धर्मचक्र
From जैनकोष
(म.पु./२२/२९२-२९३) तां पीठिकामलंचक्रु: अष्टमङ्गलसंपद:। धर्मचक्राणि चोढानि प्रांशुभिर्यक्षमूर्धभि:।२९२। सहस्राणि तान्युद्यद्रत्नरश्मीनि रेजिरे। भानुबिम्बानिवोद्यन्ति पीठिकोदयपर्वतात् ।२९३। =उस (समवशरण स्थित) पीठिका को अष्टमंगलरूपी सम्पदाए और यक्षों के ऊचे-ऊचे मस्तकों पर रखे हुए धर्मचक्र अलंकृत कर रहे थे।२९२। जिनमें लगे हुए रत्नों की किरणें ऊपर की ओर उठ रही हैं ऐसे, हज़ार-हज़ार आरोंवाले वे धर्मचक्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पीठिकारूपी उदयाचल से उदय होते हुए सूर्य के बिम्ब ही हों।२९३।