य लेने का अभिप्राय, झूठ बोलने में आनन्द मानना, दूसरे के मारने का अभिप्राय, छहकाय के जीवों की विराधना अथवा असिमसि आदि परिग्रह के आरम्भ व संग्रह करने में आनन्द मानना इनमें जो कषाय सहित मन को करना वह संक्षेप से रौद्रध्यान कहा गया है।१७०३। (मू. आ./३९६)।
स. सि./९/२८/४४५/१० रुद्रः क्रूराशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वा रौद्रम्। = रुद्र का अर्थ क्रूर आशय है, इसका कर्म या इसमें होने वाला (भाव) रौद्र है। (रा. वा./९/२८/२/६२७/२८); (ज्ञा./२६/२); (भा. पा./टी./७८/२२६/१७)।
म. पु./२१/४२ प्राणिनां रोदनाद् रुद्रः क्रूरः सत्त्वेषु निर्घृणः। पुमांस्तत्र भवं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम्।४२। = जो पुरुष प्राणियों को रुलाता है वह रुद्र क्रूर अथवा सब जीवों में निर्दय कहलाता है। ऐसे पुरुष में जो ध्यान होता है उसे रौद्रध्यान कहते हैं।४२। (भ. आ./वि./१७०२/१५३० पर उद्धृत)।
चा. सा./१७०/२ स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकं (रौद्रध्यानम्)। = जिसे अपना ही आत्मा जान सके उसे आध्यात्मिक रौद्रध्यान कहते हैं।
नि. सा./ता./वृ./८९ चौरजारशात्रवजनवधबंधनसन्निबद्धमहदद्वेषजनित रौद्रध्यानम्। = चोर−जार-शत्रुजनों के वध - बन्धन सम्बन्धी महाद्वेष से उत्पन्न होने वाला जो रौद्रध्यान.....।
- रौद्र ध्यान के भेद
त. सू./९/३५ हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रम्....।३५। = हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षण के लिए सतत् चिन्तन करना रौद्र ध्यान है।३५।
म. पु./२१/४३ हिंसानन्दमृषानन्दस्तेयसंरक्षणात्मकम्।४३। = हिंसानन्द, मृषानन्द, स्तेयानन्द और संरक्षणानन्द अर्थात् परिग्रह की रक्षा में रात-दिन लगा रहकर आनन्द मानना ये रौद्र ध्यान के चार भेद हैं।३५। (चा. सा./१७०/२); (ज्ञा./२६/३); (का. अ./४७३-४७४)।
चा. सा./१७०/१ रौद्रं च बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विविधिम्। = रौद्र ध्यान भी बाह्य और आध्यात्मिक के भेद से दो प्रकार का है।
- रौद्र ध्यान के भेदों के लक्षण
चा. सा./१७०/२ तीव्रकषायानुरंजनं हिंसानन्दं प्रथमरौद्रम्। स्वबुद्धिविकल्पितयुक्तिभिः परेषां श्रद्धेयरूपाभिः परवंञ्चनं प्रति मृषाकथने संकल्पाध्यवसानं मृषानन्दं द्वितीयरौद्रम्। हठात्कारेण प्रमादप्रतीक्षया वा परस्वापहरणं प्रति संकल्पाध्यवसानं तृतीयरौद्रम्। चेतनाचेतन लक्षणे स्वपरिग्रह ममेवेदं स्वमहमेवास्य स्वामीत्यभिनिवेशात्तदपहारकव्यापादनेन संरक्षणं प्रति संकल्पाध्यवसानं संरक्षणानन्दं चतुर्थं रौद्रम्। = तीव्रकषाय के उदय से हिंसा में आनन्द मानना पहला रौद्रध्यान है। जिन पर दूसरों को श्रद्धा न हो सके ऐसी अपनी बुद्धि के द्वारा कल्पना की हुई युक्तियों के द्वारा दूसरों को ठगने के लिए झूठ बोलने के संकल्प का बार-बार चिन्तवन करना मृषानन्द रौद्र ध्यान है। जबरदस्ती अथवा प्रमाद की प्रतीक्षापूर्वक दूसरे के धन को हरण करने के संकल्प का बार-बार चिन्तवन करना तीसरा रौद्रध्यान है। चेतन-अचेतनरूप अपने परिग्रह में यह मेरा परिग्रह है, मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार ममत्व रखकर उसके अपहरण करने वाले का नाश कर उसकी रक्षा करने के संकल्प का बार-बार चिन्तवन करना विषय संरक्षणानन्द नाम का चौथा रौद्र ध्यान है।
का. अ./४७५-४७६ हिंसाणंदेण जुदो असच्च-वयणेण परिणदो जो हु। तत्थेव अथिर-चित्तोसद्दं झाणं हवे तस्स।४७५। पर-विसय-हरण-सीतोसगीय-विसए सुरक्खणे दुक्खो। तग्गय-चिंताविट्ठो णिरंतरं तं पि रुद्दं पि।४७६। = जो हिंसा में आनन्द मानता है और असत्य बोलने में आनन्द मानता है तथा उसी में जिसका चित्त विक्षिप्त रहता है, उसके रौद्र ध्यान होता है।४७६। जो पुरुष दूसरों की विषय सामग्री को हरने का स्वभाव वाला है और अपनी विषय सामग्री की रक्षा करने में चतुर है तथा निरन्तर जिसका चित्त इन कामों में लगा रहता है वह भी रौद्र ध्यानी है।
ज्ञा./२६/४-३४ का भावार्थ - हते निष्पीडिते ध्वस्ते जन्तुजाते कदर्थिते। स्वेन चान्येन यो हर्षस्तद्धिंसारौद्रमुच्यते।४। असत्यकल्पना-जालकश्मलीकृतमानसः। चेष्टते यज्जनस्तद्धि मृषारौद्रं प्रकीर्तितम्।१६। यच्चौर्याय शरीरिणामहरहश्चिन्ता समुत्पद्यते−कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुलं कुर्वन्ति यत्संततम्। चौर्येणापि हृते परैः परधने यज्जायते संभ्रम−स्तच्चौर्यप्रभवं वदन्ति निपुणा रौद्रं सुनिन्दास्पदम्।२५। बह्वारम्भपरिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमभ्युद्यते−यत्संकल्प-परम्परां वितनुते प्राणीह रौद्राशयः। यच्चालम्ब्य महत्त्वमुन्नतमना राजेत्यहं मन्यते−तत्तुर्यं प्रवदन्ति निर्मलधियो रौद्रं भवाशंसिनाम्।२९। =- जीवों के समूह को अपने से तथा अन्य के द्वारा मरे जाने पर तथा पीड़ित किये जाने पर तथा ध्वंस करने पर और घात करने के सम्बन्ध मिलाये जाने पर जो हर्ष माना जाये उसे हिंसानन्दनामा रौद्र ध्यान कहते हैं।४। बलि आदि देकर यशलाभ का चिन्तवन करना।७। जीवों को खण्ड करने व दग्ध करने आदि को देखकर खुश होना।८। युद्ध में हार-जीत सम्बन्धी भावना करना।१०। वैरी से बदला लेने की भावना।११। परलोक में बदला लेने की भावना करना।१२। हिंसानन्दी रौद्र ध्यान है। (म. पु./२१/४५)।
- जो मनुष्य असत्य झूठी कल्पनाओं के समूह से पापरूपी मैल से मलिनचित्त होकर जो कुछ चेष्टा करै उसे निश्चय करके मृषानन्द नामा रौद्र ध्यान कहा है।१६। जो ठगाई के शास्त्र रचने आदि के द्वारा दूसरों को आपदा में डालकर धन आदि संचय करे।१७-१९। असत्य बोलकर अपने शत्रु को दण्ड दिलाये।२०। वचन चातुर्य से मनवांछित प्रयोजनों की सिद्धि तथा अन्य व्यक्तियों को ठगने की।२१-२२। भावनाएँ बनाये रखना मृषानन्दी रौद्र ध्यान है।
- जीवों के चौर्यकर्म के लिए निरन्तर चिन्ता उत्पन्न हो तथा चोरी कर्म करके भी निरन्तर अतुल हर्ष मानैं आनन्दित हो अन्य कोई चोरी के द्वारा परधन की हरै उसमें हर्ष मानै उसे निपुण पुरुष चौर्यकर्म से उत्पन्न हुआ रौद्र ध्यान कहते हैं, यह ध्यान अतिशय निन्दा का कारण है।२५। अमुक स्थान में बहुत धन है जिसे मैं तुरंत हरण करके लाने में समर्थ हूँ।२६। दूसरों के द्वीपादि सबको मेरे ही आधीन समझो, क्योंकि मैं जब चाहूँ उनको शरण करके जा सकता हूँ।२७-२८। इत्यादि रूपचिन्तन चौर्यानन्द रौद्र ध्यान है।
- यह प्राणी रौद्र (क्रूर) चित्त होकर बहुत आरम्भ परिग्रहों में रक्षार्थ नियम से उद्यम करै और उसमें ही संकल्प की परम्परा को विस्तारै तथा रौद्रचित्त होकर ही महत्ता का अवलम्बन करके उन्नतचित्त हो, ऐसा मानै कि मैं राजा हूँ, ऐसे परिणाम को निर्मल बुद्धि वाले महापुरुष संसार की वांछा करने वाले जीवों के चौथा रौद्र ध्यान है।२९। मैं बाहुबल से सैन्य बल से सम्पूर्ण पुर ग्रामों को दग्ध करके असाध्य ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकता हूँ।३०। मेरे धन पर दृष्टि रखने वालों को मैं क्षण भर में दग्ध कर दूँगा।३१। मैंने यह राज्य शत्रु के मस्तक पर पाँव रखकर उसके दुर्ग में प्रवेश करके पाया है।३३। इसके अतिरिक्त जल, अग्नि, सर्प, विषादि के प्रयोगों द्वारा भी मैं समस्त शत्रु-समूह को नाश करके अपना प्रताप स्फुरायमान कर सकता हूँ।३४। इस प्रकार चिन्तवन करना विषय संरक्षणानन्द है।
- रौद्रध्यान के बाह्य चिह्न
म. पु./२१/४९-५३ अनानृशंस्यं हिंसोपकरणादानतत्कथाः। निसर्गहिंस्रता चेति लिंगान्यस्य स्मृतानि वै।४९।....वाक्पारुष्यादिलिंग तद् द्वितीयं रौद्रमिष्यते।५०।.....प्रतीतलिंगमेवैतद् रौद्रध्यानद्वयं भुवि....।५२। बाह्यन्तु लिङ्गमस्याहुः भ्रूभङ्गं मुखविक्रियाम्। प्रस्वेदमङ्गकम्पं च नेत्रयोश्चातिताम्रताम्।५३। = क्रूर होना, हिंसा के उपकरण तलवार आदि को धारण करना, हिंसा की ही कथा करना और स्वभाव से ही हिंसक होना ये हिंसानन्द रौद्रध्यान के चिन्ह माने गये हैं।४९। कठोर वचन आदि बोलना द्वितीय रौद्र ध्यान के चिन्ह हैं।५०। स्तेयानन्द और संरक्षणानन्द रौद्र ध्यान के बाह्यचिन्ह संसार में प्रसिद्ध हैं।५२। भौंह टेढ़ी हो जाना, मुख का विकृत हो जाना, पसीना आने लगना, शरीर काँपने लगना और नेत्रों का अतिशय लाल हो जाना आदि रौद्रध्यान के बाह्य चिन्ह हैं।५३। (ज्ञा./२६/३७-३८)।
चा. सा./१०७।१ परानुमेयं परुषनिष्ठुराक्रोशननिर्भर्त्सनबन्धनतर्जनताडनपीडनपरदारातिक्रमणादिलक्षणम्। = कठोर वचन, मर्मभेदी वचन, आक्रोश वचन, तिरस्कार करना, बाँधना, तर्जन करना, ताडन करना तथा परस्त्री पर अतिक्रमण करना आदि बाह्य रौद्रध्यान कहलाता है।
ज्ञा./२६/५-१५ अनारतं निष्करुणस्वभावः स्वभावतः क्रोधकषायदीप्तः। मदोद्धतः पापमतिः कुशीलः स्यान्नास्तिको यः स हि रौद्रधामा।५। अभिलषति नितान्तं यत्परस्यापकारं, व्यसनविशिखभिन्नं वीक्ष्य यत्तोषमेति। यदिह गुणगरिष्ठं द्वेष्टि दृष्टवान्यभूतिं, भवति हृदि सशल्यस्तद्धि रौद्रस्य लिंगम्।१३। हिंसोपकरणादानं क्रूरसत्त्वेष्वनुग्रहम्। निस्त्रिंशतादिलिंगानि रौद्रे बाह्यानि देहिनः।१५। = जो पुरुष निरन्तर निर्दय स्वभाव वाला हो तथा स्वभाव से ही क्रोध कषाय से प्रज्वलित हो तथा मद से उद्धत हो, जिसकी बुद्धि पाप रूप हो, तथा कुशीला हो, व्यभिचारी हो, नास्तिक हो वह रौद्र ध्यान का घर है।५। (ज्ञा./२६/६)। जो अन्य का बुरा चाहे तथा पर को कष्ट आपदारूप बाणों से भेदा हुआ दुःखी देखकर सन्तुष्ट हो तथा गुणों से गरुवा देखकर अथवा अन्य की सम्पदा देखकर द्वेष रूप हो, अपने हृदय में शल्य सहित हो सो निश्चय करके रौद्रध्यान का चिह्न है।१३। हिंसा के उपकरण शस्त्रादिक का संग्रह करना, क्रूर जीवों का अनुग्रह करना और निर्दयतादिकभाव रौद्रध्यान के देहधारियों के बाह्य चिह्न हैं।१५।
- रौद्रध्यान में सम्भव भाव व लेश्या
म. पु./२१/४४ प्रकृष्टतरदुर्लेश्यात्रयोपोद्बलवृंहितम्। अन्तर्मुहूर्तकालोत्थं पूर्ववद्भाव इष्यते।४४। (परोक्षज्ञानत्वादौदयिकभावं वा भावलेश्याकषायप्रधान्यात्। चा. सा.)। = यह रौद्र ध्यान अत्यन्त अशुभ है, कृष्ण आदि तीन खोटी लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है। अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है और पहले आर्तध्यान के समान इसका क्षयोपशमिक भाव होता है।४४। (ज्ञा./२६/३६, ३९)। अथवा भावलेश्या और कषायों की प्रधानता होने से औदयिक भाव है। (चा. सा./१७०/५)।
- रौद्रध्यान का फल−दे. आर्त/२।
- रौद्रध्यान में सम्भव गुणस्थान
त. सू./९/३५....रौद्रमविरतदेशविरतयोः।३५। वह रौद्रध्यान अविरत और देशविरत के होता है।
म. पु./२१/४३ षष्ठात्तु तदगुणस्थानात् प्राक् पञ्चगुण भूमिकम्। = यह ध्यान छठवें गुणस्थान के पहले-पहले पाँच गुणस्थानों में होता है। (चा. सा./१७१/१); (ज्ञा./२६/३६)।
द्र. सं./टी./४८/२०१/९ रौद्रध्यानं...तारतम्येन मिथ्यादृष्टयादिपंचमगुणस्थानवर्त्तिजीवसंभवम्। = यह रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि से पंचम गुणस्थान तक के जीवों के तारतमता से होता है।
- देशव्रती को कैसे सम्भव है ?
स. सि./९/३/४४८/८ अविरतस्य भवतु रौद्रध्यानं, देशविरतस्य कथम्। तस्यापि हिंसाद्यावेशाद्वित्तादिसंरक्षणतन्त्रत्वाच्च कदाचिद् भवितुमर्हति। तत्पुनर्नारकादीनामकारणं; सम्यग्दर्शनसामर्थ्यात्। = प्रश्न−रौद्र ध्यान अविरत के होओ, देशविरत के कैसे हो सकता है ? उत्तर−हिंसादि के आवेश से या वित्तादि के संरक्षण के परतन्त्र होने से कदाचित् उसके भी हो सकता है। किन्तु देशविरत के होने वाला रौद्रध्यान नरकादि दुर्गतियों का कारण नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन की ऐसी ही सामर्थ्य है। (रा. वा./९/३५/३/६२९/१९); (ज्ञा./२६/३६/भाषा)।
- साधु को कदापि सम्भव नहीं
स. सि./९/३५/४४८/१० संयतस्य तु न भवत्येव; तदारम्भे संयमप्रच्युते। = परन्तु यह संयत के तो होता ही नहीं है; क्योंकि उसका आरम्भ होने पर संयम से पतन हो जाता है। (रा. वा./९/३५/४/६२९/२२)।